।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०८०, शुक्रवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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प्रधान विषय‒१‒८ श्‍लोकतक‒सांख्ययोग और कर्मयोगकी दृष्‍टिसे कर्तव्य-कर्म करनेकी आवश्यकताका निरूपण ।

सूक्ष्म विषय‒१-२ श्‍लोक‒भगवान्‌के वचनोंके स्पष्‍टिकरणके लिये अर्जुनकी प्रार्थना ।

अर्जुन उवाच

          ज्यायसी  चेत्कर्मणस्ते  मता बुद्धिर्जनार्दन ।

      तत्किं कर्मणि घोरे मां  नियोजयसि केशव ॥ १ ॥

          व्यामिश्रेणेव  वाक्येन बुद्धिं  मोहयसीव मे ।

       तदेकं वद निश्‍चित्य येन श्रेयोऽहमाप्‍नुयाम् ॥ २ ॥

अर्थअर्जुन बोलेहे जनार्दन ! अगर आप कर्मसे बुद्धि (ज्ञान)-को श्रेष्‍ठ मानते हैं, तो फिर हे केशव ! मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते ? (आप अपने) मिले हुएसे वचनोंसे मेरी बुद्धिको मोहित-सी कर रहे हैं । (अतः आप) निश्‍चय करके उस एक बातको कहिये, जिससे मैं कल्याणको प्राप्‍त हो जाऊँ ।

जनार्दन = हे जनार्दन !

व्यामिश्रेण,इव = (आप अपने) मिले हुएसे

चेत् = अगर

वाक्येन = वचनोंसे

ते = आप

मे = मेरी

कर्मणः = कर्मसे

बुद्धिम् = बुद्धिको

बुद्धिः = बुद्धि (ज्ञान)-को

मोहयसि, इव = मोहित-सी कर रहे हैं । (अतः आप)

ज्यायसी = श्रेष्‍ठ

निश्‍चित्य = निश्‍चय करके

मता = मानते हैं,

तत् = उस

तत् = तो फिर

एकम् = एक बातको

केशव = हे केशव !

वद = कहिये,

माम् = मुझे

येन = जिससे

घोरे = घोर

अहम्‌ = मैं

कर्मणि = कर्ममें

श्रेय = कल्याणको

किम् = क्यों

आप्‍नुयाम् = प्राप्‍त हो जाऊँ ।

नियोजयसि = लगाते हैं ?

 

व्याख्याजनार्दनइस पदसे अर्जुन मानो यह भाव प्रकट करते हैं कि हे श्रीकृष्ण ! आप सभीकी याचना पूरी करनेवाले हैं; अतः मेरी याचना तो अवश्य ही पूरी करेंगे ।

ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते...........नियोजयसि केशव‒मनुष्यके अन्तःकरणमें एक कमजोरी रहती है कि वह प्रश्‍न करके उत्तरके रूपमें भी वक्तासे अपनी बात अथवा सिद्धान्तका ही समर्थन चाहता है । इसे कमजोरी इसलिये कहा गया है कि वक्ताके निर्देशका चाहे वह मनोऽनुकूल हो या सर्वथा प्रतिकूल, पालन करनेका निश्‍चय ही शूरवीरता है, शेष सब कमजोरी या कायरता ही कही जायगी । इस कमजोरीके कारण ही मनुष्यको प्रतिकूलता सहनेमें कठिनाईका अनुभव होता है । जब वह प्रतिकूलताको सह नहीं सकता, तब वह अच्छाईका चोला पहन लेता है अर्थात् तब भलाईके वेशमें बुराई आती है । जो बुराई भलाईके वेशमें आती है, उसका त्याग करना बड़ा कठिन होता है । यहाँ अर्जुनमें भी हिंसा-त्यागरूप भलाईके वेशमें कर्तव्य-त्यागरूप बुराई आयी है । अतः वे कर्तव्य-कर्मसे ज्ञानको श्रेष्‍ठ मान रहे हैं । इसी कारण वे यहाँ प्रश्‍न करते हैं कि यदि आप कर्मसे ज्ञानको श्रेष्‍ठ मानते हैं, तो फिर मुझे युद्धरूप घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं ?

भगवान्‌ने दूसरे अध्यायके उनतालीसवें श्‍लोकमें बुद्धिर्योगे’ पदसे समबुद्धि (समता)-की ही बात कही थी; परन्तु अर्जुनने उसको ज्ञान समझ लिया । अतः वे भगवान्‌से कहते हैं कि हे जनार्दन ! आपने पहले कहा किमैंने सांख्यमें यह बुद्धि कह दी, इसीको तुम योगके विषयमें सुनो । इस बुद्धिसे युक्त हुआ तू कर्मबन्धनको छोड़ देगा ।’ परन्तु कर्मबन्धन तभी छूटेगा, जब ज्ञान होगा । आपने यह भी कह दिया किबुद्धियोग अर्थात् ज्ञानसे कर्म अत्यन्त निकृष्‍ट हैं’ (दूसरे अध्यायका उनचासवाँ श्‍लोक) । अगर आपकी मान्यतामें कर्मसे ज्ञान श्रेष्‍ठ है, उत्तम है, तो फिर मेरेको शास्‍त्रविहित यज्ञ, दान, तप आदि शुभ कर्मोंमें भी नहीं लगाना चाहिये, केवल ज्ञानमें ही लगाना चाहिये । परन्तु इसके विपरीत आप मेरेको युद्ध-जैसे अत्यन्त क्रूर कर्ममें, जिसमें दिनभर मनुष्योंकी हत्या करनी पड़े, क्यों लगा रहे हैं ?

