।। श्रीहरिः ।।



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अधिक श्रावण शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०८०, रविवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धपूर्व श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि यज्ञ (कर्तव्य-कर्म)-के अतिरिक्त कर्म बन्धनकारक होते है । अतः इस बन्धनसे मुक्त होनेके लिये कर्मोंका स्वरूपसे त्याग न करके कर्तव्यबुद्धिसे कर्म करना आवश्यक है । अब कर्मोंकी अवश्यकर्तव्यताको पुष्‍ट करनेके लिये और भी हेतु बताते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒प्रजापति ब्रह्माजीकी आज्ञाके अनुसार यज्ञार्थ-कर्मकी आवश्यकताका कथन ।

        सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा  पुरोवाच प्रजापतिः ।

       अनेन  प्रसविष्यध्वमेष  वोऽस्त्विष्‍टकामधुक् ॥ १० ॥

        देवान्  भावयतानेन  ते  देवा  भावयन्तु  वः ।

       परस्परं   भावयन्तः    श्रेयः   परमवाप्स्यथ ॥ ११ ॥

अर्थ‒प्रजापति ब्रह्माजीने सृष्टिके आदिकालमें कर्तव्य-कर्मोंके विधानसहित प्रजा (मनुष्य आदि)-की रचना करके (उनसे प्रधानतया मनुष्योंसे) कहा कि तुमलोग इस कर्तव्यके द्वारा सबकी वृद्धि करो और यह (कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञ) तुमलोगोंको कर्तव्य-पालनकी आवश्यक सामग्री प्रदान करनेवाला हो । इस (अपने कर्तव्य-कर्म)-के द्वारा तुमलोग देवताओंको उन्‍नत करो और वे देवतालोग (अपने कर्तव्यके द्वारा) तुमलोगोंको उन्‍नत करें । इस प्रकार एक-दूसरेको उन्‍नत करते हुए तुमलोग परम कल्याणको प्राप्‍त हो जाओगे ।

प्रजापतिः = प्रजापति ब्रह्माजीने

अनेन = इस (अपने कर्तव्यकर्मके द्वारा (तुमलोग)

पुरा = सृष्‍टिके आदिकालमें

देवान् = देवताओंको

सहयज्ञाः = कर्तव्यकर्मोंके विधानसहित

भावयत = उन्‍नत करो (और)

प्रजाः = प्रजा (मनुष्य आदि)-की

ते = वे

सृष्ट्वा = रचना करके (उनसे प्रधानतया मनुष्योंसे)

देवाः = देवतालोग (अपने कर्तव्यके द्वारा)

उवाच = कहा कि (तुमलोग)

वः = तुमलोगोंको

अनेन = इस कर्तव्यके द्वारा

भावयन्तु = उन्‍नत करें । (इस प्रकार)

प्रसविष्यध्वम् = सबकी वृद्धि करो (और)

परस्परम् = एक-दूसरेको

एषः = यह (कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञ)

भावयन्तः = उन्‍नत करते हुए (तुमलोग)

वः = तुमलोगोंको

परम् = परम

इष्‍टकामधुक् = कर्तव्य-पालनकी आवश्यक सामग्री प्रदान करनेवाला

श्रेयः = कल्याणको

अस्तु = हो ।

अवाप्स्यथ = प्राप्‍त हो जाओगे ।

व्याख्यासहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिःब्रह्माजी प्रजा (सृष्‍टि)-के रचयिता एवं उसके स्वामी हैं; अतः अपने कर्तव्यका पालन करनेके साथ वे प्रजाकी रक्षा तथा उसके कल्याणका विचार करते रहते हैं । कारण कि जो जिसे उत्पन्‍न करता है, उसकी रक्षा करना उसका कर्तव्य हो जाता है । ब्रह्माजी प्रजाकी रचना करते, उसकी रक्षामें तत्पर रहते तथा सदा उसके हितकी बात सोचते हैं । इसीलिये वे प्रजापतिकहलाते हैं ।

सृष्‍टि अर्थात् सर्गके आरम्भमें ब्रह्माजीने कर्तव्यकर्मोंकी योग्यता और विवेकसहित मनुष्योंकी रचना की हैअनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितिका सदुपयोग कल्याण करनेवाला है । इसलिये ब्रह्माजीने अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिका सदुपयोग करनेका विवेक साथ देकर ही मनुष्योंकी रचना की है ।

१.यहाँ यह समझ लेना चाहिये कि भगवान्‌की आज्ञासे और उन्हींकी शक्तिसे ब्रह्माजी प्रजाकी रचना करते हैं । अतः वास्तवमें सृष्‍टिके मूल रचयिता भगवान् ही हैं (गीता ४ । १३; १७ । २३)

