।। श्रीहरिः ।।



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श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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कर्तव्य-सम्बन्धी विशेष बात

हिन्दू-संस्कृतिका एकमात्र उद्‍देश्य मनुष्यका कल्याण करना है । इसी उद्‍देश्यसे ब्रह्माजी (सृष्‍टिके आदिमें) मनुष्यको निःस्वार्थभावसे अपने-अपने कर्तव्यके द्वारा एक-दूसरेको सुख पहुँचानेकी आज्ञा देते हैं (गीतातीसरे अध्यायका दसवाँ श्‍लोक)

परिवारमें भाई, बहनें, माताएँ आदि सब-के-सब कर्म करते ही हैं; परन्तु उनसे बड़ी भारी भूल यह होती है कि वे कामना, ममता, आसक्ति, स्वार्थ आदिके वशीभूत होकर कर्म करते हैं । अतः लौकिक एवं पारलौकिक दोनों ही लाभ उन्हें नहीं होते, प्रत्युत हानि ही होती है । स्वार्थके वशीभूत होकर अपने लिये कर्म करनेसे ही लोकमें लड़ाई, खटपट, ईर्ष्या आदि होते हैं और परलोकमें दुर्गति होती है । दूसरोंकी सेवा करके बदलेमें कुछ भी चाहनेसे वस्तुओं और व्यक्तियोंके साथ मनुष्यका सम्बन्ध जुड़ जाता है । किसी भी कर्मके साथ स्वार्थका सम्बन्ध जोड़ लेनेसे वह कर्म तुच्छ और बन्धनकारक हो जाता है । स्वार्थी मनुष्यको संसारमें कोई अच्छा नहीं कहता । चाहनेवालेको कोई अधिक देना नहीं चाहता । प्रायः ऐसा देखा जाता है कि घरमें भी रागी तथा भोगी व्यक्तिसे वस्तुएँ छिपायी जाती हैं । इसके विपरीत हमारे पास जितनी समझ, समय, सामर्थ्य और सामग्री है, उतनेसे ही हम दूसरोंकी सेवा करें तो उससे कल्याण तो होता ही है, इसके सिवाय वस्तु, आराम, मान-बड़ाई, आदर-सत्कार आदि न चाहनेपर भी प्राप्‍त होने लगते हैं । परन्तु कर्मयोगीमें मान-बड़ाई आदिकी इच्छा नहीं होती; क्योंकि इनकी इच्छा और सुखभोग ही बन्धनकारक होता है ।

मुझे सुख कैसे मिले ?’‒केवल इसी चाहनाके कारण मनुष्य कर्तव्यच्युत और पतित हो जाता है । अतःदूसरोंको सुख कैसे मिले ?’‒ऐसा भाव कर्मयोगीको सदा ही रखना चाहिये । घरमें माता-पिता, भाई-बहन, स्‍त्री-पुत्र आदि जितने व्यक्ति हैं, उन सभीको एक-दूसरेके हितकी बात सोचनी चाहिये । प्रायः सेवा करनेवालेसे एक भूल हो जाती है कि वह मैं सेवा करता हूँ’, ‘मैं वस्तुएँ देता हूँ’‒ऐसा मानकर झूठा अभिमान कर बैठता है । वस्तुतः सेवा करनेवाला व्यक्ति सेव्यकी वस्तु ही सेव्यको देता है । जैसे माँका दूध उसके अपने लिये न होकर बच्‍चेके लिये ही है, ऐसे ही मनुष्यके पास जितनी भी सामग्री है वह उसके अपने लिये न होकर दूसरोंके लिये ही है । अतः मनुष्यको प्राप्‍त सामग्रीमें ममता करने अर्थात् उसे अपनी और अपने लिये माननेका अधिकार नहीं है । ममता करनेपर भी प्राप्‍त सामग्री तो सदा रहेगी नहीं, केवल ममतारूप बन्धन रह जायगा । इसी कारण भगवान् कहते हैं कि वस्तुओंको अपनी मानकर स्वयं उनका भोग करनेवाला मनुष्य चोर ही है ।

