Listen सूक्ष्म विषय‒कर्मोंका सर्वथा त्याग असम्भव बतलाना
। न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्
। कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः
प्रकृतिजैर्गुणैः ॥ ५ ॥ अर्थ‒कोई भी मनुष्य किसी
भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि प्रकृतिके
परवश हुए सब प्राणियोंसे प्रकृतिजन्य गुण कर्म करवा लेते हैं ।
व्याख्या‒‘न हि कश्चित् क्षणमपि जातु
तिष्ठत्यकर्मकृत्’‒कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒किसी भी मार्गमें साधक कर्म किये बिना
नहीं रह सकता । यहाँ ‘कश्चित्’, ‘क्षणम्’ और ‘जातु’‒ये तीनों विलक्षण पद हैं । इनमें ‘कश्चित्’ पदका प्रयोग करके भगवान् कहते हैं कि
कोई भी मनुष्य कर्म किये बिना नहीं रहता, चाहे वह ज्ञानी हो या अज्ञानी । यद्यपि ज्ञानीका अपने
कहलानेवाले शरीरके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता, तथापि उसके कहलानेवाले शरीरसे भी हरदम
क्रिया होती रहती है । ‘क्षणम्’ पदका प्रयोग करके भगवान् कहते हैं कि
यद्यपि मनुष्य ‘मैं
हरदम कर्म करता हूँ’ ऐसा नहीं मानता, तथापि जबतक वह शरीरके साथ अपना सम्बन्ध
मानता है, तबतक
वह एक क्षणके लिये भी कर्म किये बिना नहीं रहता । ‘जातु’ पदका प्रयोग करके भगवान् यह कहते हैं
कि जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा आदि किसी भी अवस्थामें मनुष्य कर्म किये बिना
नहीं रह सकता । इसका कारण भगवान् इसी श्लोकके उत्तरार्धमें ‘अवशः’ पदसे बताते हैं कि प्रकृतिके परवश होनेके
कारण उसे कर्म करने ही पड़ते हैं । प्रकृति निरन्तर परिवर्तनशील है । साधकको अपने लिये कुछ नहीं करना है । जो विहित कर्म सामने आ जाय, उसे केवल दूसरोंके हितकी
दृष्टिसे कर देना है । परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य होनेसे साधक निषिद्ध-कर्म तो कर ही नहीं सकता
। बहुत-से मनुष्य केवल स्थूलशरीरकी क्रियाओंको
कर्म मानते हैं, पर
गीता मनकी क्रियाओंको भी कर्म मानती है । गीताने शारीरिक, वाचिक और मानसिक रूपसे की गयी मात्र
क्रियाओंको कर्म माना है‒‘शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म
प्रारभते नरः’ (गीता १८ । १५) । जिन शारीरिक
अथवा मानसिक क्रियाओंके साथ मनुष्य अपना सम्बन्ध मान लेता है, वे ही सब क्रियाएँ ‘कर्म’ बनकर उसे बाँधनेवाली होती
हैं, अन्य क्रियाएँ नहीं । मनुष्योंकी एक ऐसी धारणा बनी हुई है
जिसके अनुसार वे बच्चोंका पालन-पोषण तथा आजीविका‒व्यापार, नौकरी, अध्यापन आदिको ही कर्म मानते हैं और
इनके अतिरिक्त खाना-पीना, सोना, बैठना, चिन्तन करना आदिको कर्म नहीं मानते । इसी कारण कई मनुष्य
व्यापार आदि कर्मोंको छोड़कर ऐसा मान लेते हैं कि मैं कर्म नहीं कर रहा हूँ । परन्तु
यह उनकी भारी भूल है । शरीर-निर्वाह-सम्बन्धी स्थूलशरीरकी क्रियाएँ; नींद, चिन्तन आदि सूक्ष्म-शरीरकी क्रियाएँ और समाधि आदि कारण-शरीरकी क्रियाएँ‒ये सब कर्म ही हैं । जबतक शरीरमें अहंता-ममता है, तबतक शरीरसे होनेवाली मात्र
क्रियाएँ ‘कर्म’ हैं । कारण कि शरीर प्रकृतिका कार्य है और
प्रकृति कभी अक्रिय नहीं होती । अतः शरीरमें अहंता-ममता रहते हुए कोई भी मनुष्य किसी भी
अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता, चाहे वह अवस्था प्रवृत्तिकी हो या निवृत्तिकी
। ‘कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः
प्रकृतिजैर्गुणैः’‒प्रकृतिजन्य गुण (प्रकृतिके) परवश हुए प्राणियोंसे कर्म कराते हैं
। परवश होनेपर प्रकृतिके गुणोंद्वारा कर्म कराये जाते हैं; क्योंकि प्रकृति एवं उसके गुण निरन्तर
क्रियाशील हैं (गीता‒तीसरे अध्यायका सत्ताईसवाँ और तेरहवें
