Listen सम्बन्ध‒चौथे श्लोकमें भगवान्ने कर्मयोग और
सांख्ययोग‒दोनोंकी
दृष्टिसे कर्मोंका त्याग अनावश्यक बताया । फिर पाँचवें श्लोकमें कहा कि कोई भी मनुष्य
किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता । छठे श्लोकमें हठपूर्वक
इन्द्रियोंकी क्रियाओंको रोककर अपनेको क्रियारहित मान लेनेवालेका आचरण मिथ्या बताया
। इससे सिद्ध हुआ कि कर्मोंका स्वरूपसे त्याग कर देनेमात्रसे उनका वास्तविक त्याग नहीं
होता । अतः आगेके श्लोकमें भगवान् वास्तविक त्यागकी पहचान बताते है । सूक्ष्म विषय‒इन्द्रियोंसे अनासक्तभावपूर्वक
कर्तव्य-कर्म करनेवालेकी प्रशंसा । यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन । कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते
॥ ७ ॥
व्याख्या‒‘तु’ यहाँ अनासक्त होकर कर्म करनेवालेको
मिथ्याचारीकी अपेक्षा ही नहीं, प्रत्युत सांख्ययोगीकी अपेक्षा भी श्रेष्ठ बतानेकी दृष्टिसे
‘तु’ पद दिया गया है । ‘अर्जुन’‒‘अर्जुन’ शब्दका अर्थ होता है‒स्वच्छ । यहाँ भगवान्ने ‘अर्जुन’ सम्बोधनका प्रयोग करके यह भाव दिखलाया
है कि तुम निर्मल अन्तःकरणसे युक्त हो; अतः तुम्हारे अन्तःकरणमें कर्तव्यकर्मविषयक यह सन्देह
कैसे ? अर्थात्
यह सन्देह तुम्हारेमें स्थिर नहीं रह सकता । ‘यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्य’‒यहाँ ‘मनसा’ पद सम्पूर्ण अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार)-का वाचक है और ‘इन्द्रियाणि’ पद छठे श्लोकमें आये ‘कर्मेन्द्रियाणि’ पदकी तरह ही दसों इन्द्रियोंका वाचक
है । मनसे इन्द्रियोंको वशमें
करनेका तात्पर्य है कि विवेकवती बुद्धिके द्वारा ‘मन और इन्द्रियोंसे स्वयंका
कोई सम्बन्ध नहीं है’‒ऐसा अनुभव करना । मनसे इन्द्रियोंका नियमन करनेपर इन्द्रियोंका
अपना स्वतन्त्र आग्रह नहीं रहता अर्थात् उनको जहाँ लगाना चाहें, वहीं वे लग जाती हैं और जहाँसे उनको
हटाना चाहें, वहाँसे
वे हट जाती हैं । इन्द्रियाँ वशमें तभी होती हैं, जब इनके साथ ममता (मेरा-पन)-का सर्वथा अभाव हो जाता है । बारहवें
अध्यायके ग्यारहवें श्लोकमें भी कर्मयोगीके लिये इन्द्रियोंको वशमें करनेकी बात आयी
है‒‘सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्
।’ तात्पर्य
यह है कि वशमें की हुई इन्द्रियोंके द्वारा ही कर्मयोगका आचरण होता है । पीछेके (छठें) श्लोकमें भगवान्ने
‘संयम्य’ पदसे मिथ्याचारके विषयमें इन्द्रियोंको हठपूर्वक रोकनेकी
बात कही थी; किन्तु
यहाँ ‘नियम्य’ पदसे शास्त्र-मर्यादाके अनुसार इन्द्रियोंका नियमन
करने (निषिद्धसे
हटाकर उन्हें शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्ममें लगाने)-की बात कही है । नियमन करनेपर इन्द्रियोंका
संयम स्वतः हो जाता है । ‘असक्तः’‒आसक्ति दो जगह होती है‒(१) कर्मोंमें और (२) उनके फलोंमें । समस्त दोष आसक्तिमें ही रहते हैं, कर्मों तथा उनके फलोंमें
नहीं । आसक्ति
रहते हुए योग सिद्ध नहीं हो सकता । आसक्तिका त्याग करनेपर ही योग सिद्ध होता है । अतः
साधकको कर्मोंका त्याग न करके उनमें आसक्तिका ही त्याग करना चाहिये । आसक्तिरहित होकर सावधानी एवं तत्परतापूर्वक कर्तव्य-कर्मका आचरण किये बिना कर्मोंसे
सम्बन्ध-विच्छेद नहीं हो सकता । साधक आसक्तिरहित तभी हो सकता है, जब
वह शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको ‘मेरी’ अथवा ‘मेरे लिये’ न मानकर केवल संसारका और संसारके लिये
