Listen सम्बन्ध‒पीछेके श्लोकमें यह कहा गया है कि
कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता । इसपर यह
शंका हो सकती है कि मनुष्य इन्द्रियोंकी क्रियाओंको हठपूर्वक रोककर भी तो अपनेको अक्रिय
मान सकता है । इसका समाधान करनेके लिये आगेका श्लोक कहते है । सूक्ष्म विषय‒बाहरी क्रियाओंके त्यागको
मिथ्याचार बतलाना । कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य
आस्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्चते
॥ ६ ॥ अर्थ‒जो कर्मेन्द्रियों
(सम्पूर्ण इन्द्रियों)-को हठपूर्वक रोककर मनसे इन्द्रियोंके विषयोंका चिन्तन करते हुए
बैठता है, वह मूढ़ बुद्धिवाला
मनुष्य मिथ्याचारी (मिथ्या आचरण करनेवाला) कहा जाता है ।
व्याख्या‒‘कर्मेन्द्रियाणि संयम्य…....मिथ्याचारः स उच्यते’‒यहाँ ‘कर्मेन्द्रियाणि’ पदका अभिप्राय पाँच कर्मेन्द्रियों (वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा)-से ही नहीं है, प्रत्युत इनके साथ पाँच ज्ञानेन्द्रियों (श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण)-से भी है; क्योंकि ज्ञानेन्द्रियोंके बिना केवल
कर्मेन्द्रियोंसे कर्म नहीं हो सकते । इसके सिवाय केवल हाथ, पैर आदि कर्मेन्द्रियोंको रोकनेसे तथा
आँख,
कान आदि ज्ञानेन्द्रियोंको न रोकनेसे
पूरा मिथ्याचार भी सिद्ध नहीं होता । गीतामें कर्मेन्द्रियोंके अन्तर्गत
ही ज्ञानेन्द्रियाँ मानी गयी हैं । इसलिये गीतामें ‘कर्मेन्द्रिय’ शब्द तो आता है, पर ‘ज्ञानेन्द्रिय’ शब्द कहीं नहीं आता । पाँचवें अध्यायके
आठवें-नवें श्लोकोंमें देखना, सुनना, स्पर्श करना आदि ज्ञानेन्द्रियोंकी क्रियाओंको भी कर्मेन्द्रियोंकी
क्रियाओंके साथ सम्मिलित किया गया है, जिससे सिद्ध होता है कि गीता ज्ञानेन्द्रियोंको भी कर्मेन्द्रियाँ
ही मानती है । गीता मनकी क्रियाओंको भी कर्म मानती है‒‘शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म
प्रारभते नरः’ (१८ । १५) । तात्पर्य यह है कि मात्र प्रकृति क्रियाशील
होनेसे प्रकृतिका कार्यमात्र क्रियाशील है । यद्यपि ‘संयम्य’ पदका अर्थ होता है‒इन्द्रियोंका अच्छी तरहसे नियमन अर्थात्
उन्हें वशमें करना, तथापि यहाँ इस पदका अर्थ इन्द्रियोंको वशमें करना न होकर
उन्हें हठपूर्वक बाहरसे रोकना ही है । कारण कि इन्द्रियोंके वशमें होनेपर उसे मिथ्याचार
कहना नहीं बनता । मूढ़ बुद्धिवाला (सत्-असत्के विवेकसे रहित) मनुष्य बाहरसे तो इन्द्रियोंकी क्रियाओंको
हठपूर्वक रोक देता है, पर मनसे उन इन्द्रियोंके विषयोंका चिन्तन करता रहता है
और ऐसी स्थितिको क्रियारहित मान लेता है । इसलिये वह मिथ्याचारी अर्थात् मिथ्या आचरण
करनेवाला कहा जाता है । यद्यपि उसने इन्द्रियोंके विषयोंको
बाहरसे त्याग दिया है और ऐसा समझता है कि मैं कर्म नहीं करता हूँ तथापि ऐसी अवस्थामें
भी वह वस्तुतः कर्मरहित नहीं हुआ है । कारण कि बाहरसे क्रियारहित दीखनेपर भी अहंता, ममता और कामनाके कारण रागपूर्वक विषयचिन्तनके
रूपमें विषय-भोगरूप
कर्म तो हो ही रहा है । सांसारिक भोगोंको बाहरसे भी भोगा जा
