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सम्बन्ध‒कामना, स्पृहा, ममता और अहंतासे रहित होनेपर उसकी क्या स्थिति होती है‒इसका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हुए इस विषयका उपसंहार करते
हैं । सूक्ष्म विषय‒कामना आदिसे रहित होनेकी विशेष महिमाका
वर्णन । एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति । स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि
ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥ ७२ ॥ अर्थ‒हे पृथानन्दन ! यह ब्राह्मी स्थिति है । इसको प्राप्त होकर
कभी कोई मोहित नहीं होता । इस स्थितिमें यदि अन्तकालमें भी स्थित हो जाय तो निर्वाण
(शान्त) ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है ।
व्याख्या‒‘एषा ब्राह्मी स्थितः
पार्थ’‒यह ब्राह्मी स्थिति है अर्थात् ब्रह्मको प्राप्त हुए मनुष्यकी
स्थिति है । अहंकाररहित होनेसे जब व्यक्तित्व मिट जाता है,
तब उसकी स्थिति स्वतः ही ब्रह्ममें होती है । कारण कि संसारके
साथ सम्बन्ध रखनेसे ही व्यक्तित्व था । उस सम्बन्धको सर्वथा छोड़ देनेसे योगीकी अपनी
कोई व्यक्तिगत स्थिति नहीं रहती । अत्यन्त नजदीकका वाचक होनेसे यहाँ ‘एषा’ पद पूर्वश्लोकमें आये ‘विहाय कामान्’, ‘निःस्पृहः’, ‘निर्ममः’ और ‘निरहङ्कारः’ पदोंका लक्ष्य करता है । भगवान्के मुखसे ‘तेरी बुद्धि जब मोहकलिल और श्रुतिविप्रतिपत्तिसे तर जायगी,
तब तू योगको प्राप्त हो जायगा’‒ऐसा सुनकर अर्जुनके मनमें यह जिज्ञासा हुई कि वह स्थिति क्या
होगी
? इसपर अर्जुनने स्थितप्रज्ञके
विषयमें चार प्रश्न किये । उन चारों प्रश्नोंका उत्तर देकर भगवान्ने यहाँ वह स्थिति
बतायी कि वह ब्राह्मी स्थिति है । तात्पर्य है कि वह व्यक्तिगत स्थिति नहीं है अर्थात्
उसमें व्यक्तित्व नहीं रहता । वह नित्ययोगकी प्राप्ति है । उसमें एक ही तत्त्व रहता
है । इस विषयकी तरफ लक्ष्य करानेके लिये ही यहाँ ‘पार्थ’
सम्बोधन दिया गया है । ‘नैनां
प्राप्य विमुह्यति’‒जबतक शरीरमें अहंकार रहता है, तभीतक मोहित होनेकी सम्भावना रहती है । परन्तु जब अहंकारका सर्वथा
अभाव होकर ब्रह्ममें अपनी स्थितिका अनुभव हो जाता है,
तब व्यक्तित्व टूटनेके कारण फिर कभी मोहित होनेकी सम्भावना नहीं
रहती । सत् और असत्को ठीक तरहसे न जानना ही मोह है । तात्पर्य है
कि स्वयं सत् होते हुए भी असत्के साथ अपनी एकता मानते रहना
ही मोह है । जब साधक असत्को ठीक तरहसे जान लेता है,
तब असत्से उसका सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है१ और सत्में अपनी वास्तविक स्थितिका अनुभव हो जाता है । इस स्थितिका
अनुभव होनेपर फिर कभी मोह नहीं होता (गीता‒चौथे अध्यायका पैंतीसवाँ श्लोक) । १.असत्को जाननेसे असत्की निवृत्ति हो जाती है; क्योंकि असत्की स्वतन्त्र सत्ता है
ही नहीं । सत्से ही असत्को सत्ता मिलती है । अगर असत्को जाननेसे असत्की निवृत्ति
न हो तो वास्तवमें असत्को जाना ही नहीं है; प्रत्युत सीखा है । सीखे हुए ज्ञानसे
असत्की निवृत्ति नहीं होती; क्योंकि मनमें असत्की सत्ता रहती है । ‘स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि
ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति’‒यह मनुष्य-शरीर केवल परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है । इसलिये
भगवान् यह मौका देते हैं कि साधारण-से-साधारण और पापी-से-पापी व्यक्ति ही क्यों न हो,
अगर वह अन्तकालमें भी अपनी स्थिति परमात्मामें कर ले अर्थात्
जडतासे अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर ले, तो उसे भी निर्वाण (शान्त) ब्रह्मकी प्राप्ति हो जायगी,
वह जन्म-मरणसे मुक्त हो जायगा । ऐसी ही बात भगवान्ने सातवें
