Listen ‘ते देवा भावयन्तु वः’‒जैसे वृक्ष, लता आदिमें स्वाभाविक ही फूल-फल लगते हैं; परन्तु यदि उन्हें खाद और पानी दिया
जाय तो उनमें फूल-फल विशेषतासे लगते हैं । ऐसे ही यजन-पूजनसे देवताओंकी पुष्टि होती है, जिससे देवताओंके काम विशेष न्यायप्रद
होते हैं । परन्तु जब मनुष्य अपने कर्तव्य-कर्मोंके द्वारा देवताओंका यजन-पूजन नहीं करते, तब देवताओंको पुष्टि नहीं मिलती, जिससे उनमें अपने कर्तव्यका पालन करनेमें
कमी आ जाती है । उनके कर्तव्य-पालनमें कमी आनेसे ही संसारमें
विप्लव अर्थात् अनावृष्टि-अतिवृष्टि आदि होते हैं
। ‘परस्परं भावयन्तः’‒इन पदोंका अर्थ यह नहीं समझना चाहिये
कि दूसरा हमारी सेवा करे तो हम उसकी सेवा करें, प्रत्युत यह समझना चाहिये कि दूसरा हमारी सेवा करे या न करे, हमें तो अपने कर्तव्यके
द्वारा उसकी सेवा करनी ही है । दूसरा क्या करता है, क्या नहीं करता; हमें सुख देता या दुःख, इन बातोंसे हमें कोई मतलब
नहीं रखना चाहिये; क्योंकि दूसरोंके कर्तव्यको देखनेवाला
अपने कर्तव्यसे च्युत हो जाता है । परिणामस्वरूप उसका पतन हो जाता है । दूसरोंसे कर्तव्यका पालन करवाना अपने
अधिकारकी बात भी नहीं है । हमें सबका हित करनेके लिये केवल अपने कर्तव्यका पालन करना
है और उसके द्वारा सबको सुख पहुँचाना है । सेवा करनेमें अपनी
समझ, सामर्थ्य, समय और सामग्रीको अपने लिये
थोड़ी-सी भी बचाकर नहीं रखनी है । तभी जडतासे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होगा । हमारे जितने भी सांसारिक सम्बन्धी‒माता-पिता, स्त्री-पुत्र, भाई-भौजाई आदि हैं, उन सबकी हमें सेवा करनी
है । अपना सुख लेनेके लिये ये सम्बन्ध नहीं हैं । हमारा जिनसे जैसा सम्बन्ध है, उसीके
अनुसार उनकी सेवा करना, मर्यादाके अनुसार उन्हें सुख पहुँचाना हमारा कर्तव्य है
। उनसे कोई आशा रखना और उनपर अपना अधिकार मानना बहुत बड़ी भूल है । हम उनके ऋणी हैं
और ऋण उतारनेके लिये उनके यहाँ हमारा जन्म हुआ है । अतः निःस्वार्थभावसे उन सम्बन्धियोंकी
सेवा करके हम अपना ऋण चुका दें‒यह हमारा सर्वप्रथम आवश्यक कर्तव्य है । सेवा तो हमें सभीकी करनी है; परन्तु जिनकी हमारेपर जिम्मेवारी
है, उन सम्बन्धियोंकी सेवा सबसे पहले करनी चाहिये । शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदि अपने नहीं हैं
और अपने लिये भी नहीं हैं‒यह सिद्धान्त है । अतः अपने-अपने कर्तव्यका पालन करनेसे स्वतः एक-दूसरेकी उन्नति होती है । कर्तव्य और अधिकार-सम्बन्धी मार्मिक बात कर्मयोग तभी होता है, जब मनुष्य अपने कर्तव्यके पालनपूर्वक
दूसरेके अधिकारकी रक्षा करता है । जैसे, माता-पिताकी सेवा करना पुत्रका कर्तव्य है और माता-पिताका अधिकार है । जो दूसरेका अधिकार होता है, वही हमारा कर्तव्य होता
