।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०८०, रविवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



Listen



सूक्ष्म विषय‒कर्मोंके त्यागमात्रसे सिद्धिका अभाव ।

न  कर्मणामनारम्भान्‍नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्‍नुते ।

       न  च सन्‍न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥ ४ ॥

अर्थमनुष्य न तो कर्मोंका आरम्भ किये बिना निष्कर्मताका अनुभव करता है और न कर्मोंके त्यागमात्रसे सिद्धिको ही प्राप्‍त होता है ।

पुरुषः = मनुष्य

च = और

न = न तो

न = न

कर्मणाम् = कर्मोंका

सन्‍न्यसनात् = (कर्मोंके) त्यागमात्रसे

अनारम्भात् = आरम्भ किये बिना

सिद्धिम् = सिद्धिको

नैष्कर्म्यम् = निष्कर्मताका

एव = ही

अश्‍नुते = अनुभव करता है

समधिगच्छति = प्राप्‍त होता है ।

व्याख्या‘न कर्मणामनारम्भान्‍नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्‍नुतेकर्मयोगमें कर्म करना अत्यन्त आवश्यक है । कारण कि निष्कामभावसे कर्म करनेपर ही कर्मयोगकी सिद्धि होती है । यह सिद्धि मनुष्यको कर्म किये बिना नहीं मिल सकती ।

१.जो योगपर आरूढ़ होना चाहता है, अपनेमें समता लाना चाहता है, उसके लिये (कर्मयोगकी दृष्‍टिसे) निष्कामभावसे कर्म करना आवश्यक हैआरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्‍यते’ (गीता ६ । ३) अगर वह कर्म करेगा ही नहीं तो उसको यह कैसे पता लगेगा कि मैं सिद्धि-असिद्धिमें सम रहा या विचलित हो गया ?

मनुष्यके अन्तःकरणमें कर्म करनेका जो वेग विद्यमान रहता है, उसे शान्त करनेके लिये कामनाका त्याग करके कर्तव्य-कर्म करना आवश्यक है । कामना रखकर कर्म करनेपर यह वेग मिटता नहीं, प्रत्युत बढ़ता है ।

नैष्कर्म्यम् अश्‍नुते पदोंका आशय है कि कर्मयोगका आचरण करनेवाला मनुष्य कर्मोंको करते हुए ही निष्कर्मताको प्राप्‍त होता है । जिस स्थितिमें मनुष्यके कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् बन्धनकारक नहीं होते, उस स्थितिकोनिष्कर्मताकहते हैं ।

कामनासे रहित होकर किये गये कर्मोंमें फल देनेकी शक्तिका उसी प्रकार सर्वथा अभाव हो जाता है, जिस प्रकार बीजको भूनने या उबालनेपर उसमें पुनः अंकुर देनेकी शक्ति सर्वथा नष्‍ट हो जाती है । अतः निष्काम मनुष्यके कर्मोंमें पुनः जन्म-मरणके चक्रमें घुमानेकी शक्ति नहीं रहती ।

कामनाका त्याग तभी हो सकता है, जब सभी कर्म दूसरोंकी सेवाके लिये किये जायँ, अपने लिये नहीं । कारण कि कर्ममात्रका सम्बन्ध संसारसे है और अपना (स्वरूपका) सम्बन्ध परमात्मासे है । अपने साथ कर्मका सम्बन्ध है ही नहीं । इसलिये जबतक अपने लिये कर्म करेंगे, तबतक कामनाका त्याग नहीं होगा और जबतक कामनाका त्याग नहीं होगा, तबतक निष्कर्मताकी प्राप्‍ति नहीं होगी ।