देवता, ऋषि, पितर, पशु-पक्षी, वृक्ष-लता आदि सभीका स्वभाव ही परोपकार करनेका है । मनुष्य सदा इनसे सहयोग पानेके कारण इनका ऋणी है । इस ऋणसे मुक्त होनेके लिये ही पंचमहायज्ञ (ऋषियज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, पितृयज्ञ और मनुष्ययज्ञ)-का विधान है । मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो बुद्धिपूर्वक सभीको अपने कर्तव्य-कर्मोंसे तृप्‍त कर सकता है । अतः सबसे ज्यादा जिम्मेवारी मनुष्यपर ही है । इसीको ऐसी स्वतन्त्रता मिली है, जिसका सदुपयोग करके यह परम श्रेयकी प्राप्‍ति कर सकता है ।

देवता आदि तो अपने कर्तव्यका पालन करते ही हैं । यदि मनुष्य अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता तो देवताओंमें ही नहीं प्रत्युत त्रिलोकीभरमें हलचल उत्पन्‍न हो जाती है और परिणामस्वरूप अतिवृष्‍टि, अनावृष्‍टि, भूकम्प, दुर्भिक्ष आदि प्राकृतिक प्रकोप होने लगते हैं । भगवान् भी (गीतातीसरे अध्यायके तेईसवें-चौबीसवें श्‍लोकोंमें) कहते हैं कियदि मैं सावधानीपूर्वक कर्तव्यका पालन न करूँ तो समस्त लोक नष्‍ट-भ्रष्‍ट हो जायँ ।जिस तरह गतिशील बैलगाड़ीका कोई एक पहिया भी खण्डित हो जाय तो उससे पूरी बैलगाड़ीको झटका लगता है, इसी तरह गतिशील सृष्‍टि-चक्रमें यदि एक व्यक्ति भी कर्तव्यच्युत होता है तो उसका विपरीत प्रभाव सम्पूर्ण सृष्‍टिपर पड़ता है । इसके विपरीत जैसे शरीरका एक भी पीड़ित (रोगी) अंग ठीक होनेपर सम्पूर्ण शरीरका स्वतः हित होता है, ऐसे ही अपने कर्तव्यका ठीक-ठीक पालन करनेवाले मनुष्यके द्वारा सम्पूर्ण सृष्‍टिका स्वतः हित होता है ।

प्रजापति ब्रह्माजीने देवता और मनुष्यदोनोंको अपने-अपने कर्तव्यका पालन करनेकी आज्ञा दी है । देवता आदि सब मर्यादासे चलते हैं । केवल मनुष्य ही अपनी बेसमझीसे मर्यादाको भंग करता है । कारण कि उसे दूसरोंकी सेवा करनेके लिये जो सामग्री मिली है, उसपर वह अपना अधिकार समझ बैठता है । अनन्त जन्मोंके कर्म-बन्धनसे छुटकारा पानेके लिये मनुष्यको स्वतन्त्रता मिली है; किन्तु वह उसका दुरुपयोग करके कर्म और कर्मफलमें ममता-आसक्ति कर बैठता है । फलस्वरूप नया बन्धन उत्पन्‍न करके वह स्वयं फँस जाता है और आगे अनेक जन्मोंतक दुःख पानेकी तैयारी कर लेता है । अतः मनुष्यको चाहिये कि उसे जो कुछ सामग्री मिली है, उससे वह त्रिलोकीकी सेवा करे अर्थात् उस सामग्रीको वह भगवान्, देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य आदि समस्त प्राणियोंकी सेवामें लगा दे ।

शंकाजो कुछ सामग्री प्राप्‍त हुई है, वह सब-की-सब दूसरोंकी सेवामें लगा देनेपर कर्मयोगीका जीवन-निर्वाह कैसे हो सकेगा ?

