Listen सम्बन्ध‒पूर्व श्लोकमें भगवान्ने कहा कि यज्ञ
(कर्तव्य-कर्म)-के अतिरिक्त कर्म बन्धनकारक
होते है । अतः इस बन्धनसे मुक्त होनेके लिये कर्मोंका स्वरूपसे त्याग न करके कर्तव्यबुद्धिसे
कर्म करना आवश्यक है । अब कर्मोंकी अवश्यकर्तव्यताको पुष्ट करनेके लिये और भी हेतु
बताते हैं । सूक्ष्म विषय‒प्रजापति ब्रह्माजीकी आज्ञाके
अनुसार यज्ञार्थ-कर्मकी आवश्यकताका कथन । सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः । अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥ १० ॥ देवान्
भावयतानेन ते देवा
भावयन्तु वः । परस्परं भावयन्तः
श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥ ११ ॥ अर्थ‒प्रजापति ब्रह्माजीने सृष्टिके आदिकालमें
कर्तव्य-कर्मोंके विधानसहित प्रजा (मनुष्य आदि)-की रचना करके (उनसे प्रधानतया मनुष्योंसे)
कहा कि तुमलोग इस कर्तव्यके द्वारा सबकी वृद्धि करो और यह (कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञ) तुमलोगोंको
कर्तव्य-पालनकी आवश्यक सामग्री प्रदान करनेवाला हो । इस (अपने कर्तव्य-कर्म)-के द्वारा
तुमलोग देवताओंको उन्नत करो और वे देवतालोग (अपने कर्तव्यके द्वारा) तुमलोगोंको उन्नत
करें । इस प्रकार एक-दूसरेको उन्नत करते हुए तुमलोग परम कल्याणको प्राप्त हो जाओगे
।
व्याख्या‒‘सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा
पुरोवाच प्रजापतिः’‒ब्रह्माजी प्रजा (सृष्टि)-के रचयिता एवं उसके स्वामी हैं; अतः अपने कर्तव्यका पालन करनेके साथ
वे प्रजाकी रक्षा तथा उसके कल्याणका विचार करते रहते हैं । कारण कि जो जिसे उत्पन्न करता है, उसकी रक्षा करना उसका कर्तव्य
हो जाता है । ब्रह्माजी प्रजाकी रचना करते, उसकी रक्षामें तत्पर रहते तथा सदा उसके हितकी बात सोचते
हैं । इसीलिये वे ‘प्रजापति’ कहलाते हैं । सृष्टि अर्थात् सर्गके आरम्भमें ब्रह्माजीने
कर्तव्यकर्मोंकी योग्यता और विवेकसहित मनुष्योंकी रचना की है१ । अनुकूल
और प्रतिकूल परिस्थितिका सदुपयोग कल्याण करनेवाला है । इसलिये ब्रह्माजीने अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिका सदुपयोग करनेका
विवेक साथ देकर ही मनुष्योंकी रचना की है । १.यहाँ यह समझ लेना चाहिये कि भगवान्की
आज्ञासे और उन्हींकी शक्तिसे ब्रह्माजी प्रजाकी रचना करते हैं । अतः वास्तवमें सृष्टिके
मूल रचयिता भगवान् ही हैं (गीता ४ । १३; १७ । २३) । सत्-असत्का विचार करनेमें असमर्थ पशु, पक्षी, वृक्ष आदिके द्वारा स्वाभाविक परोपकार (कर्तव्यपालन) होता है; किन्तु मनुष्यको
तो भगवत्कृपासे विशेष विवेक-शक्ति मिली हुई है । अतः यदि वह अपने विवेकको महत्त्व देकर
अकर्तव्य न करे तो उसके द्वारा भी स्वाभाविक लोक-हितार्थ कर्म हो सकते हैं । देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य तथा अन्य पशु, पक्षी, वृक्ष आदि सभी प्राणी ‘प्रजा’ हैं । इनमें भी योग्यता, अधिकार और साधनकी विशेषताके कारण मनुष्यपर
अन्य सब प्राणियोंके पालनकी जिम्मेवारी है । अतः यहाँ ‘प्रजाः’ पद विशेषरूपसे मनुष्योंके लिये ही प्रयुक्त
