।। श्रीहरिः ।।

  


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अधिक श्रावण शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०८०, मंगलवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धपीछेके श्‍लोकमें यह कहा गया है कि कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता । इसपर यह शंका हो सकती है कि मनुष्य इन्द्रियोंकी क्रियाओंको हठपूर्वक रोककर भी तो अपनेको अक्रिय मान सकता है । इसका समाधान करनेके लिये आगेका श्‍लोक कहते है ।

सूक्ष्म विषयबाहरी क्रियाओंके त्यागको मिथ्याचार बतलाना ।

कर्मेन्द्रियाणि  संयम्य  य आस्ते मनसा स्मरन् ।

      इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्‍चते ॥ ६ ॥

अर्थजो कर्मेन्द्रियों (सम्पूर्ण इन्द्रियों)-को हठपूर्वक रोककर मनसे इन्द्रियोंके विषयोंका चिन्तन करते हुए बैठता है, वह मूढ़ बुद्धिवाला मनुष्य मिथ्याचारी (मिथ्या आचरण करनेवाला) कहा जाता है ।

यः = जो

आस्ते = बैठता है,

कर्मेन्द्रियाणि = कर्मेन्द्रियों (सम्पूर्ण इन्द्रियों) को

सः = वह

संयम्य = (हठपूर्वक) रोककर

विमूढात्मा = मूढ़ बुद्धिवाला मनुष्य

मनसा = मनसे

मिथ्याचारः = मिथ्याचारी (मिथ्या आचरण करनेवाला)

इन्द्रियार्थान् = इन्द्रियोंके विषयोंका

उच्‍यते = कहा जाता है ।

स्मरन् = चिन्तन करते हुए

 

व्याख्याकर्मेन्द्रियाणि संयम्य…....मिथ्याचारः स उच्यतेयहाँ कर्मेन्द्रियाणि पदका अभिप्राय पाँच कर्मेन्द्रियों (वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा)-से ही नहीं है, प्रत्युत इनके साथ पाँच ज्ञानेन्द्रियों (श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण)-से भी है; क्योंकि ज्ञानेन्द्रियोंके बिना केवल कर्मेन्द्रियोंसे कर्म नहीं हो सकते । इसके सिवाय केवल हाथ, पैर आदि कर्मेन्द्रियोंको रोकनेसे तथा आँख, कान आदि ज्ञानेन्द्रियोंको न रोकनेसे पूरा मिथ्याचार भी सिद्ध नहीं होता ।

गीतामें कर्मेन्द्रियोंके अन्तर्गत ही ज्ञानेन्द्रियाँ मानी गयी हैं । इसलिये गीतामेंकर्मेन्द्रियशब्द तो आता है, परज्ञानेन्द्रियशब्द कहीं नहीं आता । पाँचवें अध्यायके आठवें-नवें श्‍लोकोंमें देखना, सुनना, स्पर्श करना आदि ज्ञानेन्द्रियोंकी क्रियाओंको भी कर्मेन्द्रियोंकी क्रियाओंके साथ सम्मिलित किया गया है, जिससे सिद्ध होता है कि गीता ज्ञानेन्द्रियोंको भी कर्मेन्द्रियाँ ही मानती है । गीता मनकी क्रियाओंको भी कर्म मानती हैशरीरवाङ्‍मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः’ (१८ । १५) तात्पर्य यह है कि मात्र प्रकृति क्रियाशील होनेसे प्रकृतिका कार्यमात्र क्रियाशील है ।

यद्यपि संयम्य पदका अर्थ होता हैइन्द्रियोंका अच्छी तरहसे नियमन अर्थात् उन्हें वशमें करना, तथापि यहाँ इस पदका अर्थ इन्द्रियोंको वशमें करना न होकर उन्हें हठपूर्वक बाहरसे रोकना ही है । कारण कि इन्द्रियोंके वशमें होनेपर उसे मिथ्याचार कहना नहीं बनता ।

मूढ़ बुद्धिवाला (सत्-असत्‌के विवेकसे रहित) मनुष्य बाहरसे तो इन्द्रियोंकी क्रियाओंको हठपूर्वक रोक देता है, पर मनसे उन इन्द्रियोंके विषयोंका चिन्तन करता रहता है और ऐसी स्थितिको क्रियारहित मान लेता है । इसलिये वह मिथ्याचारी अर्थात् मिथ्या आचरण करनेवाला कहा जाता है ।