न च सन्‍न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छतिइस श्‍लोकके पूर्वार्धमें भगवान्‌ने कर्मयोगकी दृष्‍टिसे कहा कि कर्मोंका आरम्भ किये बिना कर्मयोगीको निष्कर्मताकी प्राप्‍ति नहीं होती । अब श्‍लोकके उत्तरार्धमें सांख्ययोगकी दृष्‍टिसे कहते हैं कि केवल कर्मोंका स्वरूपसे त्याग कर देनेसे सांख्ययोगीको सिद्धि अर्थात् निष्कर्मताकी प्राप्‍ति नहीं होती । सिद्धिकी प्राप्‍तिके लिये उसे कर्तापन (अहंता)-का त्याग करना आवश्यक है । अतः सांख्ययोगीके लिये कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करना मुख्य नहीं है, प्रत्युत अहंताका त्याग ही मुख्य है ।

सांख्ययोगमें कर्म किये भी जा सकते हैं और किसी सीमातक कर्मोंका त्याग भी किया जा सकता है; परन्तु कर्मयोगमें सिद्धि-प्राप्‍तिके लिये कर्म करना आवश्यक होता है (गीता ६ । ३)

मार्मिक बात

श्रीमद्भगवद्‌गीता मनुष्यको व्यवहारमें परमार्थ-सिद्धिकी कला सिखाती है । उसका आशय कर्तव्य-कर्म करानेमें है, छुड़ानेमें नहीं । इसलिये भगवान् कर्मयोग और ज्ञानयोगदोनों ही साधनोंमें कर्म करनेकी बात कहते हैं ।

यह एक स्वाभाविक बात है कि जब साधक अपना कल्याण चाहता है, तब वह सांसारिक कर्मोंसे उकताने लगता है और उन्हें छोड़ना चाहता है । इसी कारण अर्जुन भी कर्मोंसे उकताकर भगवान्‌से पूछते हैं कि जब कर्मयोग और ज्ञानयोगदोनों प्रकारके साधनोंका तात्पर्य समतासे है, तो फिर कर्म करनेकी बात आप क्यों कहते हैं ? मुझे युद्ध-जैसे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं ? परन्तु भगवान्‌ने दोनों ही प्रकारके साधनोंमें अर्जुनको कर्म करनेकी आज्ञा दी है; जैसेकर्मयोगमें योगस्थः कुरु कर्माणि’ (गीता २ । ४८) और सांख्ययोगमें तस्माद्युध्यस्व भारत’ (गीता २ । १८) इससे सिद्ध होता है कि भगवान्‌का अभिप्राय कर्मोंको स्वरूपसे छुड़ानेमें नहीं, प्रत्युत कर्म करानेमें है । हाँ, भगवान् कर्मोंमें जो जहरीला अंशकामना, ममता और आसक्ति है, उसका त्याग करके ही कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं ।

कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेकी अपेक्षा साधकको उनसे अपना सम्बध-विच्छेद करना चाहिये । कर्मयोगी निःस्वार्थभावसे कर्म करते हुए शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिको संसारकी वस्तु मानकर संसारकी सेवामें लगाता है और कर्मों तथा पदार्थोंके साथ अपना कोई सम्बन्ध नहीं मानता (गीतापाँचवें अध्यायका ग्यारहवाँ श्‍लोक) । ज्ञानयोगमें सत्-असत्के विवेककी प्रधानता रहती है । अतएव ज्ञानयोगी ऐसा मानता है कि गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं अर्थात् शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिसे ही कर्म हो रहे हैं । मेरा कर्मोंके साथ किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है (गीतातीसरे अध्यायका अट्ठाईसवाँ और पाँचवें अध्यायका आठवाँ-नवाँ श्‍लोक)