सकता है और मनसे भी । बाहरसे रागपूर्वक भोगोंको भोगनेसे अन्तःकरणमें भोगोंके जैसे संस्कार
पड़ते हैं, वैसे
ही संस्कार मनसे भोगोंको भोगनेसे अर्थात् रागपूर्वक भोगोंका चिन्तन करनेसे भी पड़ते
हैं । बाहरसे भोगोंका त्याग तो मनुष्य विचारसे, लोक-लिहाजसे और व्यवहारमें गड़बड़ी आनेके
भयसे भी कर सकता है, पर मनसे भोग भोगनेमें बाहरसे कोई बाधा नहीं आती । अतः
वह मनसे भोगोंको भोगता रहता है और मिथ्या अभियान करता है कि मैं भोगोंका त्यागी हूँ
। मनसे भोग भोगनेसे विशेष हानि होती है; क्योंकि इसके सेवनका विशेष अवसर मिलता है । अतः साधकको
चाहिये कि जैसे वह बाहरके भोगोंसे अपनेको बचाता है, उनका त्याग करता है, ऐसे ही मनसे
भोगोंके चिन्तनका भी विशेष सावधानीसे त्याग करे । अर्जुन भी कर्मोंका स्वरूपसे त्याग
करना चाहते हैं और भगवान्से पूछते हैं कि आप मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं ? इसके उत्तरमें यहाँ भगवान् कहते हैं
कि जो मनुष्य अहंता, ममता, आसक्ति, कामना आदि रखते हुए केवल बाहरसे कर्मोंका त्याग करके अपनेको
क्रियारहित मानता है, उसका आचरण मिथ्या है । तात्पर्य यह है कि साधकको कर्मोंका स्वरूपसे त्याग न करके उन्हें कामना-आसक्तिसे रहित होकर तत्परतापूर्वक
करते रहना चाहिये । परिशिष्ट भाव‒सांसारिक भोगोंको बाहरसे भी भोगा जा
सकता है और मनसे भी । बाहरसे भोग भोगना और मनसे उनके चिन्तनका रस (सुख) लेना‒दोनोंमें कोई फर्क नहीं है । बाहरसे
रागपूर्वक भोग भोगनेसे जैसा संस्कार पड़ता है, वैसा ही संस्कार मनसे भोग भोगनेसे अर्थात्
मनसे भोगोंके चिन्तनमें रस लेनेसे पड़ता है । भोगकी याद आनेपर
उसकी यादसे रस लेते हैं तो कई वर्ष बीतनेपर भी वह भोग ज्यों-का-त्यों (ताजा) बना रहता है । अतः भोगके
चिन्तनसे भी एक नया भोग बनता है ! इतना ही नहीं, मनसे भोगोंके चिन्तनका सुख
लेनेसे विशेष हानि होती है । कारण कि लोक-लिहाजसे, व्यवहारमें गड़बड़ी आनेके
भयसे मनुष्य बाहरसे तो भोगोंका त्याग कर सकता है, पर मनसे भोग भोगनेमें बाहरसे
कोई बाधा नहीं आती । अतः मनसे भोग भोगनेका विशेष अवसर मिलता है । इसलिये मनसे भोग भोगना
साधकके लिये बहुत नुकसान करनेवाली बात है । वास्तवमें मनसे भोगोंका त्याग ही वास्तविक
त्याग है (गीता‒दूसरे अध्यायका चौंसठवाँ श्लोक) । गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒दूसरे अध्यायमें भगवान्
कह चुके हैं कि विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यका पतन हो जाता है (गीता २ । ६२-६३)
। यहाँ लोगोंको दिखानेके लिये बाहरसे स्थिर होकर बैठनेवाले तथा मनसे विषयोंका चिन्तन
करनेवाले मनुष्यको मिथ्याचारी कहा गया है ।
वास्तवमें (भोगसुद्धिसे)
बाहरसे भोग भोगने और मनसे उनका चिन्तन करनेमें कोई अन्तर नहीं है । दोनोंका अन्तःकरणपर
समान प्रभाव पड़ता है । एक दृष्टिसे मनसे भोगोंका चिन्तन करनेसे
साधकका विशेष पतन होता है; क्योंकि जिन भोगोंकी प्राप्ति
नहीं होती या जिन भोगोंको वह लोक-मर्यादासे भोग नहीं पाता अथवा जिन भोगोंको भोगनेमें
वह असमर्थ होता है, उनको भी वह मनसे भोग सकता है । രരരരരരരരരര |