Listen
विशेष बात जड और चेतन‒ये दो पदार्थ हैं । प्राणिमात्रका स्वरूप चेतन है,
पर उसने जडका संग किया हुआ है । जडकी तरफ आकर्षण होना पतनकी
तरफ जाना है और चिन्मय-तत्त्वकी तरफ आकर्षण होना उत्थानकी तरफ जाना है,
अपना कल्याण करना है । जडकी तरफ जानेमें ‘मोह’ की मुख्यता होती है और परमात्मतत्त्वकी तरफ जानेमें ‘विवेक’ की मुख्यता होती है । समझनेकी दृष्टिसे मोह और विवेकके दो-दो विभाग कर सकते हैं‒(१) अहंता-ममतायुक्त मोह एवं कामनायुक्त मोह,
(२) सत्-असत्का विवेक एवं
कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेक । प्राप्त वस्तु, शरीरादिमें अहंता-ममता करना‒यह अहंता-ममतायुक्त मोह है और अप्राप्त वस्तु,
घटना, परिस्थिति आदिकी कामना करना‒यह कामनायुक्त मोह है । शरीरी (शरीरमें रहनेवाला) अलग है और
शरीर अलग है, शरीरी सत् है और शरीर असत् है, शरीरी चेतन है और शरीर जड है‒इसको ठीक तरहसे अलग-अलग जानना सत्-असत्का विवेक है और कर्तव्य
क्या है,
अकर्तव्य क्या है, धर्म क्या है, अधर्म क्या है‒इसको ठीक तरहसे समझकर उसके अनुसार कर्तव्य करना और अकर्तव्यका
त्याग करना कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेक है । पहले अध्यायमें अर्जुनको भी दो प्रकारका मोह हो गया था,
जिसमें प्राणिमात्र फँसे हुए हैं । अहंताको लेकर ‘हम दोषोंको जाननेवाले धर्मात्मा हैं’
और ममताको लेकर ‘ये कुटुम्बी मर जायँगे’‒यह अहंता-ममतायुक्त मोह हुआ । हमें पाप न लगे,
कुलके नाशका दोष न लगे, मित्रद्रोहका पाप न लगे, नरकोंमें न जाना पड़े, हमारे पितरोंका पतन न हो‒यह कामनायुक्त मोह हुआ । उपर्युक्त दोनों प्रकारके मोहको दूर करनेके लिये भगवान्ने दूसरे
अध्यायमें दो प्रकारका विवेक बताया है‒शरीरी-शरीरका, सत्-असत्का विवेक (दूसरे अध्यायके ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक)
और कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेक (दूसरे अध्यायके इकतीसवेंसे तिरपनवें श्लोकतक) । शरीरी-शरीरका विवेक बताते हुए भगवान्ने कहा कि मैं,
तू और ये राजा लोग पहले नहीं थे‒यह बात भी नहीं और आगे नहीं रहेंगे‒यह बात भी नहीं अर्थात् हम सभी पहले भी थे और आगे भी रहेंगे
तथा ये शरीर पहले भी नहीं थे और आगे भी नहीं रहेंगे तथा बीचमें भी प्रतिक्षण बदल रहे
हैं । जैसे शरीरमें कुमार, युवा और वृद्धावस्था‒ये अवस्थाएँ बदलती हैं और जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको छोड़कर
नये वस्त्र धारण करता है, ऐसे ही जीव पहले शरीरको छोड़कर दूसरा शरीर धारण करता है,
यह तो अकाट्य नियम है । इसमें चिन्ताकी,
शोककी बात ही क्या है ? कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेक बताते हुए भगवान्ने कहा कि क्षत्रियके
लिये युद्धसे बढ़कर कोई धर्म नहीं है । अनायास प्राप्त हुआ युद्ध स्वर्गप्राप्तिका
खुला दरवाजा है । तू युद्धरूप स्वधर्मका पालन नहीं करेगा तो तुझे पाप लगेगा । यदि तू
जय-पराजय,
लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान करके युद्ध करेगा तो तुझे पाप नहीं
लगेगा । तेरा तो कर्तव्य-कर्म करनेमें ही अधिकार है, फलमें कभी नहीं । तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और कर्म न करनेमें
भी तेरी आसक्ति न हो । इसलिये तू कर्मोंकी सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर और समतामें स्थित