समाधानवास्तवमें यह शंका शरीरके साथ अपनी एकता माननेसे अर्थात् शरीरको ही अपना स्वरूप माननेसे पैदा होती है; परन्तु कर्मयोगी शरीरसे अपना कोई सम्बन्ध मानता ही नहीं, प्रत्युत उसे संसारका और संसारके लिये ही मानकर उसीकी सेवामें लगा देता है । उसकी दृष्‍टि अविनाशी स्वरूपपर रहती है, नाशवान् शरीरपर नहीं । जिसकी दृष्‍टि शरीरपर रहती है, वही ऐसी शंका कर सकता है कि कर्मयोगीका जीवन-निर्वाह कैसे होगा ?

जबतक भोगेच्छा रहती है, तभीतक जीनेकी इच्छा तथा मरनेका भय रहता है । भोगेच्छा कर्मयोगीमें रहती ही नहीं; क्योंकि उसके सम्पूर्ण कर्म अपने लिये न होकर दूसरोंकी सेवाके लिये ही होते हैं । अतः कर्मयोगी अपने जीनेकी परवाह नहीं करता । उसके मनमें यह प्रश्‍न ही नहीं उठता कि मेरा जीवन-निर्वाह कैसे होगा ? वास्तवमें जिसके हृदयमें जगत्‌की आवश्यकता नहीं रहती, उसकी आवश्यकता जगत्‌को रहती है । इसलिये जगत् उसके निर्वाहका स्वतः प्रबन्ध करता है ।

जिनका जीवन परोपकारके लिये ही समर्पित है, ऐसे पशु-पक्षी, कीट-पतंग, वृक्ष-लता आदि सभी साधारण प्राणियोंके भी जीवन-निर्वाहका जब प्रबन्ध है, तब शरीरसहित मिली हुई सब सामग्रीको प्राणियोंके हितमें व्यय करनेवाले मनुष्यके जीवन-निर्वाहका प्रबन्ध न हो, यह कैसे सम्भव है ?

सबका पालन करनेवाले भगवान्‌की असीम कृपासे जीवन-निर्वाहकी सामग्री समस्त प्राणियोंको समानरूपसे मिली हुई है । इसका प्रत्यक्ष उदाहरण सबके सामने है । माताके शरीरमें जहाँ रक्त-ही-रक्त रहता है, वहाँ भी बच्‍चेके जीवन-निर्वाहके लिये मीठा और पुष्‍टिकर दूध स्वतः पैदा हो जाता है । अतः चाहे प्रारब्धसे मानो, चाहे भगवत्कृपासे, मनुष्यके जीवन-निर्वाहकी सामग्री उसको मिलती ही है । इसमें संदेह, चिन्ता, शोक एवं विचार होना ही नहीं चाहिये । भगवान्‌के राज्यमें जब पापी-से-पापी एवं नास्तिक-से-नास्तिक पुरुषका भी जीवन-निर्वाह होता है, तब कर्मयोगीके जीवन-निर्वाहमें क्या बाधा आ सकती है ? अतः यह प्रश्‍न उठाना ही भूल है ।

परिशिष्‍ट भावयज्ञभाविताः पदका अर्थ हैयज्ञसे पुष्‍ट हुए, पूजित हुए, संवर्धित हुए । मध्यलोकमें होनेके कारण मनुष्य ऊपरके और नीचेके सभी लोकोंमें रहनेवाले प्राणियोंको पुष्‍ट कर सकता है । सबका हित करनेके लिये ही मनुष्यको मध्यलोकमें बसाया गया है । इसीलिये मनुष्य कल्याणका अधिकारी है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒शरीर पाञ्चभौतिक सृष्टिमात्रका एक क्षुद्रतम अंश है । अतः स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण‒तीनों शरीर संसारके तथा संसारके लिये ही हैं । शरीर स्वयं (स्वरूप)-के किंचिन्मात्र भी काम नहीं आता, प्रत्युत शरीरका सदुपयोग ही स्वयंके काम आता है । शरीरका सदुपयोग है‒उसे दूसरोंकी सेवामें लगाना‒संसारकी सेवामें समर्पित कर देना । जो मनुष्य मिली हुई सामग्रीका भाग दूसरों (अभावग्रस्तों)-को दिये बिना अकेले ही उसका उपभोग करता है, वह चोर ही है । उसे वही दण्ड मिलना चाहिये, जो चोरको मिलता है ।

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