अध्यायका उनतीसवाँ श्लोक) । यद्यपि आत्मा स्वयं अक्रिय, असंग, अविनाशी, निर्विकार तथा निर्लिप्त है, तथापि जबतक वह प्रकृति एवं उसके कार्य‒स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरमें किसी
भी शरीरके साथ अपना सम्बन्ध मानकर उससे सुख चाहता है, तबतक वह प्रकृतिके परवश
रहता है (गीता‒चौदहवें अध्यायका पाँचवाँ श्लोक) । इसी परवशताको यहाँ ‘अवशः’ पदसे कहा गया है । नवें अध्यायके आठवें
श्लोकमें और आठवें अध्यायके उन्नीसवें श्लोकमें भी प्रकृतिके साथ सम्बन्ध माननेसे
परवश हुए जीवके द्वारा कर्म करनेकी बात कही गयी है । स्वभाव बनता है वृत्तियोंसे, वृत्तियाँ बनती हैं गुणोंसे और गुण
पैदा होते हैं प्रकृतिसे । अतः चाहे स्वभावके परवश कहो, चाहे गुणोंके परवश कहो और चाहे प्रकृतिके
परवश कहो, एक
ही बात है । वास्तवमें सबके मूलमें प्रकृतिजन्य पदार्थोंकी परवशता ही है । इसी परवशतासे
सभी परवशताएँ पैदा होती हैं । अतः प्रकृतिजन्य पदार्थोंकी परवशताको ही कहीं कालकी, कहीं स्वभावकी, कहीं कर्मकी और कहीं गुणोंकी परवशता
कह दिया है । तात्पर्य यह है कि यह जीव जबतक प्रकृति और उसके गुणोंसे अतीत नहीं होता, परमात्माकी प्राप्ति नहीं कर लेता, तबतक यह गुण, काल, स्वभाव आदिके अवश (परवश) ही रहता है अर्थात् यह जीव जबतक प्रकृतिके
साथ अपना सम्बन्ध मानता है, प्रकृतिमें स्थित रहता है, तबतक यह कभी गुणोंके, कभी कालके, कभी भोगोंके और कभी स्वभावके परवश होता
रहता है, कभी
स्ववश (स्वतन्त्र) नहीं रहता । इनके सिवाय यह परिस्थिति, व्यक्ति, स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदिके भी परवश होता रहता है ।
परन्तु जब यह गुणोंसे अतीत अपने स्वरूपका अथवा परमात्मतत्त्वका अनुभव कर लेता है, तो फिर इसकी यह परवशता नहीं रहती और
यह स्वतःसिद्ध स्वतन्त्रताको प्राप्त हो जाता है । विशेष बात प्रकृतिकी सक्रिय (स्थूल) और अक्रिय (सूक्ष्म) दो अवस्थाएँ होती हैं; जैसे कार्य करना सक्रिय अवस्था है और
कार्य न करना (निद्रा
आदि)
अक्रिय अवस्था । वास्तवमें अक्रिय अवस्थामें
भी प्रकृति अक्रिय नहीं रहती, प्रत्युत उसमें सूक्ष्मरूपसे सक्रियता रहती है । जैसे
किसी सोये हुए मनुष्यको जागनेके समयसे पूर्व ही जगा देनेपर वह कहता है कि मुझे कच्ची
नींदमें जगा दिया । इससे यह सिद्ध हुआ कि नींदकी अक्रिय अवस्थामें भी नींदके पकनेकी
क्रिया हो रही थी । जब पूरी नींद लेनेके बाद मनुष्य जागता है, तब उपर्युक्त बात नहीं कहता; क्योंकि नींदका पकना पूर्ण हो गया ।
इसी प्रकार समाधि, प्रलय, महाप्रलय आदिकी अवस्थाओंमें भी सूक्ष्मरूपसे क्रिया होती
रहती है । वास्तवमें देखा जाय तो प्रकृतिकी कभी
अक्रिय अवस्था होती ही नहीं; क्योंकि वह प्रतिक्षण बदलनेवाली है । स्वयं आत्मामें कर्तापन
नहीं है; परन्तु
प्रकृतिके कार्य शरीरादिके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे वह प्रकृतिके परवश हो जाता है
। इसी परवशताके कारण स्वयं अकर्ता होते हुए भी वह अपनेको कर्ता मानता रहता है । वस्तुतः
आत्मामें कोई भी परिवर्तनरूप क्रिया नहीं होती । जैसे प्रकृतिद्वारा समस्त सृष्टिकी
क्रियाएँ स्वाभाविकरूपसे हो रही हैं, ऐसे ही उसके द्वारा बालकपन, जवानी आदि अवस्थाएँ और भोजनका पाचन, श्वासोंका आवागमन आदि क्रियाएँ एवं
इसी प्रकार देखना, सुनना आदि क्रियाएँ भी स्वाभाविकरूपसे हो रही हैं । परन्तु
जीवात्मा कुछ क्रियाओंमें अपनेको कर्ता मानकर बँध जाता है । प्रकृति निरन्तर परिवर्तनशील है, पर शुद्ध स्वरूपमें कभी कोई परिवर्तन
नहीं होता । वास्तवमें प्राकृतिक पदार्थोंकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । प्रतिक्षण