होकर कर्मोंको कर; क्योंकि समता ही योग है । जो मनुष्य समबुद्धिसे युक्त होकर कर्म
करता है,
वह जीवित-अवस्थामें ही पुण्य-पापसे रहित हो जाता है । जब तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदलको और श्रुतिविप्रतिपत्तिको पार
कर जायगी,
तब तू योगको प्राप्त हो जायगा । परिशिष्ट भाव‒निर्मम और निरहंकार होनेसे साधकका असत्-विभागसे सम्बन्ध-विच्छेद
हो जाता है और सत्-विभागमें अर्थात् ब्रह्ममें अपनी स्वतः-स्वाभाविक स्थितिका अनुभव
हो जाता है, जिसको ‘ब्राह्मी स्थिति’ कहते हैं । इस ब्राह्मी स्थितिको प्राप्त होनेपर शरीरका कोई
मालिक नहीं रहता अर्थात् शरीरको मैं-मेरा कहनेवाला कोई नहीं रहता,
व्यक्तित्व मिट जाता है । तात्पर्य यह हुआ कि हमारी स्थिति अहंकारके
आश्रित नहीं है । अहंकारके मिटनेपर भी हमारी स्थिति रहती है,
जो ‘ब्राह्मी स्थिति’ कहलाती है । एक बार इस ब्राह्मी स्थिति (नित्ययोग)-का अनुभव
होनेपर फिर कभी मोह नहीं होता (गीता‒चौथे अध्यायका पैंतीसवाँ श्लोक) । अगर अन्तकालमें भी मनुष्य
निर्मम-निरहंकार होकर ब्राह्मी स्थितिका अनुभव कर ले तो उसको तत्काल निर्वाण ब्रह्मकी
प्राप्ति हो जाती है । निर्मम-निरहंकार होनेसे ब्रह्मकी प्राप्ति,
तत्त्वज्ञान हो जाता है । फिर मनुष्य ममतारहित,
कामनारहित और कर्तृत्वरहित हो जाता है । कारण कि जीवने अहम्के
कारण ही जगत्को धारण किया है‒‘अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३ । २७), ‘जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७ । ५) । यदि वह अहम्का त्याग कर दे तो फिर जगत् नहीं रहेगा । ब्रह्मकी
प्राप्ति होनेपर (अगर भक्तिके संस्कार हों तो) समग्र परमात्माकी प्राप्ति स्वतः हो
जाती है,
क्योंकि समग्र परमात्मा ब्रह्मकी प्रतिष्ठा हैं । मेरा कुछ नहीं है‒इसको
स्वीकार करनेसे मनुष्य ‘निर्मम’ हो
जाता है, मेरेको
कुछ नहीं चाहिये‒इसको स्वीकार करनेसे मनुष्य ‘निष्काम’ हो
जाता है । मेरेको अपने लिये कुछ नहीं करना है‒इसको
स्वीकार करनेसे मनुष्य ‘निरहंकार’ हो
जाता है । गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒अहंतारहित होनेपर मनुष्य
ब्राह्मी स्थितिको प्राप्त हो जाता है । उसकी अपनी कोई स्वतन्त्र स्थिति नहीं रहती
। इस ब्राह्मी स्थितिकी प्राप्ति एक बार और सदाके लिये होती है । कारण कि ब्रह्ममें
हमारी स्वतः-स्वाभाविक स्थिति है, पर अहंकारके कारण इसका अनुभव नहीं होता । ‘मैं हूँ’ मिट जाय और ‘है’ रह जाय‒यही ब्राह्मी स्थिति
है । यह सिद्धान्त
है कि जो वस्तु मिलने और बिछुड़नेवाली तथा उत्पन्न और नष्ट होनेवाली होती है, वह हमारी तथा हमारे लिये नहीं हो सकती । शरीर तो मिलने-बिछुड़नेवाला
तथा उत्पन्न-नष्ट होनेवाला है, पर स्वयं मिलने-बिछुड़नेवाला तथा उत्पन्न-नष्ट
होनेवाला नहीं है । अतः साधक दृढ़तापूर्वक इस सत्यको स्वीकार
कर ले कि मैं (स्वयं) त्रिकालमें भी शरीर नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है तथा मेरे लिये
भी नहीं है । ‘निर्वाण’ शब्दके दो
अर्थ होते हैं‒लुप्त (खोया हुआ) और विश्राम (शान्त) । अतः खोये हुए ब्रह्मको
पा लेना अथवा परम विश्रामको प्राप्त कर लेना ही निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति है । ‘निर्वाण’
शब्दका एक अर्थ शून्य भी होता है । शून्य अभावका वाचक नहीं है । शून्यका तात्पर्य है‒जो न सत् हो, न
असत् हो, न सदसत् हो और न सदसत्से भिन्न हो अर्थात् जो अनिर्वचनीय