ही मानकर संसारके हितके लिये तत्परतापूर्वक कर्तव्य-कर्मका आचरण करनेमें लग जाय । जब वह
अपने लिये कोई कर्म न करके केवल दूसरोंके हितके लिये सम्पूर्ण कर्म करता है, तब उसकी अपनी फलासक्ति स्वतः मिट जाती
है । कर्मेन्द्रियोंसे होनेवाली साधारण क्रियाओंसे
लेकर चिन्तन तथा समाधितककी समस्त क्रियाओंका हमारे स्वरूपके साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं
है
(गीता‒पाँचवें अध्यायका ग्यारहवाँ श्लोक) । परन्तु स्वरूपसे अनासक्त होते हुए
भी यह जीवात्मा स्वयं आसक्ति करके संसारसे अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है । कर्मयोगीकी वास्तविक महिमा
आसक्तिरहित होनेमें ही है । कर्मोंसे प्राप्त होनेवाले किसी भी फलको न चाहना अर्थात्
उससे सर्वथा असंग हो जाना ही आसक्तिरहित होना है । साधारण मनुष्य तो अपनी कामनाकी सिद्धिके
लिये ही किसी कार्यमें प्रवृत्त होता है; परन्तु साधक आसक्तिके त्यागका उद्देश्य लेकर ही किसी
कार्यमें प्रवृत्त होता है । ऐसे साधकको ही यहाँ ‘असक्तः’ कहा गया है । जब ज्ञानयोगी और कर्मयोगी‒दोनों ही फलेच्छा और आसक्तिका त्याग
करते हैं, तब
ज्ञानयोगकी अपेक्षा कर्मयोग अधिक सुगम सिद्ध होता है । कारण कि कर्मयोगीको फिर किसी
अन्य साधनकी आवश्यकता नहीं रहती, जबकि ज्ञानयोगीको देहाभिमान और क्रिया-पदार्थकी आसक्ति
मिटानेके लिये कर्मयोग (निष्कामभावसे कर्म करने)-की आवश्यकता रहती है (पाँचवें अध्यायका छठा और पन्द्रहवें
अध्यायका ग्यारहवाँ श्लोक) । कर्मयोगमें आसक्तिका त्याग मुख्य
है,
जिससे कर्मयोगीको समबुद्धिकी प्राप्ति
हो जाती है । इसलिये भगवान् कहते हैं कि कर्मोंका त्याग करनेकी
आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत आसक्तिरहित होकर
कर्म करनेकी ही आवश्यकता है । कर्मोंका त्याग करना चाहिये या नहीं‒यह देखना वस्तुतः गीताका सिद्धान्त
ही नहीं है । गीताके अनुसार कर्मोंमें आसक्ति ही (दोष होनेके कारण) त्याज्य है । कर्मयोगमें ‘कर्म’ सदा दूसरोंके हितके लिये होता है और ‘योग’ अपने लिये होता है । अर्जुन कर्मको ‘अपने लिये’ मानते हैं, इसीलिये उन्हें युद्धरूप कर्तव्य-कर्म
घोर दीख रहा है । इसपर भगवान् यह स्पष्ट करते हैं कि आसक्ति ही घोर होती है, कर्म नहीं । ‘कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगम्
आरभते’‒जैसे इसी श्लोकके प्रथम चरणमें ‘इन्द्रियाणि’ पदका तात्पर्य दसों इन्द्रियोंसे है
ऐसे ही यहाँ ‘कर्मेन्द्रियैः’ पदको दसों इन्द्रियोंका वाचक समझना
चाहिये । अगर ‘कर्मेन्द्रियैः’ पदसे हाथ, पैर, वाणी आदिको ही लिया जाय, तो देखे-सुने तथा मनसे विचार किये बिना
कर्म कैसे होंगे ? अतः यहाँ सभी करणों अर्थात् अन्तःकरण और बहिःकरणको भी
कर्मेन्द्रियाँ माना गया है; क्योंकि इन सबसे कर्म होते हैं । जब कर्म अपने लिये न करके
दूसरोंके हितके लिये किया जाता है, तब वह कर्मयोग कहलाता है
। अपने लिये कर्म करनेसे अपना सम्बन्ध कर्म तथा कर्मफलके साथ हो जाता है और अपने लिये
कर्म न करके दूसरोंके लिये कर्म करनेसे कर्म तथा कर्मफलका सम्बन्ध दूसरोंके साथ तथा
परमात्माका सम्बन्ध अपने साथ हो जाता है, जो कि सदासे है । इस प्रकार देश, काल, परिस्थिति आदिके अनुसार प्राप्त कर्तव्य-कर्मको निःस्वार्थभावसे करना कर्मयोगका