यद्यपि उसने इन्द्रियोंके विषयोंको बाहरसे त्याग दिया है और ऐसा समझता है कि मैं कर्म नहीं करता हूँ तथापि ऐसी अवस्थामें भी वह वस्तुतः कर्मरहित नहीं हुआ है । कारण कि बाहरसे क्रियारहित दीखनेपर भी अहंता, ममता और कामनाके कारण रागपूर्वक विषयचिन्तनके रूपमें विषय-भोगरूप कर्म तो हो ही रहा है ।

सांसारिक भोगोंको बाहरसे भी भोगा जा सकता है और मनसे भी । बाहरसे रागपूर्वक भोगोंको भोगनेसे अन्तःकरणमें भोगोंके जैसे संस्कार पड़ते हैं, वैसे ही संस्कार मनसे भोगोंको भोगनेसे अर्थात् रागपूर्वक भोगोंका चिन्तन करनेसे भी पड़ते हैं । बाहरसे भोगोंका त्याग तो मनुष्य विचारसे, लोक-लिहाजसे और व्यवहारमें गड़बड़ी आनेके भयसे भी कर सकता है, पर मनसे भोग भोगनेमें बाहरसे कोई बाधा नहीं आती । अतः वह मनसे भोगोंको भोगता रहता है और मिथ्या अभियान करता है कि मैं भोगोंका त्यागी हूँ । मनसे भोग भोगनेसे विशेष हानि होती है; क्योंकि इसके सेवनका विशेष अवसर मिलता है । अतः साधकको चाहिये कि जैसे वह बाहरके भोगोंसे अपनेको बचाता है, उनका त्याग करता है, ऐसे ही मनसे भोगोंके चिन्तनका भी विशेष सावधानीसे त्याग करे ।

अर्जुन भी कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करना चाहते हैं और भगवान्‌से पूछते हैं कि आप मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं ? इसके उत्तरमें यहाँ भगवान् कहते हैं कि जो मनुष्य अहंता, ममता, आसक्ति, कामना आदि रखते हुए केवल बाहरसे कर्मोंका त्याग करके अपनेको क्रियारहित मानता है, उसका आचरण मिथ्या है । तात्पर्य यह है कि साधकको कर्मोंका स्वरूपसे त्याग न करके उन्हें कामना-आसक्तिसे रहित होकर तत्परतापूर्वक करते रहना चाहिये ।

परिशिष्‍ट भावसांसारिक भोगोंको बाहरसे भी भोगा जा सकता है और मनसे भी । बाहरसे भोग भोगना और मनसे उनके चिन्तनका रस (सुख) लेनादोनोंमें कोई फर्क नहीं है । बाहरसे रागपूर्वक भोग भोगनेसे जैसा संस्कार पड़ता है, वैसा ही संस्कार मनसे भोग भोगनेसे अर्थात् मनसे भोगोंके चिन्तनमें रस लेनेसे पड़ता है । भोगकी याद आनेपर उसकी यादसे रस लेते हैं तो कई वर्ष बीतनेपर भी वह भोग ज्यों-का-त्यों (ताजा) बना रहता है । अतः भोगके चिन्तनसे भी एक नया भोग बनता है ! इतना ही नहीं, मनसे भोगोंके चिन्तनका सुख लेनेसे विशेष हानि होती है । कारण कि लोक-लिहाजसे, व्यवहारमें गड़बड़ी आनेके भयसे मनुष्य बाहरसे तो भोगोंका त्याग कर सकता है, पर मनसे भोग भोगनेमें बाहरसे कोई बाधा नहीं आती । अतः मनसे भोग भोगनेका विशेष अवसर मिलता है । इसलिये मनसे भोग भोगना साधकके लिये बहुत नुकसान करनेवाली बात है । वास्तवमें मनसे भोगोंका त्याग ही वास्तविक त्याग है (गीतादूसरे अध्यायका चौंसठवाँ श्‍लोक)

गीता-प्रबोधनी व्याख्यादूसरे अध्यायमें भगवान् कह चुके हैं कि विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यका पतन हो जाता है (गीता २ । ६२-६३) । यहाँ लोगोंको दिखानेके लिये बाहरसे स्थिर होकर बैठनेवाले तथा मनसे विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यको मिथ्याचारी कहा गया है ।

वास्तवमें (भोगसुद्धिसे) बाहरसे भोग भोगने और मनसे उनका चिन्तन करनेमें कोई अन्तर नहीं है । दोनोंका अन्तःकरणपर समान प्रभाव पड़ता है । एक दृष्टिसे मनसे भोगोंका चिन्तन करनेसे साधकका विशेष पतन होता है; क्योंकि जिन भोगोंकी प्राप्‍ति नहीं होती या जिन भोगोंको वह लोक-मर्यादासे भोग नहीं पाता अथवा जिन भोगोंको भोगनेमें वह असमर्थ होता है, उनको भी वह मनसे भोग सकता है ।

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