Listen सम्बन्ध‒पीछेके श्लोकमें भगवान्ने कर्म किये
बिना शरीर-निर्वाह
भी नहीं होनेकी बात कही । इससे सिद्ध होता है कि कर्म करना बहुत आवश्यक है । परन्तु
कर्म करनेसे तो मनुष्य बँधता है‒‘कर्मणा बध्यते जन्तुः’, तो फिर मनुष्यको बन्धनसे छूटनेके
लिये क्या करना चाहिये‒इसको भगवान् आगेके श्लोकमें बताते हैं । प्रधान विषय‒९—१९ श्लोकतक‒यज्ञ और सृष्टिचक्रकी परम्परा सुरक्षित रखनेके लिये
कर्तव्य-कर्म करनेकी आवश्यकताका निरूपण । सूक्ष्म विषय‒अपने लिये किये गये कर्मको
बन्धनकारक बतलाते हुए अनासक्तभावसे कर्म करनेकी आज्ञा । यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः । तदर्थं कर्म कौन्तेय
मुक्तसङ्गः समाचर ॥ ९ ॥ अर्थ‒यज्ञ (कर्तव्य-पालन)-के
लिये किये जानेवाले कर्मोंसे अन्यत्र (अपने लिये किये जानेवाले) कर्मोंमें लगा हुआ
यह मनुष्य-समुदाय कर्मोंसे बँधता है; इसलिये हे कुन्तीनन्दन !
तू आसक्तिरहित होकर उस यज्ञके लिये ही कर्तव्य-कर्म कर ।
व्याख्या‒‘यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र’‒गीताके अनुसार कर्तव्यमात्रका नाम ‘यज्ञ’ है । ‘यज्ञ’ शब्दके अन्तर्गत यज्ञ, दान, तप, होम, तीर्थ-सेवन, व्रत, वेदाध्ययन आदि समस्त शारीरिक, व्यावहारिक और पारमार्थिक क्रियाएँ
आ जाती हैं । कर्तव्य मानकर किये जानेवाले व्यापार, नौकरी, अध्ययन, अध्यापन आदि सब शास्त्रविहित कर्मोंका
नाम भी यज्ञ है । दूसरोंको सुख पहुँचाने तथा उनका हित करनेके लिये जो भी कर्म किये
जाते हैं, वे
सभी यज्ञार्थ कर्म हैं । यज्ञार्थ कर्म करनेसे आसक्ति बहुत जल्दी मिट जाती है तथा कर्मयोगीके
सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं (गीता ४ । २३) अर्थात् वे कर्म स्वयं तो बन्धनकारक
होते नहीं, प्रत्युत
पूर्वसंचित कर्मसमूहको भी समाप्त कर देते हैं । वास्तवमें मनुष्यकी स्थिति उसके उद्देश्यके
अनुसार होती है, क्रियाके
अनुसार नहीं । जैसे व्यापारीका प्रधान उद्देश्य धन कमाना रहता है; अतः वास्तवमें उसकी स्थिति धनमें ही
रहती है और दुकान बंद करते ही उसकी वृत्ति धनकी तरफ चली जाती है । ऐसे ही यज्ञार्थ
कर्म करते समय कर्मयोगीकी स्थिति अपने उद्देश्य‒परमात्मामें ही रहती है और कर्म समाप्त
करते ही उसकी वृत्ति परमात्माकी तरफ चली जाती है । सभी वर्णोंके लिये अलग-अलग कर्म हैं । एक वर्णके लिये कोई
कर्म स्वधर्म है तो वही दूसरे वर्णोंके लिये (विहित न होनेसे) परधर्म अर्थात् अन्यत्र कर्म हो जाता
है;
जैसे‒भिक्षासे जीवन-निर्वाह करना ब्राह्मणके लिये तो स्वधर्म
है,
पर क्षत्रियके लिये परधर्म है । इसी
प्रकार निष्कामभावसे कर्तव्यकर्म करना मनुष्यका स्वधर्म है और सकामभावसे कर्म करना
परधर्म है । जितने भी सकाम और निषिद्ध कर्म हैं वे सब-के-सब ‘अन्यत्र-कर्म’ की श्रेणीमें ही है । अपने सुख, मान, बड़ाई, आराम आदिके लिये जितने कर्म किये जायँ, वे सब-के-सब भी ‘अन्यत्र-कर्म’ हैं१ । अतः छोटा-से-छोटा तथा बड़ा-से-बड़ा जो भी कर्म किया जाय, उसमें साधकको सावधान रहना चाहिये कि