आरम्भ है । कर्मयोगी साधक दो तरहके होते हैं‒ (१) जिसके भीतर कर्म करनेका वेग, आसक्ति, रुचि तो है, पर अपना कल्याण करनेकी इच्छा मुख्य
है,
ऐसे साधकके लिये नये-नये कर्म आरम्भ करनेकी जरूरत नहीं है
। उसके लिये केवल प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करनेकी ही जरूरत है । (२) जिसके भीतर अपना कल्याण करनेकी इच्छा
मुख्य नहीं है और संसारकी सेवा करनेमें, उसे सुख पहुँचानेमें तथा समाजका सुधार करनेमें अधिक रुचि
है,
जिससे उसके मनमें आता है कि अमुक-अमुक काम किये जायँ तो बहुतोंकी सेवा
हो सकती है, समाजका
सुधार हो सकता है, आदि । ऐसा साधक अगर नये-नये कर्मोंका आरम्भ कर भी दे, तो कोई हर्ज नहीं है । हाँ, नये कर्मोंका आरम्भ केवल कर्म करनेकी
आसक्ति मिटानेके लिये ही किया जाना चाहिये । गीतामें भगवान्ने अर्जुनके लिये प्राप्त
परिस्थितिका सदुपयोग करनेके लिये ही कहा है; क्योंकि अर्जुनमें अपने कल्याणकी इच्छा
मुख्य थी (गीता‒दूसरे अध्यायका सातवाँ, तीसरे अध्यायका दूसरा और पाँचवें अध्यायका
पहला श्लोक) । ‘स विशिष्यते’‒जो अपने स्वार्थका, फलकी आसक्तिका त्याग करके मात्र प्राणियोंके
हितके लिये कर्म करता है, वह श्रेष्ठ है । कारण कि उसकी मात्र क्रियाओंका प्रवाह
संसारकी तरफ हो जानेसे उसमें स्वतः असंगता आ जाती है । साधकका जब अपना कल्याण करनेका विचार
होता है, तब
वह कर्मोंको साधनमें विघ्न समझकर उनसे उपराम होना चाहता है । परन्तु वास्तवमें कर्म करना दोषी नहीं है, प्रत्युत कर्मोंमें सकामभाव
ही दोषी है । अतः भगवान् कहते हैं कि बाहरसे इन्द्रियोंका संयम करके भीतरसे विषयोंका चिन्तन
करनेवाले मिथ्याचारी पुरुषकी अपेक्षा आसक्तिरहित होकर दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेवाला
श्रेष्ठ है । वास्तवमें मिथ्याचारी पुरुषकी अपेक्षा स्वर्गादिकी प्राप्तिके लिये
सकामभावपूर्वक कर्म करनेवाला भी श्रेष्ठ है, फिर दूसरोंके कल्याणके लिये निष्कामभावपूर्वक
कर्म करनेवाला कर्मयोगी श्रेष्ठ है‒इसमें तो कहना ही क्या है ! पाँचवें अध्यायमें जब अर्जुनने प्रश्न
किया कि संन्यास और योग‒दोनोंमें कौन श्रेष्ठ है, तब भगवान्ने उत्तरमें दोनोंको ही कल्याण
करनेवाला बताकर कर्मसंन्यासकी अपेक्षा कर्मयोगको श्रेष्ठ कहा । यहाँ भी इसी आशयसे
स्वार्थभावका त्याग करके दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेवाले कर्मयोगीको श्रेष्ठ बताया
गया है । परिशिष्ट भाव‒अपनेमें कल्याणकी इच्छा
हो, स्वभावमें उदारता हो और हृदयमें करुणा हो अर्थात् दूसरेके सुखसे सुखी (प्रसन्न) और दुःखसे दुःखी (करुणित)
हो जाय‒ये तीन बातें होनेपर मनुष्य कर्मयोगका अधिकारी हो जाता
है । कर्मयोगका
अधिकारी होनेपर कर्मयोग सुगमतासे होने लगता है । कर्मयोगमें एक विभाग ‘कर्म’ (कर्तव्य) का है और एक विभाग ‘योग’ का है । प्राप्त
वस्तु, सामर्थ्य और योग्यताका सदुपयोग करना और व्यक्तियोंकी सेवा करना‒यह कर्तव्य है । कर्तव्यका
पालन करनेसे संसारसे माने हुए संयोगका वियोग हो जाता है‒यह योग है । कर्तव्यका सम्बन्ध
संसारके साथ है और योगका सम्बन्ध परमात्माके साथ है ।
गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒फलेच्छा और आसक्तिका
त्याग करके दूसरोंके लिये कर्म करनेवाला कर्मयोगी ज्ञानयोगीसे भी श्रेष्ठ है । आगे
पाँचवें अध्यायमें भी भगवान् कर्मयोगको ज्ञानयोगसे श्रेष्ठ बतायेंगे (गीता ५ । २)
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