Listen सम्बन्ध‒गीता अपनी शैलीके अनुसार पहले प्रस्तुत
विषयका विवेचन करती है । फिर करनेसे लाभ और न करनेसे हानि बताती है । इसके बाद उसका
अनुष्ठान करनेकी आज्ञा देती है । यहाँ भी भगवान् अर्जुनके प्रश्न (मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते है ?)-का
उत्तर देते हुए पहले कर्मोंके सर्वथा त्यागको असम्भव बताते हैं । फिर कर्मोंका स्वरूपसे
त्याग करके मनसे विषय-चिन्तन करनेको मिथ्याचार बताते हुए निष्काम-भावसे कर्म करनेवाले मनुष्यको श्रेष्ठ
बताते हैं । अब आगेके श्लोकमें भगवान् अर्जुनको उसीके अनुसार कर्तव्यकर्म करनेकी आज्ञा
देते हैं । सूक्ष्म विषय‒कर्म न करनेकी अपेक्षा कर्म करनेकी
श्रेष्ठता । नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः । शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ॥ ८ ॥ अर्थ‒तू शास्त्रविधिसे नियत
किये हुए कर्तव्य-कर्म कर; क्योंकि कर्म न करनेकी अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा
कर्म न करनेसे तेरा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा ।
व्याख्या‒‘नियतं कुरु कर्म त्वम्’‒शास्त्रोंमें विहित तथा नियत‒दो प्रकारके कर्मोंको करनेकी आज्ञा
दी गयी है । विहित कर्मका तात्पर्य है‒सामान्यरूपसे शास्त्रोंमें बताया हुआ आज्ञारूप कर्म; जैसे‒व्रत, उपवास, उपासना आदि । इन विहित कर्मोंको सम्पूर्णरूपसे
करना एक व्यक्तिके लिये कठिन है । परन्तु निषिद्ध कर्मोंका त्याग करना सुगम है । विहित कर्मको न कर सकनेमें उतना दोष नहीं है, जितना निषिद्ध कर्मका त्याग
करनेमें लाभ है; जैसे
झूठ न बोलना, चोरी
न करना, हिंसा
न करना इत्यादि । निषिद्ध कर्मोंका त्याग होनेसे विहित कर्म स्वतः होने लगते हैं ।
नियतकर्मका तात्पर्य है‒वर्ण, आश्रम, स्वभाव एवं परिस्थितिके अनुसार प्राप्त कर्तव्य-कर्म; जैसे‒भोजन करना, व्यापार करना, मकान बनवाना, मार्ग भूले हुए व्यक्तिको मार्ग दिखाना
आदि । कर्मयोगकी दृष्टिसे जो वर्णधर्मानुकूल
शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म प्राप्त हो जाय, वह चाहे घोर हो या सौम्य, नियतकर्म ही है । यहाँ ‘नियतं कुरु कर्म’ पदोंसे भगवान् अर्जुनसे यह कहते हैं
कि क्षत्रिय होनेके नाते अपने वर्णधर्मके अनुसार परिस्थितिसे प्राप्त युद्ध करना तेरा
स्वाभाविक कर्म है (गीता‒अठारहवें अध्यायका तैंतालीसवाँ श्लोक) । क्षत्रियके लिये युद्धरूप हिंसात्मक
कर्म घोर दीखते हुए भी वस्तुतः घोर नहीं है, प्रत्युत उसके लिये वह नियतकर्म ही
है । दूसरे अध्यायमें भगवान्ने कहा है कि स्वधर्मकी दृष्टिसे भी युद्ध करना तेरे
लिये नियतकर्म है‒‘स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि’ (२ । ३१) । वास्तवमें तो स्वधर्म और नियतकर्म
दोनों एक ही हैं । यद्यपि दुर्योधन आदिके लिये भी युद्ध वर्णधर्मके अनुसार प्राप्त
कर्म है; तथापि
वह अन्याययुक्त होनेके कारण नियतकर्मसे अलग है; क्योंकि वे युद्ध करके अन्यायपूर्वक
राज्य छीनना चाहते हैं । अतः उनके लिये यह युद्ध नियत तथा धर्मयुक्त कर्म नहीं है । ‘कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः’‒इसी अध्यायके पहले श्लोकमें (अर्जुनके प्रश्नमें) आये हुए ‘ज्यायसी’ पदका उत्तर भगवान् यहाँ ‘ज्यायः’ पदसे ही दे रहे हैं । वहाँ अर्जुनका
प्रश्न है कि यदि आपको कर्मकी अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो मुझे घोर कर्ममें
क्यों लगाते हैं ? इसके उत्तरमें यहाँ भगवान् कहते हैं कि कर्म न करनेकी
अपेक्षा कर्म करना ही मुझे श्रेष्ठ मान्य है । इस प्रकार अर्जुनका विचार युद्धरूप
घोर कर्मसे निवृत्त होनेका है और भगवान्का विचार अर्जुनको युद्धरूप नियतकर्ममें प्रवृत्त
