।। श्रीहरिः ।।

   


  आजकी शुभ तिथि–
अधिक श्रावण कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०८०, गुरुवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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शंका‒कर्म करते हुए कर्मयोगीका कर्तृत्वाभिमान कैसे मिट सकता है ? क्योंकि कर्तृत्वाभिमान मिटे बिना परमात्मतत्त्वका अनुभव नहीं हो सकता ।

समाधान‒साधारण मनुष्य सभी कर्म अपने लिये करता है । अपने लिये कर्म करनेसे मनुष्यमें कर्तृत्वाभिमान रहता है । कर्मयोगी कोई भी क्रिया अपने लिये नहीं करता । वह ऐसा मानता है कि संसारसे शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ, रुपये आदि जो कुछ सामग्री मिली है, वह सब संसारकी ही है, अपनी नहीं । जब कभी अवसर मिलता है, तभी वह सामग्री, समय, सामर्थ्य आदिको संसारकी सेवामें लगा देता है, उनको संसारकी सेवामें लगाते हुए कर्मयोगी ऐसा मानता है कि संसारकी वस्तु ही संसारकी सेवामें लगा रहा हूँ अर्थात् सामग्री, समय, सामर्थ्य आदि उन्हींके हैं, जिनकी सेवा हो रही है । ऐसा माननेसे कर्तृत्वाभिमान नहीं रहता ।

कर्तृत्वमें कारण है‒भोक्‍तृत्व । कर्मयोगी भोगकी आशा रखकर कर्म करता ही नहीं । भोगकी आशावाला मनुष्य कर्मयोगी नहीं होता । जैसे अपने हाथोंसे अपना ही मुख धोनेपर यह भाव नहीं आता कि मैंने बड़ा उपकार किया है; क्योंकि मनुष्य हाथ और मुख दोनोंको अपने ही अंग मानता है, ऐसे ही कर्मयोगी भी शरीरको संसारका ही अंग मानता है । अतः यदि अंगने अंगीकी ही सेवा की है तो उसमें कर्तृत्वाभिमान कैसा ?

यह नियम है कि मनुष्य जिस उद्‌देश्यको लेकर कर्ममें प्रवृत्त होता है, कर्मके समाप्‍त होते ही वह उसी लक्ष्यमें तल्लीन हो जाता है । जैसे व्यापारी धनके उद्‌देश्यसे ही व्यापार करता है, तो दूकान बंद करते ही उसका ध्यान स्वतः रुपयोंकी ओर जाता है और वह रुपये गिनने लगता है । उसका ध्यान इस ओर नहीं जाता कि आज कौन-कौन ग्राहक आये ? किस-किस जातिके आये ? आदि-आदि । कारण कि ग्राहकोंसे उसका कोई प्रयोजन नहीं । संसारका उद्‌देश्य रखकर कर्म करनेवाला मनुष्य संसारमें कितना ही तल्लीन क्यों न हो जाय, पर उसकी संसारसे एकता नहीं हो सकती; क्योंकि वास्तवमें संसारसे एकता है ही नहीं । संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील और जड है, जबकिस्वयं’ (अपना स्वरूप) अचल और चेतन है । परन्तु परमात्माका उद्‌देश्य रखकर कर्म करनेवालेकी परमात्मासे एकता हो ही जाती है (चाहे साधकको इसका अनुभव हो या न हो); क्योंकिस्वयं’ की परमात्माके साथ स्वतःसिद्ध (तात्त्विक) एकता है । इस प्रकार जब कर्ता कर्तव्य’ बनकर अपने उद्‌देश्य (परमात्मतत्त्व)-के साथ एक हो जाता है, तब कर्तृत्वाभिमानका प्रश्‍न ही नहीं रहता ।

कर्मयोगी जिस उद्‌देश्य‒परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍तिके लिये सब कर्म करता है, उस (परमात्मतत्त्व)-में कर्तृत्वाभिमान अथवा कर्तृत्व (कर्तापन) नहीं है । अतः प्रत्येक क्रियाके आदि और अन्तमें उस उद्‌देश्यके साथ एकताका अनुभव होनेके कारण कर्मयोगीमें कर्तृत्वाभिमान नहीं रहता ।