तत्त्व हो‒‘अतस्तत्वं सदसदुभयानुभयात्मक चतुष्कोटि विनिर्मुक्तं
शून्यमेव’ (सर्वदर्शनसंग्रह) । क्रियामात्रका
सम्बन्ध संसारके साथ है । हमारा स्वरूप अक्रिय है । इसलिये शरीरके द्वारा हम अपने
(स्वरूपके) लिये कुछ नहीं कर सकते । शरीरके द्वारा हम कोई भी क्रिया करेंगे तो वह संसारके
लिये ही होगी, अपने लिये नहीं । पूर्वपक्ष‒तो फिर हम अपने लिये
क्या कर सकते हैं ? उत्तरपक्ष‒हम अपने
लिये अपने द्वारा निष्काम, निस्पृह, निर्मम
और निरहंकार हो सकते हैं । क्यों हो सकते हैं ? क्योंकि हम वास्तवमें
स्वरूपसे निष्काम, निःस्पृह, निर्मम और
निरहंकार हैं । രരരരരരരരരര ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु
ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे साङ्ख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥ इस प्रकार ॐ, तत्, सत्‒इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक
ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें
‘सांख्ययोग’ नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥
२ ॥ कर्मयोग, सांख्ययोग, भक्तियोग आदि सभी साधनोंमें विवेककी बड़ी आवश्यकता है । सांख्ययोगमें
इस विवेककी मुख्यता है और सांख्ययोगसे ही भगवान्ने अपना उपदेश आरम्भ किया है;
अतः इस अध्यायका नाम ‘सांख्ययोग’ रखा गया है । दूसरे अध्यायके पद, अक्षर और उवाच (१) इस अध्यायमें ‘अथ द्वितीयोऽध्यायः’ के तीन, ‘संजय उवाच’, ‘श्रीभगवानुवाच’ आदि पदोंके चौदह, श्लोकोंके नौ सौ सत्तावन और पुष्पिकाके तेरह पद हैं । इस प्रकार
सम्पूर्ण पदोंका योग नौ सौ सत्तासी है । (२) इस अध्यायमें ‘अथ द्वितीयोऽध्यायः’ के सात, ‘संजय उवाच’, ‘श्रीभगवानुवाच’ आदि पदोंके पैंतालीस, श्लोकोंके दो हजार चार सौ तीन और पुष्पिकाके पैंतालीस अक्षर
हैं । इस प्रकार सम्पूर्ण अक्षरोंका योग दो हजार पाँच सौ है । इस अध्यायके बहत्तर श्लोकोंमेंसे
पाँचवाँ,
सातवाँ, आठवाँ, बीसवाँ, बाईसवाँ और सत्तरवाँ‒ये छः श्लोक चौवालीस अक्षरोंके,
छठा श्लोक छियालीस अक्षरोंका और उनतीसवाँ श्लोक पैंतालीस अक्षरोंका
है । शेष चौंसठ श्लोक बत्तीस अक्षरोंके हैं । (३) इस अध्यायमें सात उवाच हैं‒दो ‘संजय उवाच’, तीन ‘श्रीभगवानुवाच’ और दो ‘अर्जुन उवाच’ । दूसरे अध्यायमें प्रयुक्त छन्द
इस अध्यायके बहत्तर श्लोकोंमेंसे पाँचवाँ,
छठा, सातवाँ, आठवाँ, बीसवाँ, बाईसवाँ, उनतीसवाँ और सत्तरवाँ‒ये आठ श्लोक ‘उपजाति’
छन्दवाले हैं । दूसरे अध्यायमें बावनवें और सड़सठवें श्लोकके
प्रथम चरणमें ‘नगण’ प्रयुक्त होनेसे ‘न-विपुला’; बारहवें, छब्बीसवें और बत्तीसवें श्लोकके प्रथम चरणमें तथा इकसठवें और
तिरसठवें श्लोकके तृतीय चरणमें ‘रगण’ प्रयुक्त होनेसे ‘र-विपुला’; छत्तीसवें और छप्पनवें श्लोकके प्रथम चरणमें ‘भगण’ प्रयुक्त होनेसे ‘भ-विपुला’; इकहत्तरवें श्लोकके प्रथम चरणमें और इकतीसवें श्लोकके तृतीय
चरणमें ‘मगण’ प्रयुक्त होनेसे ‘म-विपुला’; छियालीसवें श्लोकके प्रथम चरणमें ‘सगण’ प्रयुक्त होनेसे ‘स-विपुला’; पैंतीसवें श्लोकके प्रथम और तृतीय चरणमें ‘नगण’ प्रयुक्त होनेसे ‘जातिपक्ष-विपुला’ और सैंतालीसवें श्लोकके प्रथम चरणमें ‘भगण’ तथा तृतीय चरणमें ‘नगण’ प्रयुक्त होनेसे ‘संकीर्ण-विपुला’ संज्ञावाले छन्द हैं । शेष उनचास श्लोक ठीक ‘पथ्यावक्त्र’ अनुष्टुप् छन्दके लक्षणोंसे युक्त हैं । രരരരരരരരരര |