Listen सूक्ष्म विषय‒केवल अपने स्वार्थके लिये कर्म
करनेवालेकी निन्दा । इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः । तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव
सः ॥ १२ ॥ अर्थ‒यज्ञसे पुष्ट हुए देवता भी तुमलोगोंको
(बिना माँगे ही) कर्तव्यपालनकी आवश्यक सामग्री देते रहेंगे । इस प्रकार उन देवताओंकी
दी हुई सामग्रीको दूसरोंकी सेवामें लगाये बिना जो मनुष्य (स्वयं ही उसका) उपभोग करता
है,
वह चोर ही है ।
व्याख्या‒‘इष्टान्भोगान्हि वो देवा
दास्यन्ते यज्ञभाविताः’‒यहाँ भी ‘इष्टभोग’ शब्दका अर्थ इच्छित पदार्थ नहीं हो
सकता । कारण कि पीछेके (ग्यारहवें) श्लोकमें परम कल्याणको प्राप्त होनेकी बात आयी है और
उसके हेतुके लिये यह (बारहवाँ) श्लोक है । भोगोंकी इच्छा
रहते परम कल्याण कभी हो ही नहीं सकता । अतः यहाँ ‘इष्ट’ शब्द ‘यज्’ धातुसे निष्पन्न होनेसे तथा ‘भोग’१ शब्दका अर्थ आवश्यक सामग्री होनेसे उपर्युक्त पदोंका अर्थ होगा‒वे देवता तुमलोगोंको यज्ञ (कर्तव्य-कर्म) करनेकी आवश्यक सामग्री देते रहेंगे
। १ .‘भुज् पालनाभ्यवहारयोः’ (सिद्धान्तकौमुदी १५४८)‒‘भुज्’ धातुके दो अर्थ होते हैं‒पालन और भक्षण । यहाँ ‘पालन’ अर्थ लेना ही उचित प्रतीत होता है । यहाँ ‘यज्ञभाविताः देवाः’ पदोंका तात्पर्य है कि देवता तो अपना
अधिकार समझकर मनुष्योंको आवश्यक सामग्री प्रदान करते ही हैं, केवल मनुष्योंको ही अपना कर्तव्य निभाना
है । ‘तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते’‒ब्रह्माजीने देवताओंके लिये ‘ते देवाः’ पदोंका प्रयोग किया है; क्योंकि उनके सामने मनुष्य थे, देवता नहीं । परन्तु यहाँ ‘एभ्यः’ पद (जो ‘इदम्’ शब्दसे बनता है)-का प्रयोग हुआ है, जो समीपताका द्योतक
है । भगवान्के लिये सभी समीप ही हैं (गीता‒सातवें अध्यायका छब्बीसवाँ श्लोक) । इससे सिद्ध होता है कि अब यहाँसे
भगवान्के वचन आरम्भ होते हैं । यहाँ ‘भुङ्क्ते’२ पदका तात्पर्य केवल भोजन करनेसे ही नहीं है, प्रत्युत शरीर-निर्वाहकी समस्त आवश्यक सामग्री (भोजन, वस्त्र, धन, मकान आदि)-को अपने सुखके लिये काममें लानेसे
है । २.यहाँ अनवनार्थक ‘भुज्’ धातुसे ‘भुङ्क्ते’ पद निष्पन्न है । अनवनका अर्थ है‒भक्षण अर्थात् वस्तुको अपने काममें
लेना । यह शरीर माता-पितासे मिला है और इसका पालन-पोषण भी उन्हींके द्वारा हुआ है । विद्या
गुरुजनोंसे मिली है । देवता सबको कर्तव्य-कर्मकी सामग्री देते हैं । ऋषि सबको
ज्ञान देते हैं । पितर मनुष्यकी सुख-सुविधाके उपाय बताते हैं । पशु-पक्षी, वृक्ष, लता आदि दूसरोंके सुखमें स्वयंको समर्पित
कर देते हैं (यद्यपि
पशु-पक्षी आदिको यह ज्ञान नहीं रहता कि
हम परोपकार कर रहे हैं, तथापि उनसे दूसरोंका उपकार स्वतः होता रहता है) इस प्रकार हमारे पास जो कुछ भी सामग्री‒बल, योग्यता, पद, अधिकार, धन, सम्पत्ति आदि है, वह सब-की-सब हमें दूसरोंसे ही मिली है । इसलिये
इनको दूसरोंकी ही सेवामें लगाना है । शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि सभी पदार्थ हमें
संसारसे मिले हैं । ये कभी अपने नहीं हैं और अपने होंगे भी नहीं । अतः इनको अपना और