सत्-असत्‌का विचार करनेमें असमर्थ पशु, पक्षी, वृक्ष आदिके द्वारा स्वाभाविक परोपकार (कर्तव्यपालन) होता है; किन्तु मनुष्यको तो भगवत्कृपासे विशेष विवेक-शक्ति मिली हुई है । अतः यदि वह अपने विवेकको महत्त्व देकर अकर्तव्य न करे तो उसके द्वारा भी स्वाभाविक लोक-हितार्थ कर्म हो सकते हैं ।

देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य तथा अन्य पशु, पक्षी, वृक्ष आदि सभी प्राणीप्रजाहैं । इनमें भी योग्यता, अधिकार और साधनकी विशेषताके कारण मनुष्यपर अन्य सब प्राणियोंके पालनकी जिम्मेवारी है । अतः यहाँ प्रजाः पद विशेषरूपसे मनुष्योंके लिये ही प्रयुक्त हुआ है ।

कर्मयोग अनादिकालसे चला आ रहा है । चौथे अध्यायके तीसरे श्‍लोकमें पुरातनः पदसे भी भगवान् कहते हैं कि यह कर्मयोग बहुत कालसे प्रायः लुप्‍त हो गया था, जिसको मैंने तुम्हें फिरसे कहा है । उसी बातको यहाँ भी पुरा पदसे वे दूसरी रीतिसे कहते हैं किमैंने ही नहीं प्रत्युत ब्रह्माजीने भी सर्गके आदिकालमें कर्तव्यसहित प्रजाको रचकर उनको उसी कर्मयोगका आचरण करनेकी आज्ञा दी थी । तात्पर्य यह है कि कर्मयोग (निःस्वार्थभावसे कर्तव्य-कर्म करने)-की परम्परा अनादिकालसे ही चली आ रही है । यह कोई नयी बात नहीं है ।

चौथे अध्यायमें (चौबीसवेंसे तीसवें श्‍लोकतक) परमात्मप्राप्‍तिके जितने साधन बताये गये हैं, वे सभीयज्ञके नामसे कहे गये हैं; जैसेद्रव्ययज्ञ, तपयज्ञ, योगयज्ञ, प्राणायाम आदि । प्रायः यज्ञशब्दका अर्थ हवनसे सम्बन्ध रखनेवाली क्रियाके लिये ही प्रसिद्ध है; परन्तु गीतामेंयज्ञशब्द शास्‍त्रविधिसे की जानेवाली सम्पूर्ण विहित क्रियाओंका वाचक भी है । अपने वर्ण, आश्रम, धर्म, जाति, स्वभाव, देश, काल आदिके अनुसार प्राप्‍त कर्तव्य-कर्म यज्ञके अन्तर्गत आते हैं । दूसरेके हितकी भावनासे किये जानेवाले सब कर्म भी यज्ञही हैं । ऐसे यज्ञ (कर्तव्य)-का दायित्व मनुष्यपर ही है ।

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्‍टकामधुक्‒ब्रह्माजी मनुष्योंसे कहते हैं कि तुमलोग अपने-अपने कर्तव्य-पालनके द्वारा सबकी वृद्धि करो, उन्‍नति करो । ऐसा करनेसे तुमलोगोंको कर्तव्य-कर्म करनेमें उपयोगी सामग्री प्राप्‍त होती रहे, उसकी कभी कमी न रहे ।

.‘इष्‍टशब्द यज् धातुसे कृदन्तका क्त प्रत्यय करनेसे बनता है, जो यज्ञ (कर्तव्य-कर्म)-का वाचक है और काम शब्द कमु धातुसे अण्’ प्रत्यय करनेसे बनता है, जो पदार्थ (सामग्री)-का वाचक है ।

अर्जुनकी कर्म न करनेमें जो रुचि थी, उसे दूर करनेके लिये भगवान् कहते हैं कि प्रजापति ब्रह्माजीके वचनोंसे भी तुम्हें कर्तव्य-कर्म करनेकी शिक्षा लेनी चाहिये । दूसरोंके हितके लिये कर्तव्य-कर्म करनेसे ही तुम्हारी लौकिक और पारलौकिक उन्‍नति हो सकती है ।

निष्कामभावसे केवल कर्तव्य-पालनके विचारसे कर्म करनेपर मनुष्य मुक्त हो जाता है और सकामभावसे कर्म करनेपर मनुष्य बन्धनमें पड़ जाता है । प्रस्तुत प्रकरणमें निष्कामभावसे किये जानेवाले कर्तव्य-कर्मका विवेचन चल रहा है । अतः यहाँ इष्‍टकाम पदका अर्थ इच्छित भोग-सामग्री’ (जो सकामभावका सूचक है) लेना उचित प्रतीत नहीं होता । यहाँ इस पदका अर्थ हैयज्ञ (कर्तव्य-कर्म) करनेकी आवश्यक सामग्री ।