है । अतः
प्रत्येक मनुष्यको अपने कर्तव्य-पालनके द्वारा दूसरेके अधिकारकी रक्षा करनी है तथा दूसरेका
कर्तव्य नहीं देखना है । दूसरेका कर्तव्य देखनेसे मनुष्य स्वयं कर्तव्यच्युत हो जाता
है;
क्योंकि दूसरेका कर्तव्य देखना हमारा
कर्तव्य नहीं है । तात्पर्य है कि दूसरेका हित करना है‒यह हमारा कर्तव्य है और दूसरेका अधिकार
है । यद्यपि अधिकार कर्तव्यके ही अधीन है, तथापि मनुष्यको अपना अधिकार देखना ही
नहीं है, प्रत्युत
अपने अधिकारका त्याग करना है । केवल दूसरेके अधिकारकी रक्षाके लिये अपने कर्तव्यका
पालन करना है । दूसरेका कर्तव्य देखना तथा अपना अधिकार जमाना
लोक और परलोकमें महान् पतन करनेवाला है । वर्तमान समयमें घरोंमें, समाजमें जो अशान्ति, कलह, संघर्ष देखनेमें आ रहा है, उसमें मूल कारण यही है कि
लोग अपने अधिकारकी माँग तो करते हैं, पर अपने कर्तव्यका पालन
नहीं करते ! इसलिये ब्रह्माजी देवताओं और मनुष्योंको उपदेश देते हैं
कि एक-दूसरेका
हित करना तुमलोगोंका कर्तव्य है । ‘श्रेयः परमवाप्स्यथ’‒प्रायः ऐसी धारणा बनी हुई है कि यहाँ
परम कल्याणकी प्राप्तिका कथन अतिशयोक्ति है, पर वास्तवमें ऐसा नहीं है । अगर इसमें
किसीको सन्देह हो तो वह ऐसा करके खुद देख सकता है । जैसे धरोहर रखनेवालेकी धरोहर उसे
वापस कर देनेसे धरोहर रखनेवालेसे तथा उस धरोहरसे हमारा किसी प्रकारका सम्बन्ध नहीं
रहता, ऐसे
ही संसारकी वस्तु संसारकी सेवामें लगा देनेसे संसार और संसारकी वस्तुसे हमारा कोई सम्बन्ध
नहीं रहता । संसारसे माने हुए सम्बन्धका विच्छेद होते ही चिन्मयताका अनुभव हो जाता
है । अतः प्रजापति ब्रह्माजीके वचनोंमें अतिशयोक्तिकी कल्पना करना अनुचित है । यह सिद्धान्त है कि जबतक
मनुष्य अपने लिये कर्म करता है, तबतक उसके कर्मकी समाप्ति
नहीं होती और वह कर्मोंसे बँधता ही जाता है । कृतकृत्य वही होता है, जो अपने लिये कभी कुछ नहीं करता । अपने
लिये कुछ भी नहीं करनेसे पापका आचरण भी नहीं होता; क्योंकि पापका आचरण कामनाके कारण ही
होता है (तीसरे
अध्यायका सैंतीसवाँ श्लोक) । अतः अपना कल्याण चाहनेवाले
साधकको चाहिये कि वह शास्त्रोंकी आज्ञाके अनुसार फलकी इच्छा और आसक्तिका त्याग करके
कर्तव्य-कर्म करनेमें तत्पर हो जाय, फिर कल्याण तो स्वतःसिद्ध
है । अपनी कामनाका त्याग करनेसे संसारमात्रका
हित होता है । जो अपनी कामना-पूर्तिके लिये आसक्तिपूर्वक भोग भोगता है, वह स्वयं तो अपनी हिंसा (पतन) करता ही है, साथ ही जिनके पास भोग-सामग्रीका अभाव है, उनकी भी हिंसा करता है अर्थात् दुःख
