।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०८०, गुरुवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

अथ तृतीयोऽध्यायः

अवतरणिका‒

श्रीमद्भगवद्‍गीताका उपदेश मनुष्यमात्रके अनुभवपर आधारित है । इसका दिव्य उपदेश (दूसरे अध्यायके ग्यारहवें श्‍लोकसे) आरम्भ करनेपर सबसे पहले भगवान् यह स्पष्‍ट करते हैं कि शरीर और शरीरी एक-दूसरेसे सर्वथा भिन्‍न हैं । शरीर अनित्य, असत्, एकदेशीय और नाशवान्‌ है तथा शरीरी नित्य, सत्‌, सर्वव्यापी और अविनाशी है । अतः नाशवान् वस्तुका विनाश देखकर दुःखी नहीं होना और अविनाशी वस्तुकी अविनाशिता देखकर उसे बनाये रखनेकी इच्छा नहीं करनाविवेक’ कहा जाता है । कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोगतीनों ही योगमार्गोंमें विवेककी बड़ी आवश्यकता है । मैं शरीरसे सर्वथा भिन्‍न हूँ’ऐसा विवेक होनेपर ही मुक्तिकी अभिलाषा जाग्रत् होती है । मुक्तिकी बात तो दूर रही, स्वर्गादिकी प्राप्‍तिकी कामना भी अपनेको शरीरसे अलग माननेपर ही उत्पन्‍न होती है । इसीलिये भगवान्‌ने अपने उपदेशका आरम्भ करते ही सबसे पहले विवेकका ही वर्णन किया है ।

गीताका उपर्युक्त विवेक-प्रकरण दूसरे अध्यायके ग्यारहवें श्‍लोकसे प्रारम्भ होकर तीसवें श्‍लोकपर समाप्‍त होता है । विवेकके इस प्रकरणमें भगवान्‌ने आत्मा, अनात्मा, प्रकृति, पुरुष, ब्रह्म, अविद्या, ईश्‍वर, जीव, जगत्, माया आदि किसी भी दार्शनिक शब्दका प्रयोग नहीं किया है, प्रत्युत सभी मनुष्य सरलतासे समझ सकें, ऐसे ढंगसे भगवान्‌ने उसका विवेचन किया है । इसका तात्पर्य यह है कि मात्र मनुष्य परमात्मप्राप्‍तिके अधिकारी हैं; क्योंकि मनुष्यशरीर परमात्मप्राप्‍तिके लिये ही मिला है । अतः उपर्युक्त विवेकको महत्व देकर मात्र मनुष्य परमात्मप्राप्‍ति कर सकते हैं ।

इस प्रकरणमें भगवान्‌नेबुद्धि’ शब्दका प्रयोग भी नहीं किया है । वास्तवमें नित्य और अनित्य, सत् और असत्, अविनाशी और विनाशी, शरीरी और शरीरको अलग-अलग समझनेके लिये विवेककी ही आवश्यकता हैबुद्धि’ की नहीं । विवेक बुद्धिसे परे है । जैसे प्रकृति और पुरुष अनादि हैं (गीतातेरहवें अध्यायका उन्‍नीसवाँ श्‍लोक), ऐसे ही उनकी भिन्‍नताको प्रकट करनेवाला विवेक भी अनादि है । यही विवेक बुद्धिमें प्रकट होता है । यह भगवत्प्रदत्त विवेक मात्र प्राणियोंको नित्यप्राप्‍त है । पशु-पक्षी भी खाद्य-अखाद्य पदार्थोंकी भिन्‍नताको जानते हैं । लता-वृक्षमें भी सरदी-गरमी, अनुकूलता-प्रतिकूलताकी भिन्‍नताका ज्ञान रहता है । बुद्धिप्रधान होनेके कारण मनुष्यको यह विवेक विशेषरूपसे प्राप्‍त है । पशु-पक्षी आदिमें तो जीवन-निर्वाहमात्रके लिये जड-पदार्थोंका विवेक रहता है, पर मनुष्य अपने विवेकसे सदाके लिये जन्म-मरणरूप बन्धनसे मुक्त होकर शाश्‍वत शान्ति प्राप्‍त कर सकता है । यही मनुष्यके विवेककी विशेषता है ।

विवेक जाग्रत् होनेपर अर्थात् शरीर और शरीरीकी भिन्‍नताका अनुभव होनेपर अपने कहलानेवाले शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसहित संसारका सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, जो कि वास्तवमें है और बुद्धि शुद्ध तथा सम हो जाती है अर्थात् बुद्धिका विषमभाव मिट जाता है ।