३.पूर्व श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि यज्ञके सिवाय अन्य कर्मोंमें अर्थात् सकामभावसे किये जानेवाले कर्मोंमें लगा हुआ मनुष्य बँध जाता है; और आगे तेरहवें श्‍लोकमें भी कहा है कि जो अपने लिये अर्थात् सकामभावसे कर्म करते हैं, वे पापीलोग पापका ही भक्षण करते हैं । इस प्रकार पीछेके और आगेके श्‍लोकोंको देखें तो दोनों ही जगह सकामभावके त्यागकी बात आयी है । अतः बीचके इन (दसवें, ग्यारहवें और बारहवें) श्‍लोकोंमें भी सकामभावके त्यागकी बात ही आनी उचित है । अगर यहाँइष्‍टकामपदका अर्थइच्छित पदार्थलिया जाय तो (प्रकरण-विरुद्ध होनेके कारण) दोष आता है; क्योंकि इच्छित पदार्थ पानेके लिये किये गये कर्म भगवान्‌के मतमें बन्धनकारक हैं । अतःइष्‍टकामपदका अर्थकर्तव्यके लिये आवश्यक सामग्रीही है ।

कर्मयोगी दूसरोंकी सेवा अथवा हित करनेके लिये सदा ही तत्पर रहता है । इसलिये प्रजापति ब्रह्माजीके विधानके अनुसार दूसरोंकी सेवा करनेकी सामग्री, सामर्थ्य और शरीर-निर्वाहकी आवश्यक वस्तुओंकी उसे कभी कमी नहीं रहती । उसको ये उपयोगी वस्तुएँ सुगमतापूर्वक मिलती रहती हैं । ब्रह्माजीके विधानके अनुसार कर्तव्य-कर्म करनेकी सामग्री जिस-जिसको, जो-जो भी मिली हुई है, वह कर्तव्य-पालन करनेके लिये उस-उसको पूरी-की-पूरी प्राप्‍त है । कर्तव्य-पालनकी सामग्री कभी किसीके पास अधूरी नहीं होती । ब्रह्माजीके विधानमें कभी फर्क नहीं पड़ सकता; क्योंकि जब उन्होंने कर्तव्य-कर्म करनेका विधान निश्‍चित किया है, तब जितनेसे कर्तव्यका पालन हो सके, उतनी सामग्री देना भी उन्हींपर निर्भर है ।

वास्तवमें मनुष्यशरीर भोग भोगनेके लिये है ही नहींएहि तन कर फल बिषय न भाई’ (मानस ७ । ४४ । १) इसीलियेसांसारिक सुखोंको भोगो’‒ऐसी आज्ञा या विधान किसी भी सत्-शास्‍त्रमें नहीं है । समाज भी स्वच्छन्द भोग भोगनेकी आज्ञा नहीं देता । इसके विपरीत दूसरोंको सुख पहुँचानेकी आज्ञा या विधान शास्‍त्र और समाज दोनों ही देते हैं । जैसे, पिताके लिये यह विधान तो मिलता है कि वह पुत्रका पालन-पोषण करे, पर यह विधान कहीं भी नहीं मिलता कि पुत्रसे पिता सेवा ले ही । इसी प्रकार पुत्र, पत्‍नी आदि अन्य सम्बन्धोंके लिये भी समझना चाहिये ।

कर्मयोगी सदा देनेका ही भाव रखता है, लेनेका नहीं; क्योंकि लेनेका भाव ही बाँधनेवाला है । लेनेका भाव रखनेसे कल्याणप्राप्‍तिमें बाधा लगनेके साथ ही सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्‍तिमें भी बाधा उपस्थित हो जाती है । प्रायः सभीका अनुभव है कि संसारमें लेनेका भाव रखनेवालेको कोई देना नहीं चाहता । इसलिये ब्रह्माजी कहते हैं कि बिना कुछ चाहे, निःस्वार्थभावसे कर्तव्य-कर्म करनेसे ही मनुष्य अपनी उन्‍नति (कल्याण) कर सकता है ।

देवान् भावयतानेनयहाँदेवशब्द उपलक्षक है; अतः इस पदके अन्तर्गत मनुष्य, देवता, ऋषि, पितर आदि समस्त प्राणियोंको समझना चाहिये । कारण कि कर्मयोगीका उद्‍देश्य अपने कर्तव्य-कर्मोंसे प्राणिमात्रको सुख पहुँचाना रहता है । इसलिये यहाँ ब्रह्माजी सम्पूर्ण प्राणियोंकी उन्‍नतिके लिये मनुष्योंको अपने कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञके पालनका आदेश देते हैं । अपने-अपने कर्तव्यका पालन करनेसे मनुष्यका स्वतः कल्याण हो जाता है (गीता‒अठारहवें अध्यायका पैंतालीसवाँ श्‍लोक) । कर्तव्य-कर्मका पालन करनेके उपदेशके पूर्ण अधिकारी मनुष्य ही हैं । मनुष्योंको ही कर्म करनेकी स्वतन्त्रता मिली हुई है; अतः उन्हें इस स्वतन्त्रताका सदुपयोग करना चाहिये ।

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