देता है । कारण कि भोग-सामग्रीवाले मनुष्यको देखकर अभावग्रस्त मनुष्यको उस भोग-सामग्रीके अभावका दुःख होना स्वाभाविक
है । इस प्रकार स्वयं सुख भोगनेवाला व्यक्ति हिंसासे कभी
बच नहीं सकता । ठीक इसके विपरीत पारमार्थिक मार्गपर चलनेवाले व्यक्तिको देखकर
दूसरोंको स्वतः शान्ति मिलती है; क्योंकि पारमार्थिक सम्पत्तिपर सबका समान अधिकार है ।
निष्कर्ष यह निकला कि मनुष्य कामना-आसक्तिका त्याग करके अपने कर्तव्य-कर्मका पालन करता रहे तो ब्रह्माजीके
कथनानुसार वह परम कल्याणको अवश्य ही प्राप्त हो जायगा । इसमें कोई सन्देह नहीं है
। यहाँ परम कल्याणकी प्राप्ति मुख्यतासे
मनुष्योंके लिये ही बतायी गयी है, देवताओंके लिये नहीं । कारण कि देवयोनि अपना कल्याण करनेके
लिये नहीं बनायी गयी है । मनुष्य जो कर्म करता है उन कर्मोंके अनुसार फल देने, कर्म करनेकी सामग्री देने तथा अपने-अपने शुभ कर्मोंका फल भोगनेके लिये
देवता बनाये गये हैं । वे निष्कामभावसे कर्म करनेकी सामग्री देते हों, ऐसी बात नहीं है । परन्तु उन देवताओंमें
भी अगर किसीमें अपने कल्याणकी इच्छा हो जाय, तो उसका कल्याण होनेमें मना नहीं है
अर्थात् अगर कोई अपना कल्याण करना चाहे, तो कर सकता है । जब पापी-से-पापी मनुष्यके लिये भी अपना उद्धार
करनेकी मनाही नहीं है तो फिर देवताओंके लिये (जो कि पुण्ययोनि है) अपना उद्धार करनेकी मनाही कैसे हो सकती
है ?
ऐसा होनेपर भी देवताओंका उद्देश्य
भोग भोगनेका ही रहता है, इसलिये उनमें प्रायः अपने कल्याणकी इच्छा नहीं होती । परिशिष्ट भाव‒मनुष्य कर्मयोनि है और चौरासी लाख योनियाँ, देवता, नारकीय जीव आदि भोगयोनियाँ हैं । सकामभाववाले
मनुष्य भोगोंको भोगनेके लिये ही स्वर्गमें जाते हैं । अतः देवतालोग निष्कामभाव न रखकर
अपनी जिम्मेवारीका पालन करते हैं, ड्यूटी बजाते हैं । इसलिये यहाँ कल्याणकी बात मनुष्योंके
लिये ही समझनी चाहिये । मुक्ति स्वाभाविक है और
बन्धन अस्वाभाविक है । मनुष्ययोनि अपना कल्याण करनेके लिये ही है । इसलिये जो मनुष्य अपने कर्तव्यका पालन
करता है, उसका
कल्याण स्वाभाविक होता है‒‘परस्परं भावयन्तः श्रेयः
परमवाप्स्यथ’ । कल्याणके
लिये नया काम करनेकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत जो काम करते हैं, उसीको स्वार्थ, अभिमान और फलेच्छाका त्याग
करके दूसरोंके हितके लिये करें तो कल्याण हो जायगा । निष्कामभावके बिना भी केवल अपने कर्तव्यका
पालन करनेसे स्वर्गादि पुण्यलोकोंकी प्राप्ति हो जाती है । जिस स्वर्गकी प्राप्ति
बड़े-बड़े यज्ञ करनेसे होती है, उसीकी प्राप्ति क्षत्रिय केवल अपना
कर्तव्यकर्म‒युद्ध
करके प्राप्त कर सकता है । जैसे ब्रह्माजीने देवताओं और मनुष्योंके