करानेका है । इसीलिये आगे अठारहवें अध्यायमें भगवान् कहते हैं कि दोषयुक्त होनेपर भी
सहज
(नियत) कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये‒‘सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि
न त्यजेत्’ (१८ । ४८) । कारण कि इसके त्यागसे दोष लगता है
एवं कर्मोंके साथ अपना सम्बन्ध भी बना रहता है । अतः कर्मका त्याग करनेकी अपेक्षा नियतकर्म
करना ही श्रेष्ठ है । फिर आसक्तिरहित होकर कर्म करना तो और भी श्रेष्ठ माना गया है; क्योंकि इससे कर्मोंके साथ सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । अतः भगवान् इस
श्लोकके पूर्वार्धमें अर्जुनको अनासक्तभावसे नियतकर्म करनेकी आज्ञा देते हैं और उत्तरार्धमें
कहते हैं कि कर्म किये बिना तेरा जीवन-निर्वाह भी नहीं होगा । कर्मयोगमें ‘कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः’‒यह भगवान्का प्रधान सिद्धान्त है ।
इसीको भगवान्ने ‘मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि’ (गीता २ । ४७) पदोंसे स्पष्ट किया है कि अर्जुन ! तेरी कर्म न करनेमें आसक्ति न हो ।
कारण यह है कि कर्तव्य-कर्मोंसे जी चुरानेवाला
मनुष्य प्रमाद, आलस्य और निद्रामें अपना अमूल्य समय
नष्ट कर देगा अथवा शास्त्रनिषिद्ध कर्म करेगा, जिससे उसका पतन होगा । स्वरूपसे कर्मोंका त्याग करनेकी अपेक्षा
कर्म करते हुए ही कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद करना श्रेष्ठ है । कारण कि कामना, वासना, फलासक्ति, पक्षपात आदि ही कर्मोंसे
सम्बन्ध जोड़ देते हैं, चाहे मनुष्य कर्म करे अथवा न करे ।
कामना आदिके त्यागका उद्देश्य रखकर कर्मयोगका आचरण करनेसे कामना आदिका त्याग बड़ी सुगमतासे
हो जाता है । ‘शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः’‒अर्जुनके मनमें ऐसा भाव उत्पन्न हो
गया था कि अगर कर्म ही न करें तो कर्मोंसे स्वतः सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा । इसलिये भगवान् नाना
प्रकारकी युक्तियोंद्वारा उनको कर्म करनेके लिये प्रेरित करते हैं । उन्हीं युक्तियोंमेंसे
एक इस युक्तिका वर्णन करते हुए भगवान् कहते हैं कि अर्जुन ! तुम्हें कर्म तो करने ही पड़ेंगे । अन्यकी
तो बात ही क्या है, कर्म किये बिना तेरा शरीर-निर्वाह (खाना-पीना आदि) भी असम्भव हो जायगा । जैसे ज्ञानयोगमें विवेकके द्वारा संसारसे
सम्बन्ध-विच्छेद
होता है, ऐसे
ही कर्मयोगमें कर्तव्य-कर्मका ठीक-ठीक अनुष्ठान करनेसे संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । अतः ज्ञानयोगकी
अपेक्षा कर्मयोगको किसी भी प्रकारसे कम नहीं मानना चाहिये । कर्मयोगी शरीरको संसारका
ही मानकर उसको संसारकी ही सेवामें लगा देता है अर्थात् शरीरमें उसका कोई अपनापन नहीं
रहता । वह स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरकी एकता क्रमशः स्थूल, सूक्ष्म और कारण-संसारसे करता है, जबकि ज्ञानयोगी अपनी एकता ब्रह्मसे
करता है । इस प्रकार कर्मयोगी जड-तत्त्वकी एकता करता है और ज्ञानयोगी चेतन-तत्त्वकी एकता करता है । साधन-सम्बन्धी मार्मिक बात अर्जुनकी कर्मोंसे अरुचि है अर्थात्
उनके मनमें कर्म न करनेका आग्रह है । केवल अर्जुनकी ही बात नहीं है, प्रत्युत पारमार्थिक मार्गके अन्य साधक
भी प्रायः इस विषयमें ऐसी ही बड़ी भूल करते हैं । यद्यपि उनकी इच्छा साधन करनेकी रहती
है और साधन करते भी हैं, तथापि वे अपनी मनचाही परिस्थिति, अनुकूलता और सुखबुद्धि भी
साथमें रखते हैं, जो उनके साधनमें महान् बाधक होती है
। जो साधक तत्त्वप्राप्तिमें
सुगमता ढूँढता है और उसे शीघ्र प्राप्त करना चाहता है, वह वास्तवमें सुखका रागी