हुआ है । कर्मयोग अनादिकालसे चला आ रहा है ।
चौथे अध्यायके तीसरे श्लोकमें ‘पुरातनः’ पदसे भी भगवान् कहते हैं कि यह कर्मयोग
बहुत कालसे प्रायः लुप्त हो गया था, जिसको मैंने तुम्हें फिरसे कहा है । उसी बातको यहाँ भी
‘पुरा’ पदसे वे दूसरी रीतिसे कहते हैं कि ‘मैंने ही नहीं प्रत्युत ब्रह्माजीने
भी सर्गके आदिकालमें कर्तव्यसहित प्रजाको रचकर उनको उसी कर्मयोगका आचरण करनेकी आज्ञा
दी थी । तात्पर्य यह है कि कर्मयोग (निःस्वार्थभावसे कर्तव्य-कर्म करने)-की परम्परा अनादिकालसे ही चली आ रही
है । यह कोई नयी बात नहीं है ।’ चौथे अध्यायमें (चौबीसवेंसे तीसवें श्लोकतक) परमात्मप्राप्तिके जितने साधन बताये
गये हैं, वे
सभी
‘यज्ञ’ के नामसे कहे गये हैं; जैसे‒द्रव्ययज्ञ, तपयज्ञ, योगयज्ञ, प्राणायाम आदि । प्रायः ‘यज्ञ’ शब्दका अर्थ हवनसे सम्बन्ध रखनेवाली
क्रियाके लिये ही प्रसिद्ध है; परन्तु गीतामें ‘यज्ञ’ शब्द शास्त्रविधिसे की जानेवाली सम्पूर्ण
विहित क्रियाओंका वाचक भी है । अपने वर्ण, आश्रम, धर्म, जाति, स्वभाव, देश, काल आदिके अनुसार प्राप्त कर्तव्य-कर्म ‘यज्ञ’ के अन्तर्गत आते हैं । दूसरेके हितकी
भावनासे किये जानेवाले सब कर्म भी ‘यज्ञ’ ही हैं । ऐसे यज्ञ (कर्तव्य)-का दायित्व मनुष्यपर ही है । ‘अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्’२‒ब्रह्माजी मनुष्योंसे कहते हैं कि तुमलोग अपने-अपने कर्तव्य-पालनके द्वारा सबकी वृद्धि करो, उन्नति करो । ऐसा करनेसे तुमलोगोंको
कर्तव्य-कर्म
करनेमें उपयोगी सामग्री प्राप्त होती रहे, उसकी कभी कमी न रहे । २.‘इष्ट’ शब्द ‘यज्’ धातुसे कृदन्तका ‘क्त’ प्रत्यय करनेसे बनता है, जो यज्ञ (कर्तव्य-कर्म)-का वाचक है और ‘काम’ शब्द ‘कमु’ धातुसे ‘अण्’ प्रत्यय करनेसे बनता है, जो पदार्थ (सामग्री)-का वाचक है । अर्जुनकी कर्म न करनेमें जो रुचि थी, उसे दूर करनेके लिये भगवान् कहते हैं
कि प्रजापति ब्रह्माजीके वचनोंसे भी तुम्हें कर्तव्य-कर्म करनेकी शिक्षा लेनी चाहिये । दूसरोंके
हितके लिये कर्तव्य-कर्म करनेसे ही तुम्हारी लौकिक और पारलौकिक उन्नति हो सकती
है । निष्कामभावसे केवल कर्तव्य-पालनके विचारसे कर्म करनेपर
मनुष्य मुक्त हो जाता है और सकामभावसे कर्म करनेपर मनुष्य बन्धनमें पड़ जाता है । प्रस्तुत प्रकरणमें निष्कामभावसे किये
जानेवाले कर्तव्य-कर्मका विवेचन चल रहा है । अतः यहाँ ‘इष्टकाम’ पदका अर्थ ‘इच्छित भोग-सामग्री’ (जो सकामभावका सूचक है) लेना उचित प्रतीत नहीं होता । यहाँ
इस पदका अर्थ है‒यज्ञ (कर्तव्य-कर्म) करनेकी आवश्यक सामग्री ।३ ३.पूर्व श्लोकमें भगवान्ने कहा कि यज्ञके सिवाय अन्य कर्मोंमें अर्थात् सकामभावसे
किये जानेवाले कर्मोंमें लगा हुआ मनुष्य बँध जाता है; और आगे तेरहवें श्लोकमें भी कहा है
कि जो अपने लिये अर्थात् सकामभावसे कर्म करते हैं, वे पापीलोग पापका ही भक्षण करते हैं
। इस प्रकार पीछेके और आगेके श्लोकोंको देखें तो दोनों ही जगह सकामभावके त्यागकी बात
