Listen मार्मिक बात मनुष्यका प्रायः ऐसा स्वभाव हो गया
है कि जिसमें उसको अपना स्वार्थ दिखायी देता है उसी कर्मको वह बड़ी तत्परतासे करता है
। परन्तु वही कर्म उसके लिये बन्धनकारक हो जाता है । अतः इस बन्धनसे छूनेके लिये उसे
कर्मयोगके अनुसार आचरण करनेकी बड़ी आवश्यकता है । कर्मयोगमें सभी कर्म केवल दूसरोंके
लिये किये जाते हैं, अपने लिये कदापि नहीं । दूसरे
कौन-कौन हैं ? इसे समझना भी बहुत जरूरी
है । अपने
शरीरके सिवाय दूसरे प्राणी-पदार्थ तो दूसरे हैं ही, पर ये अपने कहलानेवाले स्थूल-शरीर, सूक्ष्म-शरीर (इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण) और कारण-शरीर (जिसमें माना हुआ ‘अहम्’ है)-भी स्वयंसे दूसरे ही हैं१ । कारण कि स्वयं (जीवात्मा) चेतन परमात्माका अंश है और ये शरीर आदि पदार्थ जड प्रकृतिके
अंश हैं । समस्त क्रियाएँ जडमें और जडके लिये ही होती हैं । चेतनमें और चेतनके लिये
कभी कोई क्रिया नहीं होती । अतः ‘करना’ अपने लिये है ही नहीं, कभी हुआ नहीं और हो सकता
भी नहीं । हाँ, संसारसे
मिले हुए इन शरीर आदि जड पदार्थोंको चेतन जितने अंशमें ‘मैं’, ‘मेरा’ और ‘मेरे लिये’ मान लेता है, उतने अंशमें उसका स्वभाव ‘अपने लिये’ करनेका हो जाता है । अतः दूसरोंके लिये कर्म करनेसे ममता-आसक्ति सुगमतासे मिट जाती
है । १.जैसे संसार ‘पर’ है, ऐसे ही शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि भी ‘पर’ अर्थात् दूसरे ही हैं, अतः कर्मयोगी इनको अपना न मानकर इनकी भी सेवा करता है । शरीरको निद्रालु, आलसी, प्रमादी, निकम्मा और भोगी न बनने देना ‘शरीर’ की सेवा है । इन्द्रियोंको सांसारिक
भोगोंमें न लगने देना ‘इन्द्रियों’ की सेवा है । मनको किसीका अहित सोचनेमें, विषयोंके चिन्तनमें तथा व्यर्थ चिन्तनमें
न लगने देना ‘मन’ की सेवा है । बुद्धिको दूसरोंके कर्तव्यपर विचार न करने देना, दूसरा क्या करता है, क्या नहीं‒यह न सोचने देना ‘बुद्धि’ की सेवा है । वास्तवमें शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धिमें ममता-आसक्ति न रखना ही इनकी सबसे
बड़ी सेवा है । शरीरकी अवस्थाएँ (बचपन, जवानी आदि) बदलनेपर भी ‘मैं वही हूँ’‒इस रूपमें अपनी एक निरन्तर रहनेवाली
सत्ताका प्राणिमात्रको अनुभव होता है । इस अपरिवर्तनशील सत्ता (अपने होनेपन)-की परमात्मतत्त्वके साथ
स्वतः एकता है और परिवर्तनशील शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिकी संसारके साथ स्वतः एकता है । हमारे द्वारा
जो भी क्रिया की जाती है, वह शरीर, इन्द्रियों आदिके द्वारा ही की जाती है; क्योंकि क्रियामात्रका सम्बन्ध प्रकृति
और प्रकृतिजन्य पदार्थोंके साथ है, स्वयं (अपने स्वरूप)-के साथ नहीं । इसलिये शरीरके सम्बन्धके
बिना हम कोई भी क्रिया नहीं कर सकते । इससे यह बात निश्चितरूपसे सिद्ध होती है कि
हमें अपने लिये कुछ भी नहीं करना है; जो कुछ करना है, संसारके लिये ही करना है
। कारण कि ‘करना’ उसीपर लागू होता है, जो स्वयं कर सकता है । जो स्वयं कुछ कर ही नहीं सकता, उसके लिये ‘करने’ का विधान है ही नहीं । जो कुछ किया
जाता है, संसारकी
सहायतासे ही किया जाता है । अतः ‘करना’ संसारके लिये ही है । अपने
लिये करनेसे ही मनुष्य कर्मोंसे बँधता है‒‘यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र
लोकोऽयं कर्मबन्धनः ।’ विनाशी और परिवर्तनशील शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिके साथ अपने अविनाशी और अपरिवर्तनशील
स्वरूपका कोई सम्बन्ध नहीं है, इसलिये अपना और अपने लिये कुछ भी नहीं है । शरीरादिकी
सहायताके बिना हम कुछ नहीं कर सकते, इसलिये अपने लिये कुछ भी नहीं करना है । अपने सत्-स्वरूपमें कभी कोई कमी नहीं
आती और कमी आये बिना कोई इच्छा नहीं होती, इसलिये अपने लिये कुछ भी
नहीं चाहिये । इस प्रकार जब क्रिया और पदार्थसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है (जो वास्तवमें है) तब यदि ज्ञानके संस्कार हैं तो स्वरूपका
साक्षात्कार हो जाता है और यदि भक्तिके संस्कार हैं तो भगवान्में प्रेम हो जाता है
। परिशिष्ट भाव‒मनुष्य कर्म करनेसे नहीं बँधता, प्रत्युत ‘अन्यत्र कर्म’ करनेसे अर्थात् अपने लिये कर्म करनेसे
बँधता है (गीता‒इसी अध्यायका तेरहवाँ श्लोक) । अतः ‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र
लोकोऽयं कर्मबन्धनः’ पदोंका तात्पर्य है‒अपने लिये कुछ नहीं करना
है । मनुष्य कर्म-बन्धनसे तभी मुक्त हो सकता है, जब वह संसारसे मिले हुए शरीर, वस्तु, योग्यता और सामर्थ्य (बल) संसारकी ही सेवामें लगा दे और बदलेमें
कुछ न चाहे । कारण कि संसार हमें वह वस्तु दे नहीं सकता, जो हम वास्तवमें चाहते हैं
। हम
सुख चाहते हैं, अमरता
चाहते हैं, निश्चिन्तता
चाहते हैं, निर्भयता
चाहते हैं, स्वाधीनता
चाहते हैं । परन्तु यह सब हमें संसारसे नहीं मिलेगा, प्रत्युत संसारके सम्बन्ध-विच्छेदसे मिलेगा । संसारसे
सम्बन्ध-विच्छेदके लिये यह आवश्यक है कि हमें संसारसे जो मिला
है, उसको केवल संसारकी ही सेवामें समर्पित कर दें ।
गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒जो कर्म दूसरोंके लिये
नहीं किये जाते, प्रत्युत अपने लिये किये जाते हैं, उन कर्मोंसे मनुष्य बँध जाता है । अतः साधकको ये तीन बातें स्वीकार कर लेनी
चाहिये‒(१) शरीरसहित कुछ भी मेरा नहीं है, (२) मुझे कुछ भी नहीं चाहिये, और (३) मुझे अपने लिये कुछ
भी नहीं करना है । पहली बात स्वीकार करनेसे दूसरी बात सुगम
हो जायगी और दूसरी बात स्वीकार करनेसे तीसरी बात सुगम हो जायगी । രരരരരരരരരര |