कहीं किसी स्वार्थकी भावनासे तो कर्म नहीं हो रहा है ! साधक उसीको कहते हैं, जो निरन्तर सावधान रहता
है । इसलिये साधकको अपनी साधनाके प्रति सतर्क, जागरूक रहना ही चाहिये । १.अपने लिये कर्म करनेसे सकामभाव रहता है और सकामभाव रहनेसे निषिद्ध कर्म होनेकी
पूर्ण सम्भावना रहती है । ‘अन्यत्र-कर्म’ के विषयमें दो गुप्त भाव‒(१) किसीके आनेपर यदि कोई मनुष्य उसके प्रति ‘आइये ! बैठिये !’ आदि आदरसूचक शब्दोंका प्रयोग करता
है,
पर भीतरसे अपनेमें सज्जनताका आरोप
करता है अथवा ‘ऐसा
कहनेसे आनेवाले व्यक्तिपर मेरा अच्छा असर पड़ेगा’‒इस भावसे कहता है तो इसमें स्वार्थकी
भावना छिपी रहनेसे यह ‘अन्यत्र-कर्म’ ही है, यज्ञार्थ कर्म नहीं । (२) सत्संग, सभा आदिमें कोई व्यक्ति मनमें इस भावको
रखते हुए प्रश्न करता है कि वक्ता और श्रोतागण मुझे अच्छा जानकार समझेंगे तथा उनपर
मेरा अच्छा असर पड़ेगा तो यह ‘अन्यत्र-कर्म’ ही है, यज्ञार्थ कर्म नहीं । तात्पर्य यह है कि साधक कर्म तो करे, पर उसमें स्वार्थ, कामना आदिका भाव नहीं रहना चाहिये ।
कर्मका निषेध नहीं है, प्रत्युत सकामभावका निषेध है । साधकको भोग और ऐश्वर्य-बुद्धिसे कोई भी कर्म नहीं करना चाहिये; क्योंकि ऐसी बुद्धिमें भोगासक्ति और
कामना रहती है, जिससे
कर्मयोगका आचरण नहीं हो पाता । निर्वाह-बुद्धिसे कर्म करनेपर भी
जीनेकी कामना बनी रहती है । अतः निर्वाह-बुद्धि भी त्याज्य है ।
साधकको केवल साधन-बुद्धिसे ही प्रत्येक कर्म करना चाहिये
। सबसे उत्तम साधक तो वह है, जो अपनी मुक्तिके लिये भी
कोई कर्म न करके केवल दूसरोंके हितके लिये ही कर्म करता है । कारण कि अपना हित दूसरोंके लिये कर्म
करनेसे होता है, अपने
लिये कर्म करनेसे नहीं । दूसरोंके हितमें ही अपना हित है । दूसरोंके हितसे अपना हित अलग मानना ही गलती है । इसलिये
लौकिक तथा शास्त्रीय जो कर्म किये जायँ, वे सब-के-सब केवल लोक-हितार्थ होने चाहिये । अपने सुखके लिये किया गया कर्म तो बन्धनकारक
है ही, अपने
व्यक्तिगत हितके लिये किया गया कर्म भी बन्धनकारक है । केवल अपने हितकी तरफ दृष्टि
रखनेसे व्यक्तित्व बना रहता है । इसलिये और तो क्या, जप, चिन्तन, ध्यान, समाधि भी केवल लोकहितके लिये ही करे
। तात्पर्य यह कि स्थूल, सूक्ष्म और कारण‒तीनों शरीरोंसे होनेवाली मात्र क्रिया
संसारके लिये ही हो, अपने लिये नहीं । ‘कर्म’ संसारके लिये है और संसारसे
सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर परमात्माके साथ ‘योग’ अपने लिये है । इसीका नाम
है‒कर्मयोग । ‘लोकोऽयं कर्मबन्धनः’‒कर्तव्य-कर्म (यज्ञ) करनेका अधिकार मुख्यरूपसे मनुष्यको
ही है । इसका वर्णन भगवान्ने आगे सृष्टिचक्रके प्रसंग (तीसरे अध्यायके चौदहवेंसे सोलहवें