लिये परस्पर एक-दूसरेका
हित करनेकी बात कही है, ऐसे ही चारों वर्णोंके लिये भी परस्पर एक-दूसरेका हित करनेकी बात समझनी चाहिये
। चारों वर्ण परस्पर एक-दूसरेके हितके लिये अपना-अपना कर्तव्यकर्म करें तो वे परम कल्याणको
प्राप्त हो जायँगे । सम्पूर्ण सृष्टिकी रचना ही इस ढंगसे
हुई है कि अपने लिये कुछ (वस्तु और क्रिया) नहीं है, दूसरेके लिये ही है‒‘इदं ब्रह्मणे न मम’ । जैसे पतिव्रता स्त्री पतिके लिये
ही होती है, अपने
लिये नहीं । स्त्रीके अंग पुरुषको सुख देते हैं, पर स्त्रीको सुख नहीं देते । पुरुषके
अंग स्त्रीको सुख देते हैं, पर पुरुषको सुख नहीं देते । माँका दूध बच्चेके लिये ही
होता है अपने लिये नहीं और बच्चेकी चेष्टाएँ माँको सुख देती हैं, बच्चेको नहीं । माता-पिता सन्तानके लिये होते हैं और सन्तान
माता-पिताके
लिये होती है । श्रोता वक्ताके लिये होता है और वक्ता श्रोताके लिये होता है । तात्पर्य
है कि खुद सुख न ले, प्रत्युत दूसरेको सुख दे । सृष्टिकी
रचना भोगके लिये नहीं है, प्रत्युत उद्धारके लिये
है । देवता भी स्वार्थका त्याग करके दूसरेका
हित कर सकते हैं । इसलिये देवताओंमें भी नारद‒जैसे ऋषि हुए हैं । यद्यपि भगवान्की
ओरसे किसीको मना नहीं है, तथापि कल्याणका मुख्य एवं स्वतः अधिकारी मनुष्य ही है
। एक शंका हो सकती है कि हम तो दूसरेका
भला करें, पर
दूसरा हमारा भला न करके बुरा करे तो ‘परस्परं भावयन्तः’ कैसे होगा ? इसका समाधान है कि हम दूसरेका भला करेंगे
तो दूसरा हमारा बुरा कर सकेगा ही नहीं । उसमें हमारा बुरा करनेकी सामर्थ्य ही नहीं
रहेगी । अगर वह बुरा करेगा भी तो पीछे पछतायेगा, रोयेगा । अगर वह हमारा बुरा करेगा तो
हमारा भला करनेवाले, हमारे साथ सहानुभूति रखनेवाले कई पैदा हो जायँगे । वास्तवमें
किसीका बुरा करनेका विधान कहीं नहीं आता । मनुष्य ही द्वेषके कारण दूसरेका बुरा करता
है । ‘परस्परं भावयन्तः’‒यह मनुष्यताकी बात है । इसके न होनेसे
ही मनुष्य दुःख पा रहे हैं । गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒अपने कर्तव्यका पालन करनेसे अर्थात्
दूसरोंके लिये निष्कामभावसे कर्म करनेसे अपना तथा प्राणिमात्रका हित होता है । परन्तु
अपने कर्तव्यका पालन न करनेसे अपना तथा प्राणिमात्रका अहित होता है । कारण कि शरीरोंकी
दृष्टिसे तथा आत्माकी दृष्टिसे भी मात्र प्राणी एक हैं, अलग-अलग नहीं ।
मनुष्यशरीर केवल कल्याण-प्राप्तिके
लिये ही मिला है । अतः अपना कल्याण करनेके लिये कोई नया काम करना आवश्यक नहीं है, प्रत्युत जो काम करते हैं, उसे ही फलेच्छा और आसक्तिका
त्याग करके दूसरोंके हितके लिये करनेसे हमारा कल्याण हो जायगा । രരരരരരരരരര |