आयी है । अतः बीचके इन (दसवें, ग्यारहवें और बारहवें) श्लोकोंमें भी सकामभावके त्यागकी बात ही आनी उचित है । अगर यहाँ ‘इष्टकाम’ पदका अर्थ ‘इच्छित पदार्थ’ लिया जाय तो (प्रकरण-विरुद्ध होनेके कारण) दोष आता है; क्योंकि इच्छित पदार्थ पानेके लिये
किये गये कर्म भगवान्के मतमें बन्धनकारक हैं । अतः ‘इष्टकाम’ पदका अर्थ ‘कर्तव्यके लिये आवश्यक सामग्री’ ही है । कर्मयोगी दूसरोंकी सेवा अथवा हित करनेके
लिये सदा ही तत्पर रहता है । इसलिये प्रजापति ब्रह्माजीके विधानके अनुसार दूसरोंकी
सेवा करनेकी सामग्री, सामर्थ्य और शरीर-निर्वाहकी आवश्यक वस्तुओंकी उसे कभी
कमी नहीं रहती । उसको ये उपयोगी वस्तुएँ सुगमतापूर्वक मिलती रहती हैं । ब्रह्माजीके
विधानके अनुसार कर्तव्य-कर्म करनेकी सामग्री जिस-जिसको, जो-जो भी मिली हुई है, वह कर्तव्य-पालन करनेके लिये उस-उसको पूरी-की-पूरी प्राप्त है । कर्तव्य-पालनकी सामग्री कभी किसीके
पास अधूरी नहीं होती । ब्रह्माजीके विधानमें कभी फर्क नहीं पड़ सकता; क्योंकि जब उन्होंने कर्तव्य-कर्म करनेका विधान निश्चित किया है, तब जितनेसे कर्तव्यका पालन हो सके, उतनी सामग्री देना भी उन्हींपर निर्भर
है । वास्तवमें मनुष्यशरीर भोग
भोगनेके लिये है ही नहीं‒‘एहि तन कर फल बिषय न भाई’ (मानस ७ । ४४ । १) । इसीलिये ‘सांसारिक सुखोंको भोगो’‒ऐसी आज्ञा या विधान किसी भी सत्-शास्त्रमें नहीं है । समाज भी स्वच्छन्द
भोग भोगनेकी आज्ञा नहीं देता । इसके विपरीत दूसरोंको सुख पहुँचानेकी आज्ञा या विधान
शास्त्र और समाज दोनों ही देते हैं । जैसे, पिताके लिये यह विधान तो मिलता है कि
वह पुत्रका पालन-पोषण करे, पर यह विधान कहीं भी नहीं मिलता कि पुत्रसे पिता सेवा
ले ही । इसी प्रकार पुत्र, पत्नी आदि अन्य सम्बन्धोंके लिये भी समझना चाहिये । कर्मयोगी सदा देनेका ही भाव रखता है, लेनेका नहीं; क्योंकि लेनेका
भाव ही बाँधनेवाला है । लेनेका भाव रखनेसे कल्याणप्राप्तिमें बाधा लगनेके साथ
ही सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्तिमें भी बाधा उपस्थित हो जाती है । प्रायः सभीका अनुभव है कि संसारमें लेनेका भाव रखनेवालेको कोई देना
नहीं चाहता । इसलिये ब्रह्माजी कहते हैं कि बिना कुछ चाहे, निःस्वार्थभावसे कर्तव्य-कर्म करनेसे ही मनुष्य अपनी उन्नति (कल्याण) कर सकता है ।
‘देवान् भावयतानेन’‒यहाँ ‘देव’ शब्द उपलक्षक है; अतः इस पदके अन्तर्गत मनुष्य, देवता, ऋषि, पितर आदि समस्त प्राणियोंको समझना चाहिये
। कारण कि कर्मयोगीका उद्देश्य अपने कर्तव्य-कर्मोंसे प्राणिमात्रको सुख पहुँचाना
रहता है । इसलिये यहाँ ब्रह्माजी सम्पूर्ण प्राणियोंकी उन्नतिके लिये मनुष्योंको अपने
कर्तव्य-कर्मरूप
यज्ञके पालनका आदेश देते हैं । अपने-अपने कर्तव्यका पालन करनेसे मनुष्यका स्वतः कल्याण हो
जाता है (गीता‒अठारहवें
अध्यायका पैंतालीसवाँ श्लोक) । कर्तव्य-कर्मका पालन करनेके उपदेशके पूर्ण अधिकारी मनुष्य ही हैं
। मनुष्योंको ही कर्म करनेकी स्वतन्त्रता मिली हुई है; अतः उन्हें इस स्वतन्त्रताका सदुपयोग
करना चाहिये । രരരരരരരരരര |