प्राणिमात्रके द्वारा किये हुए प्रत्येक कर्मका आरम्भ और अन्त होता है । कोई भी कर्म निरन्तर नहीं रहता । अतः किसीका भी कर्तृत्व निरन्तर नहीं रहता, प्रत्युत कर्मका अन्त होनेके साथ ही कर्तृत्वका भी अन्त हो जाता है । परन्तु मनुष्यसे भूल यह होती है कि जब वह कोई क्रिया करता है, तब तो अपनेको उस क्रियाका कर्ता मानता ही है, पर जब उस क्रियाको नहीं करता, तब भी अपनेको वैसा ही कर्ता मानता रहता है । इस प्रकार अपनेको निरन्तर कर्ता मानते रहनेसे उसका कर्तृत्वाभिमान मिटता नहीं, प्रत्युत दृढ़ होता है । जैसे, कोई पुरुष व्याख्यान देते समय तो वक्ता (व्याख्यानदाता) होता है, पर जब दूसरे समयमें भी वह अपनेको वक्ता मानता रहता है, तब उसका कर्तृत्वाभिमान नहीं मिटता । अपनेको निरन्तर व्याख्यानदाता माननेसे ही उसके मनमें यह भाव आता है कि श्रोता मेरी सेवा करें, मेरा आदर करें, मेरी आवश्यकताओंकी पूर्ति करें’ औरमैं इन साधारण आदमियोंके पास कैसे बैठ सकता हूँ, मैं यह साधारण काम कैसे कर सकता हूँ’ आदि । इस प्रकार उसका व्याख्यानरूप कर्मके साथ निरन्तर सम्बन्ध बना रहता है । इसका कारण है‒व्याख्यानरूप कर्मसे धन, मान, बड़ाई, आराम आदि कुछ-न-कुछ पानेका भाव होना । यदि अपने लिये कुछ भी पानेका भाव न रहे तो कर्तापन केवल कर्म करनेतक ही सीमित रहता है और कर्म समाप्‍त होते ही कर्तापन अपने उद्‌देश्यमें लीन हो जाता है ।

जैसे मनुष्य भोजन करते समय ही अपनेको उसका भोक्ता अर्थात् भोजन करनेवाला मानता है, भोजन करनेके बाद नहीं, ऐसे ही कर्मयोगी किसी क्रियाको करते समय ही अपनेको उस क्रियाका कर्ता मानता है, अन्य समय नहीं । जैसे, कर्मयोगी व्याख्यानदाता है और लोगोंमें उसकी बहुत प्रतिष्‍ठा है । परन्तु कभी व्याख्यान सुननेका काम पड़ जाय तो वह कहीं भी बैठकर सुगमतापूर्वक व्याख्यान सुन सकता है । उस समय उसे न आदरकी आवश्यकता है, न ऊँचे आसनकी; क्योंकि तब वह अपनेको श्रोता मानता है, व्याख्यानदाता नहीं । कभी व्याख्यान देनेके बाद उसे कोई कमरा साफ करनेका काम प्राप्‍त हो जाय तो वह उस कामको वैसी ही तत्परतासे करता है, जैसी तत्परतासे वह व्याख्यान देनेका कार्य करता है । उसके मनमें थोड़ा भी यह भाव नहीं आता किइतना बड़ा व्याख्यानदाता होकर मैं यह कमरा-सफाईका तुच्छ काम कैसे कर सकता हूँ ! लोग क्या कहेंगे ! मेरी इज्‍जत धूलमें मिल जायगी’ इत्यादि । वह अपनेको व्याख्यान देते समय व्याख्यानदाता, कथा-श्रवणके समय श्रोता और कमरा साफ करते समय कमरा साफ करनेवाला मानता है । अतः उसका कर्तृत्वाभिमान निरन्तर नहीं रहता । जो वस्तु निरन्तर नहीं रहती, अपितु बदलती रहती है, वह वास्तवमें नहीं होती और उसका सम्बन्ध भी निरन्तर नहीं रहता‒यह सिद्धान्त है । इस सिद्धान्तपर दृष्‍टि जाते ही साधकको वास्तविकता (कर्तृत्वाभिमानसे रहित स्वरूप)-का अनुभव हो जाता है ।

कर्मयोगी सब क्रियाएँ उसी भावसे करता है, जिस भावसे नाटकमें एक स्वाँगधारी पात्र करता है । जैसे नाटकमें हरिश्‍चन्द्रका स्वाँग नाटक (खेल)-के लिये ही होता है, और नाटक समाप्‍त होते ही हरिश्‍चन्द्ररूप स्वाँगका स्वाँगके साथ ही त्याग हो जाता है, ऐसे ही कर्मयोगीका कर्तापन भी स्वाँगके समान केवल क्रिया करनेतक ही सीमित रहता है । जैसे नाटकमें हरिश्‍चन्द्र बना हुआ व्यक्ति हरिश्‍चन्द्रकी सब क्रियाएँ करते हुए भी वास्तवमें अपनेको उन क्रियाओंका कर्ता (वास्तविक हरिश्‍चन्द्र) नहीं मानता, ऐसे ही कर्मयोगी शास्‍त्रविहित सम्पूर्ण कर्मोंको करते हुए भी वास्तवमें अपनेको उन क्रियाओंका कर्ता नहीं मानता । कर्मयोगी शरीरादि सब पदार्थोंको स्वाँगकी तरह अपना और अपने लिये न मानकर उन्हें (संसारका मानते हुए) संसारकी ही सेवामें लगाता है । अतः किसी भी अवस्थामें कर्मयोगीमें किंचिन्मात्र भी कर्तृत्वाभिमान नहीं रह सकता ।