अध्यायके तीसवें श्लोकमें कही है कि ‘अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ एक भगवान् ही हैं‒ऐसा प्रयाणकालमें भी मेरेको जो जान लेते हैं,
वे मेरेको यथार्थरूपसे जान लेते हैं अर्थात् मेरेको प्राप्त
हो जाते हैं ।’ आठवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें कहा कि ‘अन्तकालमें मेरा स्मरण करता हुआ कोई प्राण छोड़ता है,
वह मेरेको ही प्राप्त होता है,
इसमें सन्देह नहीं है ।’ दूसरी बात, उपर्युक्त पदोंसे भगवान् उस ब्राह्मी स्थितिकी महिमाका वर्णन
करते हैं कि इसमें यदि अन्तकालमें भी कोई स्थित हो जाय,
तो वह शान्त ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है । जैसे समबुद्धिके
विषयमें भगवान्ने कहा था कि इसका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान महान् भयसे रक्षा कर लेता
है (दूसरे अध्यायका चालीसवाँ श्लोक), ऐसे ही यहाँ कहते हैं कि अन्तकालमें भी ब्राह्मी स्थिति हो जाय,
जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाय,
तो निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है । इस स्थितिका अनुभव
होनेमें जडताका राग ही बाधक है । यह राग अन्तकालमें भी कोई छोड़ देता है तो उसको अपनी
स्वतःसिद्ध वास्तविक स्थितिका अनुभव हो जाता है । यहाँ यह शंका हो सकती है कि जो अनुभव उम्रभरमें नहीं हुआ,
वह अन्तकालमें कैसे होगा ? अर्थात् स्वस्थ अवस्थामें तो साधककी बुद्धि स्वस्थ होगी,
विचार-शक्ति होगी, सावधानी होगी तो वह ब्राह्मी स्थितिका अनुभव कर लेगा;
परन्तु अन्तकालमें प्राण छूटते समय बुद्धि विकल हो जाती है,
सावधानी नहीं रहती‒ऐसी अवस्थामें ब्राह्मी स्थितिका अनुभव कैसे होगा
? इसका समाधान यह है कि मृत्युके समयमें जब प्राण छूटते हैं, तब
शरीर आदिसे स्वतः ही सम्बन्ध-विच्छेद होता है । यदि उस समय उस स्वतःसिद्ध तत्त्वकी
तरफ लक्ष्य हो जाय, तो उसका अनुभव सुगमतासे हो जाता है । कारण कि निर्विकल्प
अवस्थाकी प्राप्तिमें तो बुद्धि, विवेक आदिकी आवश्यकता है, पर
अवस्थातीत तत्त्वकी प्राप्तिमें केवल लक्ष्यकी आवश्यकता है ।२ वह लक्ष्य चाहे पहलेके अभ्याससे हो
जाय, चाहे किसी शुभ संस्कारसे हो जाय, चाहे
भगवान् या सन्तकी अहैतुकी कृपासे हो जाय, लक्ष्य होनेपर उसकी प्राप्ति स्वतःसिद्ध है । २.निर्विकल्प-अवस्थाकी प्राप्तिमें ही अभ्यास, विचार, निदिध्यासन आदि काम करते हैं, पर निर्विकल्प बोध (अवस्थातीत ब्राह्मी स्थिति)-की प्राप्तिमें बुद्धि काम नहीं करती । उसमें बुद्धि छूट जाती है । कारण कि निर्विकल्प
बोध करण-निरपेक्ष है अर्थात् उसमें करणकी किंचिन्मात्र भी अपेक्षा नहीं है । उसकी प्राप्तिमें
करणसे सम्बन्ध-विच्छेद ही कारण है । यहाँ ‘अपि’
पदका तात्पर्य है कि अन्तकालसे पहले अर्थात् जीवित-अवस्थामें
यह स्थिति प्राप्त कर ले तो वह जीवन्मुक्त हो जाता है;
परन्तु अगर अन्तकालमें भी यह स्थिति हो जाय अर्थात् निर्मम-निरहंकार
हो जाय तो वह भी मुक्त हो जाता है । इसका तात्पर्य यह है कि यह स्थिति तत्काल हो जाती
है । स्थितिके लिये अभ्यास करने, ध्यान
करने, समाधि
लगानेकी किंचिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है ।
भगवान्ने यहाँ कर्मयोगके प्रकरणमें ‘ब्रह्मनिर्वाणम्’ पद दिया है । इसका तात्पर्य है कि जैसे सांख्ययोगीको निर्वाण
ब्रह्मकी प्राप्ति होती है (गीता‒पाँचवें अध्यायके चौबीसवेंसे छब्बीसवें श्लोकतक),
ऐसे ही कर्मयोगीको भी निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति होती है ।
इसी बातको पाँचवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें कहा है कि सांख्ययोगीद्वारा जो स्थान
प्राप्त किया जाता है, वही स्थान कर्मयोगीद्वारा भी प्राप्त किया जाता है । രരരരരരരരരര |