प्रायः सभी साधकोंके अनुभवकी बात है कि कल्याणकी उत्कट अभिलाषा जाग्रत् होते ही कर्म, पदार्थ और व्यक्ति (परिवार)-से उनकी अरुचि होने लगती है । परन्तु वास्तवमें देहके साथ घनिष्‍ठ सम्बन्ध होनेसे यह आराम-विश्रामकी इच्छा ही है, जो साधककी उन्‍नतिमें बाधक है । साधकोंके मनमें ऐसा भाव रहता है कि कर्म, पदार्थ और व्यक्तिका स्वरूपसे त्याग करनेपर ही हम परमार्थमार्गमें आगे बढ़ सकते हैं । परन्तु वास्तवमें इनका स्वरूपसे त्याग न करके इनमें आसक्तिका त्याग करना ही आवश्यक है । सांख्ययोगमें उत्कट वैराग्यके बिना आसक्तिका त्याग करना कठिन होता है । परन्तु कर्मयोगमें वैराग्यकी कमी होनेपर भी केवल दूसरोंके लिये कर्म करनेसे आसक्तिका त्याग सुगमतापूर्वक हो जाता है ।

गीताने एकान्तमें रहकर साधन करनेका भी आदर किया है; परन्तु एकान्तमें सात्त्विक पुरुष तो साधन-भजनमें अपना समय बिताता है, पर राजस पुरुष संकल्प-विकल्पमें, तामस पुरुष निद्रा-आलस्य-प्रमादमें अपना समय बिताता है, जो पतन करनेवाला है । इसलिये साधककी रुचि तो एकान्तकी ही रहनी चाहिये अर्थात् सांसारिक कर्मोंका त्याग करके पारमार्थिक कार्य करनेमें ही उसकी प्रवृत्ति रहनी चाहिये, परन्तु कर्तव्यरूपसे जो कर्म सामने आ जाय, उसको वह तत्परतापूर्वक करे । उस कर्ममें उसका राग नहीं होना चाहिये । राग न तो जन-समुदायमें होना चाहिये और न अकर्मण्यतामें ही । कहीं भी राग न रहनेसे साधकका बहुत जल्दी कल्याण हो जाता है । वास्तवमें शरीरको एकान्तमें ले जानेको ही एकान्त मान लेना भूल है; क्योंकि शरीर संसारका ही एक अंश है । अतः शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद होना अर्थात् उसमें अहंता-ममता न रहना ही वास्तविक एकान्त है ।

परिशिष्‍ट भावजो अपना है, अपनेमें है और अभी है, उस तत्त्वकी प्राप्‍ति कुछ करनेसे नहीं होती; क्योंकि उसकी अप्राप्‍ति कभी होती ही नहीं । हम कुछ करेंगे, तब प्राप्‍ति होगीयह भाव देहाभिमानको पुष्‍ट करनेवाला है । प्रत्येक क्रियाका आरम्भ और अन्त होता है; अतः क्रिया करनेसे उसकी प्राप्‍ति होगी, जो विद्यमान नहीं है । परन्तु प्रकृतिके साथ सम्बन्ध होनेके कारण प्रत्येक प्राणीमें क्रियाका वेग रहता है, जो उसको क्रियारहित नहीं होने देता । क्रियाका वेग शान्त करनेके लिये यह आवश्यक है कि जो नहीं करना चाहिये, उसको न करें और जो करना चाहिये, उसको निर्मम तथा निष्काम होकर करें अर्थात् अपने लिये कुछ न करें, प्रत्युत केवल दूसरेके हितके लिये ही करें । अपने लिये करनेसे क्रियाका वेग कभी समाप्‍त नहीं होगा; क्योंकि अपना स्वरूप नित्य है और कर्म अनित्य हैं । अतः निष्कामभावसे दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे क्रियाका वेग शान्त होकर प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा और सब देश, काल आदिमें विद्यमान परमात्मतत्त्व प्रकट हो जायगा, उसका अनुभव हो जायगा ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒जबतक साधकमें क्रियाका वेग रहता है, तबतक साधकके लिये निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरोंके लिये कर्म करने आवश्यक हैं । दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे क्रियाका वेग शान्त हो जाता है और सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् बाँधनेवाले नहीं रहते । केवल कर्मोंका स्वरूपमे त्याग करनेपर क्रियाका वेग शान्त नहीं होता । क्रियाका वेग शान्त हुए बिना प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होता । प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद हुए बिना सिद्धिकी प्राप्‍ति नहीं होती ।

രരരരരരരരരര