Listen प्रधान विषय‒२०—२९ श्लोकतक‒लोकसंग्रहके लिये कर्तव्य-कर्म करनेकी आवश्यकताका
निरूपण । सूक्ष्म विषय‒जनकादिका उदाहरण देकर
अनासक्तभावसे कर्म करनेकी प्रेरणा । कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता
जनकादयः । लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥ २० ॥ अर्थ‒राजा जनक-जैसे अनेक महापुरुष भी कर्म
(कर्मयोग)-के द्वारा ही परम-सिद्धिको प्राप्त हुए थे । इसलिये लोकसंग्रहको देखते हुए
भी तू (निष्काम-भावसे) कर्म करनेके ही योग्य है अर्थात् अवश्य करना चाहिये ।
व्याख्या‒‘कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः’‒‘आदि’ पद ‘प्रभृति’ (आरम्भ) तथा ‘प्रकार’ दोनोंका वाचक माना जाता है । यदि यहाँ आये ‘आदि’ पदको ‘प्रभृति’ का वाचक माना जाय तो ‘जनकादयः’ पदका अर्थ होगा‒जिनके आदि (आरम्भ)-में राजा जनक हैं अर्थात्
राजा जनक तथा उनके बादमें होनेवाले महापुरुष । परन्तु यहाँ ऐसा अर्थ मानना ठीक नहीं
प्रतीत होता; क्योंकि राजा जनकसे पहले भी अनेक महापुरुष
कर्मोंके द्वारा परमसिद्धिको प्राप्त हो चुके थे; जैसे सूर्य, वैवस्वत मनु, राजा इक्ष्वाकु आदि (गीता‒चौथे अध्यायका पहला-दूसरा श्लोक) । इसलिये
यहाँ ‘आदि’ पदको ‘प्रकार’ का वाचक मानना ही उचित है, जिसके अनुसार ‘जनकादयः’ पदका अर्थ है‒राजा जनक-जैसे गृहस्थाश्रममें रहकर निष्कामभावसे
सब कर्म करते हुए परमसिद्धिको प्राप्त हुए महापुरुष, जो राजा जनकसे पहले तथा बादमें (आजतक) हो चुके हैं । कर्मयोग बहुत पुरातन योग है, जिसके द्वारा राजा जनक-जैसे अनेक महापुरुष परमात्माको
प्राप्त हो चुके हैं । अतः वर्तमानमें तथा भविष्यमें भी
यदि कोई कर्मयोगके द्वारा परमात्माको प्राप्त करना चाहे तो उसे चाहिये कि वह मिली
हुई प्राकृत वस्तुओं (शरीरादि)-को कभी अपनी और अपने लिये न माने । कारण कि वास्तवमें
वे अपनी और अपने लिये हैं ही नहीं, प्रत्युत संसारकी और संसारके लिये ही
हैं । इस वास्तविकताको मानकर संसारसे मिली वस्तुओंको संसारकी ही सेवामें लगा देनेसे
सुगमतापूर्वक संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होकर परमात्मप्राप्ति हो जाती है । इसलिये कर्मयोग
परमात्मप्राप्तिका सुगम, श्रेष्ठ और स्वतन्त्र साधन है‒इसमें
कोई सन्देह नहीं । यहाँ ‘कर्मणा एव’ पदोंका सम्बन्ध पूर्वश्लोकके ‘असक्तो ह्याचरन्कर्म’ पदोंसे अर्थात् आसक्तिरहित होकर कर्म करनेसे है; क्योंकि आसक्तिरहित होकर कर्म करनेसे ही मनुष्य कर्मबन्धनसे
मुक्त होता है, केवल कर्म करनेसे नहीं । केवल कर्म
करनेसे तो प्राणी बँधता है‒‘कर्मणा बध्यते जन्तुः’ (महा॰ शान्ति॰ २४१ । ७) । गीताकी यह शैली है कि भगवान् पीछेके
श्लोकमें वर्णित विषयकी मुख्य बातको (जो साधकोंके लिये विशेष उपयोगी होती है) संक्षेपसे
आगेके श्लोकमें पुनः कह देते हैं; जैसे पीछेके (उन्नीसवें) श्लोकमें आसक्तिरहित होकर कर्म करनेकी आज्ञा देकर इस