कर्मयोगी जैसे कर्तृत्वको अपनेमें निरन्तर नहीं मानता, ऐसे ही माता-पिता, स्‍त्री-पुत्र, भाई-भौजाई आदिके साथ अपना सम्बन्ध भी निरन्तर नहीं मानता । केवल सेवा करते समय ही उनके साथ अपना सम्बन्ध (सेवा करनेके लिये ही) मानता है । जैसे, यदि कोई पति है तो पत्‍नीके लिये पति है अर्थात् पत्‍नी कर्कशा हो, कुरूपा हो, कलह करनेवाली हो, पर उसे पत्‍नीरूपमें स्वीकार कर लिया तो अपनी योग्यता, सामर्थ्यके अनुसार उसका भरण-पोषण करना पतिका कर्तव्य है । पतिके नाते उसके सुधारकी बात कह देनी है, चाहे वह माने या न माने । हर समय अपनेको पति नहीं मानना है; क्योंकि इस जन्मसे पहले वह पत्‍नी थी, इसका क्या पता ? और मरनेके बाद भी वह पत्‍नी रहेगी, इसका भी क्या निश्‍चय ? तथा वर्तमानमें भी वह किसीकी माँ है, किसीकी पुत्री है, किसीकी बहन है, किसीकी भाभी है, किसीकी ननद है, आदि-आदि । वह सदा पत्‍नी ही तो है नहीं । ऐसा माननेसे उससे सुख लेनेकी इच्छा स्वतः मिटती है औरकेवल भरण-पोषण (सेवा) करनेके लिये ही पत्‍नी है’, यह मान्यता दृढ़ होती है । इस प्रकार कर्मयोगीको संसारमें पिता, पुत्र, पति, भाई आदिके रूपमें जो स्वाँग मिला है, उसे वह ठीक-ठीक निभाता है । दूसरा अपने कर्तव्यका पालन करता है या नहीं, उसकी ओर वह नहीं देखता । अपनेमें कर्तृत्वाभिमान होनेसे ही दूसरोंके कर्तव्यपर दृष्‍टि जाती है और दूसरोंके कर्तव्यपर दृष्‍टि जाते ही मनुष्य अपने कर्तव्यसे गिर जाता है; क्योंकि दूसरेका कर्तव्य देखना अपना कर्तव्य नहीं है ।

जिस प्रकार कर्मयोगी संसारके प्राणियोंके साथ अपना सम्बन्ध निरन्तर नहीं मानता, उसी प्रकार वर्ण, आश्रम, जाति, सम्प्रदाय, घटना, परिस्थिति आदिके साथ भी अपना सम्बन्ध निरन्तर नहीं मानता । जो वस्तु निरन्तर नहीं है, उसका अभाव स्वतः है । अतः कर्मयोगीका कर्तृत्वाभिमान स्वतः मिट जाता है ।

मार्मिक बात

जिसमें कर्तृत्व नहीं है, उस परमात्माके साथ प्राणिमात्रकी स्वतःसिद्ध एकता है । साधकसे भूल यह होती है कि वह इस वास्तविकताकी तरफ ध्यान नहीं देता ।

जिस प्रकार झूला कितनी ही तेजीसे आगे-पीछे क्यों न जाय, हर बार वह समता (सम स्थिति)-में आता ही है अर्थात् जहाँसे झूलेकी रस्सी बँधी है, उसकी सीधमें (आगे-पीछे जाते समय) एक बार आता ही है, उसी प्रकार प्रत्येक क्रियाके बाद अक्रिय अवस्था (समता) आती ही है । दूसरे शब्दोंमें, पहली क्रियाके अन्त तथा दूसरी क्रियाके आरम्भके बीच और प्रत्येक संकल्प तथा विकल्पके बीच समता रहती ही है ।