बदलते हुए पुंजका नाम ही पदार्थ है । पदार्थोंके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे कोई भी मनुष्य
किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता । अगर साधक ऐसा वास्तविक अनुभव कर ले कि सम्पूर्ण क्रियाएँ पदार्थोंमें
ही हो रही हैं और पदार्थोंके साथ मेरा किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है तो वह परवशतासे
मुक्त हो सकता है । कर्मयोगी प्रतिक्षण परिवर्तनशील पदार्थोंकी कामना, ममता और आसक्तिका त्याग
करके इस परवशताको मिटा देता है । भगवान्ने इस श्लोकमें जो बात कही
है,
वही बात उन्होंने अठारहवें अध्यायके
ग्यारहवें श्लोकमें भी कही है कि प्रकृतिसे अपना सम्बन्ध मानते हुए कोई भी मनुष्य
कर्मोंका सम्पूर्णतासे त्याग नहीं कर सकता‒‘न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं
कर्माण्यशेषतः ।’ परिशिष्ट भाव‒क्रियामात्र केवल प्रकृतिमें ही होती
है । परन्तु प्रकृतिके साथ अपना तादात्म्य स्वीकार करनेसे मनुष्य प्रकृतिजन्य गुणोंके
अधीन हो जाता है‒‘अवशः’ तथा उसका क्रियाके साथ सम्बन्ध हो जाता
है । इसलिये प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध माननेवाला कोई भी मनुष्य जाग्रत-स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा, समाधि तथा सर्ग-महासर्ग, प्रलय-महाप्रलय आदि किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र
भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता । सुषुप्ति, मूर्च्छा तथा समाधि-अवस्थामें क्रिया
कैसे होती है ? मनुष्य
सोता हो और कोई उसको बीचमें ही जगा दे तो वह कहता है कि मेरेको कच्ची नींदमें जगा
दिया ! इससे
सिद्ध होता है कि सुषुप्तिके समय भी नींदके पकनेकी क्रिया हो रही थी । ऐसे ही मूर्च्छा
और समाधिके समय भी क्रिया होती है । पातंजलयोगदर्शनमें इस क्रियाको ‘परिणाम’ नामसे कहा है१ । ‘परिणाम’ का अर्थ है‒परिवर्तनकी धारा अर्थात् बदलनेका प्रवाह२ । तात्पर्य है कि समाधिके आरम्भसे लेकर व्युत्थान होनेतक
क्रिया होती रहती है । अगर क्रिया न हो तो व्युत्थान हो ही नहीं सकता । समाधिके समय
परिणाम होता है और समाधिके अन्तमें व्युत्थान होता है । १.व्युत्थाननिरोधसंस्कारयोरभिभवप्रादुर्भावौ
निरोधक्षणचित्तान्वयो निरोधपरिणामः ॥ ९ ॥ सर्वार्थतैकाग्रतयोः क्षयोदयौ चित्तस्य समाधिपरिणामः
॥ ११ ॥ ततः पुनः शान्तोदितौ तुल्यप्रत्ययौ चित्तस्यैकाग्रतापरिणामः ॥ १२ ॥ (विभूतिपाद) २.अथ कोऽयं परिणामः ? अवस्थितस्य द्रव्यस्य पूर्वधर्मनिवृत्तौ
धर्मान्तरोत्पत्तिः परिणामः’ (योगदर्शन, विभूति॰ १३ का व्यास-भाष्य) ‘यह परिणाम क्या है ? अवस्थित द्रव्यके पूर्व
धर्मकी निवृत्ति हेकर अन्य धर्मकी उत्पत्ति (अवस्थान्तर) ही परिणाम
है ।’ प्रकृतिकी सम्पूर्ण अवस्थाओंसे अतीत
है‒सहजावस्था अथवा सहज समाधि । सहजावस्था
स्वरूपकी होती है, जिसमें किंचिन्मात्र भी कोई क्रिया नहीं है, क्रिया होनी सम्भव ही नहीं है । अतः
सहजावस्थामें परिणाम तथा व्युत्थान कभी होता ही नहीं । कारण कि क्रियाएँ प्रकृति-विभागमें ही हैं, स्वरूप-विभागमें नहीं । ‘कार्यते ह्यवशः कर्म’‒कर्म करनेमें तो हम परतन्त्र
हैं, पर उनमें राग-द्वेष करनेमें अथवा न करनेमें हम स्वतन्त्र
हैं ।
गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒प्रकृतिका विभाग अलग
है और स्वरूपका विभाग अलग है । क्रियामात्र प्रकृति-विभागमें है । स्वरूप अक्रिय है
। प्रकृतिमें श्रम है और स्वरूपमें विश्राम है । अतः जबतक
प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है, तबतक मनुष्य किसी भी अवस्थामें
क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता । രരരരരരരരരര |