कर्मयोगमें बुद्धिके एक निश्‍चयकी प्रधानता हैव्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह’ (गीता २ । ४१)मनुष्यका जब अपने कल्याण अथवा परमात्मप्राप्‍तिका ही एक निश्‍चय हो जाता है, तब उसे अनुकूलता और प्रतिकूलता बाधा नहीं पहुँचाती और इस प्रकार बिना कुछ किये ही उसकी बुद्धि स्वतः सम होने लगती है । बुद्धिको सम करनेके लिये तभीतक कहा जाता है, जबतक बुद्धिमें संसारका महत्व, आकर्षण, खिंचाव रहता है । एक निश्‍चयात्मिका बुद्धि हो जानेपर संसारका महत्व, आकर्षण, खिंचाव स्वतः मिटने लग जाता है । ऐसी निश्‍चयात्मिका बुद्धि होनेमें भोग ओर संग्रहकी आसक्तिको महान् बाधक बताया गया है (गीतादूसरे अध्यायका चौवालीसवाँ श्‍लोक)

१.सांख्ययोगमें विवेककी, भक्तियोगमें श्रद्धा-विश्‍वासकी एवं कर्मयोगमें निश्‍चयात्मिका बुद्धिकी प्रधानता रहती है । कर्मयोगमें विवेक तथा श्रद्धा-विश्‍वास न होते होंऐसा नहीं है, पर मुख्यता एक निश्‍चयात्मिका बुद्धिकी रहती है । ऐसे ही सांख्ययोग एवं भक्तियोगमें भी एक निश्‍चयात्मिका बुद्धि रहती है ।

इस तरह कर्मयोगमें निश्‍चयात्मिका बुद्धिकी अत्यन्त आवश्यकता बतानेके बाद भगवान् अर्जुनको समभावपूर्वक कर्तव्यकर्म करनेके लिये विशेषरूपसे कहते हैं; जैसे‒‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ (२ । ४७), ‘योगस्थः कुरू कर्माणि’ (२ । ४८) ‘तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है’,समतामें स्थित हुआ तू कर्मोंको कर इसके साथ यह भी कहते हैं कि दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगात्’ (२ । ४९) ‘बुद्धियोग (समता)-से सकामकर्म अत्यन्त तुच्छ हैं’, आगे कहते हैं‒बुद्धौ शरणमन्विच्छ’ (२ । ४९), बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते । तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥’ (२ । ५०) तू समबुद्धिका आश्रय ग्रहण कर,समतापूर्वक कर्म करनेवाला पुरुष पाप और पुण्यदोनोंका यहाँ जीवित-अवस्थामें ही त्याग कर देता है, इसलिये तू समताकी प्राप्‍तिके लिये ही प्रयत्‍न कर; क्योंकि समता ही कर्मोंमें चतुरता है ।’

अर्जुनके मनमें युद्ध न करनेका आग्रह पहलेसे ही था । पहले अध्यायके इकतीसवें श्‍लोकमें अर्जुन कहते हैं‒‘युद्धमें अपने कुलको मारकर मैं अपना हित नहीं देखता‘न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ।’ फिर पैंतालीसवें श्‍लोकमें वे कहते हैं‒‘अहो ! शोक है कि हमलोग बुद्धिमान् होकर भी युद्धरूप महान् पाप करनेको तैयार हो गये हैं’‘अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।आगे दूसरे अध्यायके पाँचवें श्‍लोकमें अर्जुन कहते हैं‒मैं भिक्षाका अन्‍न खाना श्रेष्‍ठ समझता हूँ, पर युद्ध करना नहीं’श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके और नवें श्‍लोकमें तो भगवान्‌की आज्ञा ‘उत्तिष्‍ठ परन्तप’ (२ । ३) के विरुद्ध अपना निर्णय ही सुना देते हैं कि मैं युद्ध नहीं करूँगायोत्स्ये’ (गीता २ । ९)

यह नियम हैं कि अपना आग्रह रखनेसे श्रोता वक्ताकी बातोंका आशय अच्छी तरहसे नहीं समझ सकता । यही कारण है कि अपना (युद्ध न करनेका) आग्रह रखनेसे अर्जुन भी उपर्युक्त प्रकरणमें भगवान्‌के वचनोंका आशय अच्छी तरहसे नही समझ सके । अतः अर्जुनको भगवान्‌के वचन मिले हुए-से जान पड़ने लगे । इसलिये भगवान्‌का अभिप्राय क्या है ? वे मेरे कल्याणके लिये कौन-सा साधन श्रेष्‍ठ समझते हैं‒इसका खुलासा करानेके लिये अर्जुन आगेके दो श्‍लोकोंमें भगवान्‌से प्रश्‍न करते हैं ।

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