अपने लिये मानकर इनसे सुख भोगना ही बन्धन है । इस बन्धनसे छूटनेका यही सरल उपाय है
कि जिनसे ये पदार्थ हमें मिले हैं, इन्हें उन्हींका मानते हुए
उन्हींकी सेवामें निष्कामभावपूर्वक लगा दें । यही हमारा परम कर्तव्य है । साधकोंके मनमें प्रायः ऐसी भावना पैदा
हो जाती है कि अगर हम संसारकी सेवा करेंगे तो उसमें हमारी आसक्ति हो जायगी और हम संसारमें
फँस जायँगे ! परन्तु
भगवान्के वचनोंसे यह सिद्ध होता है कि फँसनेका कारण सेवा
नहीं है, प्रत्युत अपने लिये कुछ भी लेनेका भाव
ही है । इसलिये लेनेका भाव छोड़कर देवताओंकी तरह दूसरोंको सुख पहुँचाना ही मनुष्यमात्रका
परम कर्तव्य है । कर्मयोगके सिद्धान्तमें प्राप्त सामग्री, सामर्थ्य, समय तथा समझदारीका सदुपयोग करनेका ही
विधान है । प्राप्त सामग्री आदिसे अधिककी (नयी-नयी सामग्री आदिकी) कामना करना कर्मयोगके सिद्धान्तसे विरुद्ध
है । अतः प्राप्त सामग्री आदिको ही दूसरोंके हितमें लगाना
है । अधिककी किंचिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है । युक्तिसंगत बात है कि जिसमें
जितनी शक्ति होती है, उससे उतनी ही आशा की जाती है, फिर भगवान् अथवा देवता उससे अधिककी
आशा कैसे कर सकते हैं ? ‘स्तेन एव सः’‒यहाँ ‘सः स्तेनः’ पदोंमें एकवचन देनेका तात्पर्य यह है
कि अपने कर्तव्यका पालन न करनेवाला मनुष्य सबको प्राप्त होनेवाली सामग्री (अन्न, जल, वस्त्र आदि)-का भाग दूसरोंको दिये बिना ही अकेला
स्वयं ले लेता है । अतः वह चोर ही है । जो मनुष्य दूसरोंको उनका भाग न देकर
स्वयं अकेले ही भोग करता है, वह तो चोर है ही, पर जो मनुष्य किसी भी अंशमें अपना स्वार्थ
सिद्ध करना चाहता है अर्थात् सामग्रीको सेवामें लगाकर बदलेमें मान-बड़ाई आदि चाहता है, वह भी उतने अंशमें चोर ही है । ऐसे
मनुष्यका अन्तःकरण कभी शुद्ध और शान्त नहीं रह सकता । यह व्यष्टि शरीर किसी भी प्रकारसे
समष्टि संसारसे अलग नहीं है और अलग हो सकता भी नहीं; क्योंकि समष्टिका अंश ही व्यष्टि
कहलाता है । इसलिये व्यष्टि (शरीर)-को अपना मानना और समष्टि (संसार)-को अपना न मानना ही राग-द्वेष आदि द्वन्द्वोंका कारण है एवं
यही अहंकार, व्यक्तित्व
अथवा विषमता है३ । कर्मयोगके अनुष्ठानसे ये सब (राग-द्वेष आदि) सुगमतापूर्वक मिट जाते हैं । कारण कि
कर्मयोगीका यह भाव रहता है कि मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ, वह सब अपने लिये नहीं, प्रत्युत संसारमात्रके लिये कर रहा
हूँ । इसमें भी एक बड़ी मार्मिक बात यह है कि कर्मयोगी अपने कल्याणके लिये भी कोई कर्म
न करके संसारमात्रके कल्याणके उद्देश्यसे ही सब कर्म करता है । कारण कि सबके कल्याणसे अपना कल्याण अलग मानना भी व्यक्तित्व और विषमताको
जन्म देना है, जो साधककी उन्नतिमें बाधक है । शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि जो कुछ भी हमारे पास है, वह सब-का-सब हमें संसारसे मिला है । संसारसे मिली वस्तुको केवल अपनी स्वार्थसिद्धिमें लगाना ईमानदारी
नहीं है । ३.आत्मापि चायं न मम सर्वा
वा पृथिवी मम ॥ (महा॰ आश्वमेधिक॰ ३२ । ११)
‘यह शरीर भी मेरा नहीं है अथवा यह सारी
पृथ्वी ही मेरी है ।’ രരരരരരരരരര |