।। श्रीहरिः ।।

 


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अधिक श्रावण कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०८०, शनिवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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प्रत्येक कर्मका आरम्भ और अन्त होता है, इसलिये कर्मके फलरूप प्राप्‍त होनेवाली वस्तु भी उत्पन्‍न और नष्‍ट होनेवाली होती है । कर्मोंके द्वारा उसी वस्तुकी प्राप्‍ति होती है, जो देश-काल आदिकी दृष्‍टिसे दूर (अप्राप्‍त) हो । सांसारिक वस्तु एक देश, काल आदिमें रहनेवाली, उत्पन्‍न और नष्‍ट होनेवाली एवं प्रतिक्षण बदलनेवाली है । अतः उसकी प्राप्‍ति कर्म-साध्य है । परन्तु परमात्मा सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिमें परिपूर्ण (नित्यप्राप्‍त) एवं उत्पत्ति-विनाश और परिवर्तनसे सर्वथा रहित हैं । अतः उनकी प्राप्‍ति स्वतःसिद्ध है, कर्म-साध्य नहीं । यही कारण है कि सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्‍ति चिन्तनसे नहीं होती, जबकि परमात्माकी प्राप्‍तिमें चिन्तन मुख्य है । चिन्तनसे वही वस्तु प्राप्‍त हो सकती है, जो समीप-से-समीप हो । वास्तवमें देखा जाय तो परमात्माकी प्राप्‍ति चिन्तनरूप क्रियासे भी नहीं होती । परमात्माका चिन्तन करनेकी सार्थकता दूसरे (संसारके) चिन्तनका त्याग करानेमें ही है । संसारका चिन्तन सर्वथा छूटते ही नित्यप्राप्‍त परमात्माका अनुभव हो जाता है ।

१.देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं । कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं ॥

(मानस १ । १८५ । ३)

सर्वव्यापी परमात्माकी हमसे दूरी है ही नहीं और हो सकती भी नहीं । जिससे हम अपनी दूरी नहीं मानते, उसमैं’ पनसे भी परमात्मा अत्यन्त समीप हैं । ‘मैं’-पन तो परिच्छिन्‍न (एकदेशीय) है, पर परमात्मा परिच्छिन्‍न नहीं हैं । ऐसे अत्यन्त समीपस्थ, नित्यप्राप्‍त परमात्माका अनुभव करनेके लिये सांसारिक वस्तुओंकी प्राप्‍तिके समान तर्क तथा युक्तियाँ लगाना अपने-आपको धोखा देना ही है ।

सांसारिक वस्तुकी प्राप्‍ति इच्छामात्रसे नहीं होती; परन्तु परमात्माकी प्राप्‍ति उत्कट अभिलाषामात्रसे हो जाती है । इस उत्कट अभिलाषाके जाग्रत् होनेमें सांसारिक भोग और संग्रहकी इच्छा ही बाधक है, दूसरा कोई बाधक है ही नहीं । यदि परमात्मप्राप्‍तिकी उत्कट अभिलाषा अभी जाग्रत् हो जाय, तो अभी ही परमात्माका अनुभव हो जाय ।

मनुष्यजीवनका उद्‌देश्य कर्म करना और उसका फल भोगना नहीं है । सांसारिक भोग और संग्रहकी इच्छाके त्यागपूर्वक परमात्मप्राप्‍तिकी उत्कट अभिलाषा तभी जाग्रत् हो सकती है, जब साधकके जीवनभरका एक ही उद्‌देश्य‒परमात्मप्राप्‍ति करना हो जाय । परमात्माको प्राप्‍त करनेके अतिरिक्त अन्य किसी भी कार्यका कोई महत्त्व न रहे । वास्तवमें परमात्मप्राप्‍तिके अतिरिक्त मनुष्यजीवनका अन्य कोई प्रयोजन है ही नहीं । जरूरत केवल इस प्रयोजन या उद्‌देश्यको पहचान कर इसे पूरा करनेकी ही है ।

यहाँ उद्‌देश्य और फलेच्छा‒दोनोंमें भेद समझ लेना आवश्यक है । नित्य परमात्मतत्त्वको प्राप्‍त करनेकाउद्‌देश्य’ होता है, और अनित्य (उत्पत्ति-विनाशशील) पदार्थोंको प्राप्‍त करनेकीफलेच्छा’ होती है । उद्‌देश्य तो पूरा होता है, पर फलेच्छा मिटनेवाली होती है । स्वरूपबोध और भगवत्प्राप्‍ति‒ये दोनों उद्‌देश्य हैं, फल नहीं । उद्‌देश्यकी प्राप्‍तिके लिये किया गया कर्म सकाम नहीं कहलाता । इसलिये निष्काम पुरुष (कर्मयोगी)-के सभी कर्म उद्‌देश्यको लेकर होते हैं, फलेच्छाको लेकर नहीं ।

