Listen सम्बन्ध‒पीछेके दो श्लोकोंमें वर्णित महापुरुषकी
स्थितिको प्राप्त करनेके लिये साधकको क्या करना चाहिये‒इसपर भगवान् आगेके श्लोकमें
साधन बताते हैं । सूक्ष्म विषय‒अनासक्तभावसे कर्म करनेकी आज्ञा
और उसका फल । तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म
समाचर । असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥ १९
॥ अर्थ‒इसलिये तू निरन्तर आसक्तिरहित होकर
कर्तव्य-कर्मका भलीभाँति आचरण कर; क्योंकि आसक्ति रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्माको प्राप्त हो जाता है
।
व्याख्या‒‘तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर’‒पूर्वश्लोकोंसे इस श्लोकका सम्बन्ध बतानेके लिये यहाँ ‘तस्मात्’ पद आया है । पूर्वश्लोकोंमें भगवान्ने कहा कि अपने लिये
कर्म करनेकी कोई आवश्यकता न रहनेपर भी सिद्ध महापुरुषके द्वारा लोक-संग्रहार्थ क्रियाएँ
हुआ करती हैं । इसलिये अर्जुनको भी उसी तरह (निष्काम-भावसे) कर्तव्य-कर्म करते हुए
परमात्माको प्राप्त करनेकी आज्ञा देनेके लिये भगवान्ने ‘तस्मात्’ पदका प्रयोग किया है । कारण कि अपने स्वरूप‒‘स्व’ के लिये कर्म करने और न करनेसे कोई प्रयोजन नहीं है ।
कर्म सदैव ‘पर’ (दूसरों) के लिये होता है, ‘स्व’ के लिये नहीं । अतः दूसरोंके लिये कर्म करनेसे कर्म करनेका
राग मिट जाता है और स्वरूपमें स्थिति हो जाती है । अपने स्वरूपसे विजातीय (जड) पदार्थोंके
प्रति आकर्षणको ‘आसक्ति’ कहते हैं । आसक्तिरहित होनेके लिये आसक्तिके कारणको जानना
आवश्यक है । ‘मैं शरीर हूँ’ और ‘शरीर मेरा है’‒ऐसा माननेसे शरीरादि नाशवान् पदार्थोंका महत्त्व अन्तःकरणमें
अंकित हो जाता है । इसी कारण उन पदार्थोंमें आसक्ति हो जाती है । आसक्ति ही पतन करनेवाली
है, कर्म नहीं । आसक्तिके कारण ही मनुष्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि जड पदार्थोंसे अपना सम्बन्ध
मानकर अपने आराम, सुख-भोगके लिये तरह-तरहके कर्म करता
है । इस प्रकार जडतासे आसक्तिपूर्वक माना हुआ सम्बन्ध ही मनुष्यके बारम्बार जन्म-मरणका
कारण होता है‒‘कारणं
गुणसङ्गोऽस्य
सदसद्योनिजन्मसु’
(गीता १३ । २१) । आसक्तिरहित होकर कर्म करनेसे जडतासे
सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । आसक्तिवाला मनुष्य दूसरोंका हित नहीं
कर सकता, जबकि आसक्तिरहित मनुष्यसे स्वतः-स्वाभाविक
प्राणिमात्रका हित होता है । उसके सभी कर्म केवल दूसरोंके हितार्थ होते हैं । संसारसे प्राप्त सामग्री (शरीरादि)-से
हमने अभीतक अपने लिये ही कर्म किये हैं । उसको अपने ही सुखभोग और संग्रहमें लगाया है
। इसलिये संसारका हमारेपर ऋण है, जिसे उतारनेके लिये केवल संसारके हितके लिये कर्म करना आवश्यक है । अपने लिये
(फलकी कामना रखकर) कर्म करनेसे पुराना ऋण तो समाप्त होता नहीं, नया ऋण और उत्पन्न हो जाता है । ऋणसे मुक्त होनेके लिये
बार-बार संसारमें आना पड़ता है । केवल दूसरोंके हितके लिये
सब कर्म करनेसे पुराना ऋण समाप्त हो जाता है और अपने लिये कुछ न करने तथा कुछ न चाहनेसे
नया ऋण उत्पन्न नहीं होता । इस तरह जब पुराना ऋण समाप्त हो जाता है और नया
ऋण उत्पन्न नहीं होता, तब बन्धनका कोई कारण न रहनेसे मनुष्य स्वतः मुक्त हो जाता है । कोई भी कर्म निरन्तर नहीं रहता, पर आसक्ति (अन्तःकरणमें) निरन्तर रहा करती है, इसलिये भगवान् ‘सततम् असक्तः’ पदोंसे निरन्तर आसक्तिरहित होनेके लिये कहते हैं । ‘मेरेको कहीं भी आसक्त नहीं होना है’‒ऐसी जागृति साधकको निरन्तर रखनी चाहिये । निरन्तर आसक्तिरहित