है, न कि साधनका प्रेमी । जो सुगमतासे तत्त्वप्राप्ति चाहता है, उसे कठिनता सहनी पड़ती है और जो शीघ्रतासे
तत्त्वप्राप्ति चाहता है उसे विलम्ब सहना पड़ता है । कारण कि सुगमता और शीघ्रताकी इच्छा
करनेसे साधककी दृष्टि ‘साधन’ पर न रहकर ‘फल’ पर चली जाती है, जिससे साधनमें उकताहट प्रतीत होती है
और साध्यकी प्राप्तिमें विलम्ब भी होता है । जिसका यह दृढ़
निश्चय या उद्देश्य है कि चाहे जैसे भी हो, मुझे तत्त्वकी प्राप्ति
होनी ही चाहिये, उसकी दृष्टि सुगमता और शीघ्रतापर नहीं
जाती । तत्परताके
साथ कार्यमें लगा हुआ मनस्वी व्यक्ति जब अपने उद्देश्यकी पूर्तिके लिये कमर कसकर लग
जाता है, तब
वह सुख और दुःखकी ओर नहीं देखता‒‘मनस्वी कार्यार्थी न गणयति
दुःखं न च सुखम्’ (भर्तृहरिनीतिशतक) । साधककी तो बात ही क्या है, एक साधारण लोभी मनुष्य भी दुःखकी ओर
नहीं देखता । प्रायः देखा जाता है कि पसीना आ रहा है, भूख-प्यास लगी है अथवा शौच जानेकी आवश्यकता
जान पड़ती है, फिर
भी यदि मालकी विशेष बिक्री हो रही है तथा पैसे आ रहे हैं तो वह लोभी व्यापारी सब कष्ट
सह लेता है । ठीक लोभी व्यक्तिकी तरह साधककी साध्यमें निष्ठा होनी चाहिये । उसे साध्यकी
प्राप्तिके बिना चैनसे न रहा जाय, जीवन भारस्वरूप प्रतीत होने लगे, खाना-पीना, आराम आदि कुछ भी अच्छा न लगे और हृदयमें
साधनका आदर और तत्परता रहे ! साध्यको प्राप्त करनेकी उत्कण्ठा होनेपर देरी तो असह्य
होती है, पर
वह जल्दी प्राप्त हो जाय‒यह इच्छा नहीं होती । उत्कण्ठा दूसरी बात है एवं शीघ्र मिलनेकी
इच्छा दूसरी बात । आसक्तिपूर्वक साधन करनेवाला साधक साधनमें सुखभोग करता है और उसमें
विलम्ब या बाधा लगनेसे उसे क्रोध आता है एवं वह साधनमें दोषदृष्टि करता है । परन्तु
आदर और प्रेमपूर्वक साधन करनेवाला साधक साधनमें विलम्ब या
बाधा लगनेपर आर्तभावसे रोने लगता है और उसकी उत्कण्ठा और तेजीसे बढ़ती है । यही
शीघ्रता और उत्कण्ठामें अन्तर है । शीघ्रतामें साधकका सुख-सुविधाका भाव रहता है कि तत्त्वप्राप्ति
शीघ्र हो जाय तो पीछे आराम करेंगे ! इस प्रकार फलकी ओर दृष्टि रहनेसे साधनका आदर कम हो जाता
है । परन्तु उत्कण्ठामें साधक अपने साधनमें ही आराम मानता
है कि साधनके सिवाय और करना ही क्या है ? इससे बढ़िया और काम ही क्या
है जिसे करें ? अतः यही काम (साधन) करना है, चाहे सुगमतासे हो या कठिनतासे, शीघ्रतासे हो या देरीसे
। इसलिये उसकी पूरी शक्ति साधनमें लग जाती है, जिससे उसको शीघ्रतासे तत्त्वप्राप्ति
हो जाती है । परन्तु शीघ्रतासे सिद्धि चाहनेवाला साधक साध्यकी प्राप्तिमें देरी होनेपर निराश
भी हो सकता है । अतः साधकको साध्यसे भी अधिक आदर साधनको देना चाहिये, जैसा कि माता पार्वतीने कहा है‒ जन्म कोटि लगि रगर हमारी
। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी ॥ तजउँ न नारद कर उपदेसू । आपु कहहिं सत
बार महेसू ॥ (मानस १ । ८१ । ३) माता पार्वतीके भावोंमें शीघ्रता नहीं
है । इनमें तो साधनको साध्यसे भी अधिक आदर दिया गया है । प्रस्तुत श्लोकमें भगवान् अर्जुनको निमित्त बनाकर साधकोंको सावधान करते हैं कि उन्हें
अपनी अनुकूलता तथा सुखबुद्धि (जो कि साधनमें मूल बाधा
है)-का त्याग करके कर्तव्य-कर्मोंको करनेमें बड़ी तत्परतासे
लग जाना चाहिये ।
परिशिष्ट भाव‒निष्कामभावसे कर्म करनेवाला कर्मयोगी
केवल स्वरूपसे कर्मोंका त्याग करनेवालोंसे अथवा सकामभावसे कर्म करनेवालोंसे ही श्रेष्ठ
नहीं है, प्रत्युत
ज्ञानयोगीसे भी श्रेष्ठ है‒‘तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्
कर्मयोगो विशिष्यते’ (गीता ५ । २) । इसलिये भगवान् प्रस्तुत प्रकरणमें
निष्कामभावसे कर्म करनेपर विशेष जोर दे रहे हैं । രരരരരരരരരര |