दूसरी बात, यदि वास्तविक दृष्‍टिसे देखा जाय तो झूला चलते हुए (विषम दीखनेपर) भी निरन्तर समतामें ही रहता है अर्थात् झूला आगे-पीछे जाते समय भी निरन्तर (जहाँसे झूलेकी रस्सी बँधी है, उसकी) सीधमें ही रहता है । इसी प्रकार जीव भी प्रत्येक क्रियामें समतामें ही स्थित रहता है । परमात्मासे उसकी एकता निरन्तर रहती है । क्रिया करते समय समतामें स्थिति न दीखनेपर भी वास्तवमें समता रहती ही है, जिसका कोई अनुभव करना चाहे तो क्रिया समाप्‍त होते ही (उस समताका) अनुभव हो जाता है । यदि साधक इस विषयमें निरन्तर सावधान रहे तो उसे निरन्तर रहनेवाली समता या परमात्मासे अपनी एकताका अनुभव हो जाता है, जहाँ कर्तृत्व नहीं है ।

माने हुए कर्तृत्वाभिमानको मिटानेके लिये प्रतीति और प्राप्‍तका भेद समझ लेना आवश्यक है । जो दीखता है, पर मिलता नहीं, उसे प्रतीति कहते हैं और जो मिलता है, पर दीखता नहीं, उसे प्राप्‍त’ कहते हैं । देखने-सुनने आदिमें आनेवाला प्रतिक्षण परिवर्तनशील संसारप्रतीति’ है, और सर्वत्र नित्य परिपूर्ण परमात्मतत्त्व प्राप्‍त’ है । परमात्मतत्त्व ब्रह्मासे चींटी-पर्यन्त सबको समानरूपसे स्वतः प्राप्‍त है ।

इदंतासे दीखनेवाली प्रतीतिका प्रतिक्षण अभाव हो रहा है । दृश्यमात्र प्रतिक्षण अदृश्यमें जा रहा है । जिनसे प्रतीति होती है, वे इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि भी प्रतीति ही हैं । नित्य अचल रहनेवाले स्वयं’ को प्रतीतिकी प्राप्‍ति नहीं होती । सदा सबमें रहनेवाला परमात्मतत्त्वस्वयं’ को नित्यप्राप्‍त है । इसलियेप्रतीति’ अभावरूप और प्राप्‍त’ भावरूप है‒नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २ । १६) ।

यावन्मात्र पदार्थ और क्रिया प्रतीति’ है । क्रियामात्र अक्रियतामें लीन होती है । प्रत्येक क्रियाके आदि और अन्तमें सहज (स्वतःसिद्ध) अक्रिय तत्त्व विद्यमान रहता है । जो आदि और अन्तमें होता है, वही मध्यमें भी होता है‒यह सिद्धान्त है । अतः क्रियाके समय भी अखण्ड और सहज अक्रिय तत्त्व ज्यों-का-त्यों विद्यमान रहता है । वह सहज अक्रिय तत्त्व (चेतन स्वरूप अथवा परमात्म-तत्त्व) अक्रिय और सक्रिय‒दोनों अवस्थाओंको प्रकाशित करनेवाला है अर्थात् वह प्रवृत्ति और निवृत्ति (करने और न करने) दोनोंसे परे है ।

प्रतीति (देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, क्रिया आदि)-से माने हुए सम्बन्ध अर्थात् आसक्तिके कारण ही नित्यप्राप्‍त परमात्मतत्त्वका अनुभव नहीं होता । आसक्तिका नाश होते ही नित्यप्राप्‍त परमात्म-तत्त्वका अनुभव हो जाता है । अतः आसक्तिरहित होकर प्रतीति (अपने कहलानेवाले शरीरादि पदार्थों)-को प्रतीति (संसारमात्र)-की सेवामें लगा देनेसे प्रतीति (शरीरादि पदार्थों)-का प्रवाह प्रतीति (संसार)-की तरफ ही हो जाता है और स्वतः प्राप्‍त परमात्मतत्त्व शेष रह जाता है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒मनुष्य कर्मोंसे नहीं बँधता, प्रत्युत आसक्तिसे बँधता है । आसक्ति ही मनुष्यका पतन करती है, कर्म नहीं । आसक्ति-रहित होकर दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे मनुष्य संसार-बन्धनसे मुक्त होकर परमात्मतत्त्वको प्राप्‍त हो जाता है । कर्ममें परिश्रम और कर्मयोगमें विश्राम है । शरीरकी आवश्यकता परिश्रममें है, विश्राममें नहीं । कर्मयोगमें शरीरसे होनेवाला परिश्रम (कर्म) दूसरोंकी सेवाके लिये और विश्राम (योग) अपने लिये है ।

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