रहते हुए जो विहित-कर्म सामने आ जाय, उसे कर्तव्यमात्र समझकर कर देना चाहिये‒ऐसा उपर्युक्त पदोंका भाव है । वास्तवमें देखा जाय तो किसीके भी अन्तःकरणमें
आसक्ति निरन्तर नहीं रहती । जब संसार निरन्तर नहीं रहता, प्रतिक्षण बदलता रहता है, तब उसकी आसक्ति निरन्तर कैसे रह सकती है ? ऐसा होते हुए भी माने हुए ‘अहम्’ के साथ आसक्ति निरन्तर रहती हुई प्रतीत होती है । ‘कार्यम्’ अर्थात् कर्तव्य उसे कहते हैं, जिसको कर सकते हैं और जिसको अवश्य करना चाहिये । दूसरे
शब्दोंमें कर्तव्यका अर्थ होता है‒अपने स्वार्थका त्याग करके
दूसरोंका हित करना अर्थात् दूसरोंकी उस शास्त्रविहित न्याययुक्त माँगको पूरा करना, जिसे पूरा करनेकी सामर्थ्य हमारेमें
है । इस
प्रकार कर्तव्यका सम्बन्ध परहितसे है । कर्तव्यका पालन करनेमें
सब स्वतन्त्र और समर्थ हैं, कोई पराधीन और असमर्थ नहीं है । हाँ, प्रमाद और आलस्यके कारण अकर्तव्य करनेका बुरा अभ्यास
(आदत) हो जानेसे तथा फलकी इच्छा रहनेसे ही वर्तमानमें कर्तव्य-पालन कठिन मालूम देता
है, अन्यथा कर्तव्य-पालनके समान सुगम कुछ
नहीं है । कर्तव्यका सम्बन्ध परिस्थितिके अनुसार होता है । मनुष्य प्रत्येक परिस्थितिमें
स्वतन्त्रतापूर्वक कर्तव्यका पालन कर सकता है । कर्तव्यका पालन करनेसे ही आसक्ति मिटती
है । अकर्तव्य करने तथा कर्तव्य न करनेसे आसक्ति और बढ़ती है । कर्तव्य अर्थात् दूसरोंके हितार्थ कर्म करनेसे वर्तमानकी आसक्ति और कुछ न चाहनेसे
भविष्यकी आसक्ति मिट जाती है । ‘समाचर’ पदका तात्पर्य है कि कर्तव्य-कर्म बहुत सावधानी, उत्साह तथा तत्परतासे विधिपूर्वक करने चाहिये । कर्तव्य-कर्म
करनेमें थोड़ी भी असावधानी होनेपर कर्मयोगकी सिद्धिमें बाधा लग सकती है । वर्ण, आश्रम, प्रकृति (स्वभाव) और परिस्थितिके अनुसार जिस मनुष्यके लिये जो शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म
बताया गया है, अवसर प्राप्त होनेपर उसके लिये वही ‘सहज कर्म’ है । सहज कर्ममें यदि कोई दोष दिखायी दे, तो भी उसका त्याग नहीं करना चाहिये (गीता‒अठारहवें अध्यायका
अड़तालीसवाँ श्लोक); क्योंकि सहज कर्मको करता हुआ मनुष्य
पापको प्राप्त नहीं होता (गीता‒अठारहवें अध्यायका सैंतालीसवाँ श्लोक) इसीलिये यहाँ
भगवान् अर्जुनको मानो यह कह रहे हैं कि तू क्षत्रिय है; अतः युद्ध करना (घोर दीखनेपर भी) तेरा सहज कर्म है; घोर कर्म नहीं । अतः सामने आये हुए सहज कर्मको अनासक्त
होकर कर देना चाहिये । अनासक्त होनेपर ही समता प्राप्त होती
है । विशेष बात जब जीव मनुष्ययोनिमें जन्म लेता है, तब उसको शरीर, धन, जमीन, मकान आदि सब सामग्री मिलती है; और जब वह यहाँसे जाता है, तब सब सामग्री यहीं छूट जाती है । इस सीधी-सादी बातसे
यह सहज ही सिद्ध होता है कि शरीरादि सब सामग्री मिली हुई है, अपनी नहीं है । जैसे मनुष्य काम करनेके लिये किसी कार्यालय
(आफिस)-में जाता है तो उसे कुर्सी, मेज, कागज आदि सब सामग्री कार्यालयका काम
करनेके लिये ही मिलती है, अपनी मानकर घर ले जानेके लिये नहीं । ऐसे ही मनुष्यको संसारमें शरीरादि सब सामग्री संसारका काम (सेवा) करनेके लिये ही मिली है, अपनी माननेके लिये नहीं । मनुष्य तत्परता और उत्साहपूर्वक कार्यालयका
काम करता है तो उस कामके बदलेमें उसे वेतन मिलता है । काम कार्यालयके लिये होता है
और वेतन अपने लिये । इसी प्रकार संसारके लिये ही सब काम करनेसे संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद
हो जाता है और योग (परमात्माके साथ अपने नित्य सम्बन्ध)-का अनुभव हो जाता है । ‘कर्म’ और ‘योग’ दोनों मिलकर कर्मयोग कहलाता है । कर्म संसारके लिये होता
है और योग अपने लिये । यह योग ही मानो वेतन है । संसार साधनका क्षेत्र है