श्लोकतक)-में भी किया है । जिसका उद्देश्य प्राणिमात्रका हित करना, उनको सुख पहुँचाना होता है, उसीके द्वारा कर्तव्य-कर्म हुआ करते हैं । जब मनुष्य दूसरोंके
हितके लिये कर्म न करके केवल अपने सुखके लिये कर्म करता है, तब वह बँध जाता है । आसक्ति और स्वार्थभावसे
कर्म करना ही बन्धनका कारण है । आसक्ति और स्वार्थके न रहनेपर स्वतः सबके हितके लिये
कर्म होते हैं । बन्धन भावसे होता है, क्रियासे नहीं । मनुष्य कर्मोंसे नहीं बँधता, प्रत्युत कर्मोंमें वह जो आसक्ति और
स्वार्थभाव रखता है, उनसे ही वह बँधता है । ‘तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः
समाचर’‒यहाँ ‘मुक्तसंगः’ पदसे भगवान्का यह तात्पर्य है कि कर्मोंमें, पदार्थोंमें तथा जिनसे कर्म किये जाते
हैं,
उन शरीर, मन, बुद्धि आदि सामग्रीमें ममता-आसक्ति होनेसे ही बन्धन होता है । ममता, आसक्ति रहनेसे कर्तव्य-कर्म भी स्वाभाविक एवं भलीभाँति नहीं
होते । ममता-आसक्ति
न रहनेसे परहितके लिये कर्तव्य-कर्मका स्वतः आचरण होता है और यदि कर्तव्य-कर्म प्राप्त न हो तो स्वतः निर्विकल्पतामें, स्वरूपमें स्थिति होती है । परिणामस्वरूप
साधन निरन्तर होता है और असाधन कभी होता ही नहीं । आलस्य और प्रमादके कारण नियत कर्मका
त्याग करना ‘तामस
त्याग’ कहलाता
है
(गीता‒अठारहवें अध्यायका सातवाँ श्लोक), जिसका फल मूढ़ता अर्थात् मूढ़योनियोंकी
प्राप्ति है‒‘अज्ञानं तमसः फलम्’ (गीता १४ । १६) । कर्मोंको दुःखरूप समझकर उनका त्याग
करना ‘राजस
त्याग’ कहलाता
है
(गीता‒अठारहवें अध्यायका आठवाँ श्लोक) जिसका फल दुःखोंकी प्राप्ति है‒‘रजसस्तु फलं दुःखम्’ (गीता १४ । १६) । इसलिये यहाँ भगवान् अर्जुनको कर्मोंका
त्याग करनेके लिये नहीं कहते, प्रत्युत स्वार्थ, ममता, फलासक्ति, कामना, वासना, पक्षपात आदिसे रहित होकर शास्त्रविधिके
अनुसार सुचारुरूपसे उत्साहपूर्वक कर्तव्य-कर्मोंको करनेकी आज्ञा देते हैं, जो ‘सात्त्विक त्याग’ कहलाता है (गीता‒अठारहवें अध्यायका नवाँ श्लोक) । स्वयं भगवान् भी आगे चलकर कहते हैं
कि मेरे लिये कुछ भी करना शेष नहीं है, फिर भी मैं सावधानीपूर्वक कर्म करता हूँ (तीसरे अध्यायका बाईसवाँ-तेईसवाँ श्लोक) । कर्तव्य-कर्मोंका अच्छी तरह आचरण करनेमें दो
कारणोंसे शिथिलता आती है‒(१) मनुष्यका स्वभाव है कि वह पहले फलकी कामना करके ही कर्ममें
प्रवृत्त होता है । जब वह देखता है कि कर्मयोगके अनुसार फलकी कामना नहीं रखनी है, तब वह विचार करता है कि कर्म ही क्यों
करूँ ? (२) कर्म
आरम्भ करनेके बाद जब अन्तमें उसे पता लग जाय कि इसका फल विपरीत होगा, तब वह विचार करता है कि मैं कर्म तो
अच्छा-से-अच्छा करूँ, पर फल विपरीत मिले तो फिर कर्म करूँ
ही क्यों ?
कर्मयोगी न तो कोई कामना
करता है और न कोई नाशवान् फल ही चाहता है, वह तो मात्र संसारका हित
सामने रखकर ही कर्तव्य-कर्म करता है । अतः उपर्युक्त दोनों कारणोंसे उसके
कर्तव्य-कर्ममें
शिथिलता नहीं आ सकती । രരരരരരരരരര |