पहले अर्जुनके मनमें युद्ध करनेका जोश आया हुआ था और उन्होंने उसी जोशमें भरकर भगवान्‌से कहा किहे अच्युत ! दोनों सेनाओंके बीचमें मेरे रथको खड़ा कर दीजिये, जिससे मैं यह देख लूँ कि यहाँ मेरे साथ दो हाथ करनेवाला कौन है ।परन्तु भगवान्‌ने जब दोनों सेनाओंके बीचमें भीष्म और द्रोणके सामने तथा राजाओंके सामने रथ खड़ा करके कहा कितू इन कुरुवंशियोंको देख’, तब अर्जुनका कौटुम्बिक मोह जाग्रत् हो गया । मोह जाग्रत् होनेसे उनकी वृत्ति युद्धसे, कर्मसे उपरत होकर ज्ञानकी तरफ हो गयी; क्योंकि ज्ञानमें युद्ध-जैसे घोर कर्म नहीं करने पड़ते । अतः अर्जुन कहते हैं कि आप मेरेको घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं ?

यहाँ बुद्धिः’ पदका अर्थज्ञानलिया गया है । अगर यहाँ बुद्धिः पदका अर्थसमबुद्धि’ (समता) लिया जाय तो व्यामिश्र वचन सिद्ध नहीं होगा । कारण कि दूसरे अध्यायके अड़तालीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने अर्जुनको योग (समता)-में स्थित होकर कर्म करनेकी आज्ञा दी है । व्यामिश्र वचन तभी सिद्ध होगा, जब अर्जुनकी मान्यतामें दो बातें हों और तभी यह प्रश्‍न बनेगा कि अगर आपकी मान्यतामें कर्मसे ज्ञान श्रेष्‍ठ है, तो फिर मेरेको घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं ? दूसरी बात, भगवान्‌ने आगे अर्जुनके प्रश्‍नके उत्तरमें दो निष्‍ठाएँ कही हैंज्ञानियोंकी निष्‍ठा ज्ञानयोगसे और योगियोंकी निष्‍ठा कर्मयोगसे । इससे भी अर्जुनके प्रश्‍नोंमें बुद्धिः पदका अर्थ ज्ञानलेना युक्तिसंगत बैठता है ।

कोई भी साधक श्रद्धापूर्वक पूछनेपर ही अपने प्रश्‍नका सही उत्तर प्राप्‍त कर सकता है । आक्षेपपूर्वक शंका करनेसे सही उत्तर प्राप्‍त कर पाना सम्भव नहीं । अर्जुनकी भगवान्‌पर पूर्ण श्रद्धा है; अतः भगवान्‌के कहनेपर अर्जुन अपने कल्याणके लिये युद्धजैसे घोर कर्ममें भी प्रवृत्त हो सकते हैंऐसा भाव उपर्युक्त प्रश्‍नसे प्रकट होता है ।

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मेइन पदोंमें अर्जुनका भाव है कि कभी तो आप कहते हैं कि कर्म करो कुरु कर्माणि (२ । ४८) और कभी आप कहते है कि ज्ञानका आश्रय लोबुद्धौ शरणमन्विच्छ’ (२ । ४९) । आपके इन मिले हुए वचनोंसे मेरी बुद्धि मोहित-सी हो रही है अर्थात् मैं यह स्पष्‍ट नहीं समझ पा रहा हूँ कि मेरेको कर्म करने चाहिये या ज्ञानकी शरण लेनी चाहिये ।

यहाँ दो बार इव पदके प्रयोगसे भगवान्‌पर अर्जुनकी श्रद्धाका द्योतन हो रहा है । श्रद्धाके कारण अर्जुन भगवान्‌के वचनोंको ठीक मान रहे हैं और यह भी समझ रहे हैं कि भगवान्‌ मेरी बुद्धिको मोहित नहीं कर रहे हैं । परन्तु भगवान्‌के वचनोंको ठीक-ठीक न समझनेके कारण अर्जुनको भगवान्‌के वचन मिले हुए-से लग रहे हैं और उनको ऐसा दीख रहा है कि भगवान् अपने वचनोंसे मेरी बुद्धिको मोहित-सी कर रहे हैं । अगर भगवान् अर्जुनकी बुद्धिको मोहित करते तो फिर अर्जुनके मोहको दूर करता ही कौन ?

तदेकं वद निश्‍चित्य येन श्रेयोऽहमाप्‍नुयाम्मेरा कल्याण कर्म करनेसे होगा या ज्ञानसे होगाइनमेंसे आप निश्‍चित करके मेरे लिये एक बात कहिये, जिससे मेरा कल्याण हो जाय । मैंने पहले भी कहा था कि जिससे मेरा निश्‍चित कल्याण हो वह बात मेरे लिये कहियेयच्छेयः स्यान्‍निश्‍चितं ब्रूहि तन्मे (२ । ७) और अब भी मैं वही बात कह रहा हूँ ।

परिशिष्‍ट भावजबतक संसारकी सत्ता मानते हैं, तभीतक कर्म घोर या सौम्य दीखता है । कारण कि संसारकी सत्ता माननेसे कर्मकी तरफ दृष्‍टि रहती है, अपने कर्तव्यकी तरफ नहीं । अपने कर्तव्यकी तरफ दृष्‍टि रहनेसे कर्म घोर या सौम्य नहीं दीखता ।

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