बीसवें श्लोकमें उसी बातको संक्षेपसे ‘कर्मणा एव’ पदोंसे कहते हैं । इसी प्रकार आगे बारहवें अध्यायके छठे
श्लोकमें वर्णित विषयकी मुख्य बातको सातवें श्लोकमें संक्षेपसे ‘मय्यावेशितचेतसाम्’ (मुझमें चित्त लगानेवाले भक्त) पदसे पुनः कहेंगे । यहाँ भगवान् ‘कर्मणा एव’ के स्थानपर ‘योगेन एव’ भी कह सकते थे । परन्तु अर्जुनका आग्रह कर्मोंका स्वरूपसे
त्याग करनेका होने तथा (आसक्तिरहित होकर किये जानेवाले) कर्मका ही प्रसंग चलनेके कारण
‘कर्मणा एव’ पदोंका प्रयोग किया गया है । अतः यहाँ इन पदोंका अभिप्राय
(पूर्वश्लोकके अनुसार) आसक्तिरहित होकर किये गये कर्मयोगसे ही है । वास्तवमें चिन्मय परमात्माकी प्राप्ति
जड कर्मोंसे नहीं होती । नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव होनेमें जो बाधाएँ हैं, वे आसक्तिरहित होकर कर्म करनेसे दूर हो जाती हैं । फिर
सर्वत्र परिपूर्ण स्वतःसिद्ध परमात्माका अनुभव हो जाता है । इस प्रकार परमात्मतत्त्वके
अनुभवमें आनेवाली बाधाओंको दूर करनेके कारण यहाँ कर्मके द्वारा परमसिद्धि (परमात्मतत्त्व)-की
प्राप्तिकी बात कही गयी है । परमात्मप्राप्ति‒सम्बन्धी मार्मिक
बात मनुष्य सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्तिकी
तरह परमात्माकी प्राप्तिको भी कर्मजन्य मान लेते हैं । वे ऐसा विचार करते हैं कि जब
किसी बड़े (उच्चपदाधिकारी) मनुष्यसे मिलनेमें भी इतना परिश्रम करना पड़ता है, तब अनन्तकोटि
ब्रह्माण्डनायक परमात्मासे मिलनेमें तो बहुत ही परिश्रम (तप, व्रत आदि) करना पड़ेगा । वस्तुतः यही साधककी सबसे बड़ी भूल
है । मनुष्ययोनिका कर्मोंसे घनिष्ठ सम्बन्ध
है । इसलिये मनुष्ययोनिको ‘कर्मसंगी’ अर्थात् ‘कर्मोंमें आसक्तिवाली’ कहा गया है‒‘रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसंगिषु जायते’ (गीता १४ । १५) । यही कारण है कि कर्मोंमें मनुष्यकी
विशेष प्रवृत्ति रहती है और वह कर्मोंके द्वारा ही अभीष्ट वस्तुओंको प्राप्त करना
चाहता है । प्रारब्धका साथ रहनेपर वह कर्मोंके द्वारा ही अभीष्ट सांसारिक वस्तुओंको
प्राप्त भी कर लेता है, जिससे उसकी यह धारणा पुष्ट हो जाती है कि प्रत्येक वस्तु कर्म करनेसे ही मिलती
है और मिल सकती है । परमात्माके विषयमें भी उसका यही भाव रहता है और वह चेतन परमात्माको
भी जड कर्मोंके ही द्वारा प्राप्त करनेकी चेष्टा करता है । परन्तु वास्तविकता यही है कि परमात्माकी प्राप्ति कर्मोंके द्वारा नहीं
होती । इस विषयको बहुत गम्भीरतापूर्वक समझना चाहिये ।
कर्मोंसे नाशवान् वस्तु
(संसार)-की प्राप्ति होती है, अविनाशी वस्तु (परमात्मा)-की नहीं; क्योंकि सम्पूर्ण कर्म नाशवान् (शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि)-के सम्बन्धसे ही होते हैं, जबकि परमात्माकी प्राप्ति नाशवान्से
सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर होती है । രരരരരരരരരര |