। यहाँ प्रत्येक सामग्री साधनके लिये मिलती है, भोग और संग्रहके लिये कदापि नहीं ।
सांसारिक सामग्री अपनी और अपने लिये है ही नहीं । अपनी वस्तु‒परमात्म-तत्त्व मिलनेपर
फिर अन्य किसी वस्तुको पानेकी इच्छा नहीं रहती (गीता‒छठे अध्यायका बाईसवाँ श्लोक)
। परन्तु सांसारिक वस्तुएँ चाहे जितनी प्राप्त हो जायँ, पर उन्हें पानेकी इच्छा कभी मिटती नहीं, प्रत्युत और बढ़ती है । जब मनुष्य मिली हुई वस्तुको अपनी और
अपने लिये मान लेता है, तब वह अपनी इस भूलके कारण बँध जाता है । इस भूलको मिटानेके लिये कर्मयोगका अनुष्ठान
ही सुगम और श्रेष्ठ उपाय है । कर्मयोगी किसी भी वस्तुको
अपनी और अपने लिये न मानते हुए उसे दूसरोंकी सेवामें (उन्हींकी मानकर) लगाता है । अतः
वह सुगमतापूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है । कर्म तो सभी प्राणी किया करते हैं, पर साधारण प्राणी और कर्मयोगीद्वारा किये गये कर्मोंमें
बड़ा भारी अन्तर होता है । साधारण मनुष्य (कर्मी) आसक्ति, ममता, कामना आदिको साथ रखते हुए कर्म करता है, और कर्मयोगी आसक्ति, ममता, कामना आदिको छोड़कर कर्म करता है । कर्मीके कर्मोंका प्रवाह अपनी तरफ होता है और
कर्मयोगीके कर्मोंका प्रवाह संसारकी तरफ । इसलिये कर्मी बँधता है और कर्मयोगी मुक्त
होता है । ‘असक्तो ह्याचरन्कर्म’‒मनुष्य ही आसक्तिपूर्वक संसारसे अपना सम्बन्ध जोड़ता है, संसार नहीं । अतः मनुष्यका कर्तव्य है कि वह संसारके हितके
लिये ही सब कर्म करे और बदलेमें उनका कोई फल न चाहे । इस प्रकार आसक्तिरहित होकर अर्थात्
मुझे किसीसे कुछ नहीं चाहिये, इस भावसे संसारके लिये कर्म करनेसे संसारसे स्वतः सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । कर्मयोगी संसारकी सेवा करनेसे
वर्तमानकी वस्तुओंसे और कुछ न चाहनेसे भविष्यकी वस्तुओंसे सम्बन्ध-विच्छेद करता है
। मेलेमें स्वयंसेवक अपना कर्तव्य समझकर
दिनभर यात्रियोंकी सेवा करते हैं और बदलेमें किसीसे कुछ नहीं चाहते; अतः रात्रिमें सोते समय उन्हें किसीकी याद नहीं आती ।
कारण कि सेवा करते समय उन्होंने किसीसे कुछ चाहा नहीं । इसी प्रकार जो सेवाभावसे दूसरोंके
लिये ही सब कर्म करता है और किसीसे मान, बड़ाई आदि कुछ नहीं चाहता, उसे संसारकी याद नहीं आती । वह सुगमतापूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है । कर्म तो सभी किया करते हैं, पर कर्मयोग तभी होता है, जब आसक्तिरहित होकर दूसरोंके लिये कर्म किये जाते हैं
। आसक्ति शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म करनेसे ही मिट सकती है‒‘धर्म तें बिरति’ (मानस ३ । १६ । १) । शास्त्र-निषिद्ध कर्म करनेसे आसक्ति
कभी नहीं मिट सकती ।
‘परमाप्नोति पूरुषः’‒जैसे तेरहवें अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भगवान्ने
‘परम्’ पदसे सांख्ययोगीके परमात्माको प्राप्त होनेकी बात कही, ऐसे ही यहाँ ‘परम्’ पदसे कर्मयोगीके परमात्माको प्राप्त होनेकी बात कहते
हैं । तात्पर्य यह है कि साधक (रुचि, विश्वास और योग्यताके अनुसार) किसी भी मार्ग‒कर्मयोग, ज्ञानयोग या भक्तियोगपर क्यों न चले, उसके द्वारा प्राप्तव्य वस्तु एक परमात्मा ही हैं (गीता‒पाँचवें
अध्यायका चौथा-पाँचवाँ श्लोक) । प्राप्तव्य तत्त्व वही
हो सकता है जिसकी प्राप्तिमें विकल्प, सन्देह और निराशा न हो तथा जो सदा हो, सब देशमें हो, सब कालमें हो, सभीके लिये हो, सबका अपना हो और जिस तत्त्वसे कोई कभी
किसी अवस्थामें किंचिन्मात्र भी अलग न हो सके अर्थात् जो सबको सदा अभिन्नरूपसे स्वतः
प्राप्त हो । രരരരരരരരരര |