कर्मयोगमें कर्मों (जडता)-से सम्बन्ध-विच्छेदका उद्‌देश्य रखकर शास्‍त्रविहित शुभ-कर्म किये जाते हैं । सकाम पुरुष फलकी इच्छा रखकर अपने लिये कर्म करता है और कर्मयोगी फलकी इच्छाका त्याग करके दूसरोंके लिये कर्म (सेवा) करता है । कर्म ही फलरूपसे परिणत होता है । अतः फलका सम्बन्ध कर्मसे होता है । उद्‌देश्यका सम्बन्ध कर्मसे नहीं होता । निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसेपरमात्मा दूर हैं’ यह धारणा दूर हो जाती है ।

लोकसङ्‍ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि’‒‘लोक’ शब्दके तीन अर्थ होते हैं‒(१) मनुष्यलोक आदि लोक, (२) उन लोकोंमें रहनेवाले प्राणी और (३) शास्‍त्र (वेदोंके अतिरिक्त सब शास्‍त्र) । मनुष्यलोककी, उसमें रहनेवाले प्राणियोंकी और शास्‍त्रोंकी मर्यादाके अनुसार समस्त आचरणों (जीवनचर्यामात्र)-का होना लोकसंग्रहहै ।

लोकसंग्रहका तात्पर्य है‒लोकमर्यादा सुरक्षित रखनेके लिये, लोगोंको असत्‌से विमुख करके सत्‌के सम्मुख करनेके लिये निःस्वार्थभावपूर्वक कर्म करना । इसको गीतामेंयज्ञार्थ कर्म’ के नामसे भी कहा गया है । अपने आचरणों एवं वचनोंसे लोगोंको असत्‌से विमुख करके सत्‌के सम्मुख कर देना बहुत बड़ी सेवा है; क्योंकि सत्‌के सम्मुख होनेसे लोगोंका सुधार एवं उद्धार हो जाता है ।

लोगोंको दिखानेके लिये अपने कर्तव्यका पालन करना लोक-संग्रह नहीं है । कोई देखे या न देखे, लोक-मर्यादाके अनुसार अपने-अपने (वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिके अनुसार) कर्तव्यका पालन करनेसे लोकसंग्रह स्वतः होता है ।

कोई भी कर्तव्य-कर्म छोटा या बड़ा नहीं होता । छोटा-से-छोटा और बड़ा-से-बड़ा कर्म कर्तव्यमात्र समझकर (सेवाभावसे) करनेपर समान ही है । देश, काल, परिस्थिति, अवसर, वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिके अनुसार जो कर्तव्यकर्म सामने आ जाय, वही कर्म बड़ा होता है । कर्मके स्वरूप और फलकी दृष्‍टिसे ही कर्म छोटा या बड़ा, घोर या सौम्य प्रतीत होता है । फलेच्छाका त्याग करनेपर सभी कर्म उद्‌देश्यकी सिद्धि करनेवाले हो जाते हैं । अतः जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद करनेमें छोटे-बड़े सभी कर्म समान हैं ।

२.उदाहरणार्थ‒कर्मके स्वरूपकी दृष्‍टिसे झाड़ू लगाना छोटा कर्म और व्याख्यान देना बड़ा कर्म प्रतीत होता है, एवं कर्म-फलकी दृष्‍टिसे कम दान करनेका कम पुण्य और अधिक दान करनेका अधिक पुण्य प्रतीत होता है ।

किसी भी मनुष्यका जीवन दूसरोंकी सहायताके बिना नहीं चल सकता । शरीर माता-पितासे मिलता है और विद्या, योग्यता, शिक्षा आदि गुरुजनोंसे मिलती है । जो अन्‍न ग्रहण करते हैं, वह दूसरोंके द्वारा उत्पन्‍न किया गया होता है; जो वस्‍त्र पहनते हैं, वे दूसरोंके द्वारा बनाये गये होते हैं; जिस मकानमें रहते हैं, उसका निर्माण दूसरोंके द्वारा किया गया होता है; जिस सड़कपर चलते हैं, वह दूसरोंके द्वारा बनायी गयी होती है, आदि-आदि । इस प्रकार प्रत्येक मनुष्यका जीवन-निर्वाह दूसरोंके आश्रित है । अतः हरेक मनुष्यपर दूसरोंका ऋण है, जिसे उतारनेके लिये यथाशक्ति दूसरोंकी निःस्वार्थभावसे सेवा (हित) करना आवश्यक है । अपने कहलानेवाले शरीरादि सम्पूर्ण सांसारिक पदार्थोंको किंचिन्मात्र भी अपना और अपने लिये न माननेसे मनुष्य ऋणसे मुक्त हो जाता है ।

परिशिष्‍ट भाव‒यहाँ आये कर्मणैव ही संसिद्धिमास्थिताः’ पदोंसे सिद्ध होता है कि कर्मयोग मुक्तिका स्वतन्त्र साधन है । जनकादि राजाओंने भी कर्मयोगके द्वारा ही परमसिद्धि प्राप्‍त की; क्योंकि उन्होंने केवल दूसरोंकी सेवाके लिये, उनको सुख पहुँचानेके लिये ही राज्य किया, अपने लिये राज्य नहीं किया ।

लोकसङ्‍ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि’ पदोंका तात्पर्य है कि तेरेको लोगोंमें कर्मयोगका यह आदर्श स्थापित करना चाहिये कि कर्मयोगका पालन करनेसे परमसिद्धिकी प्राप्‍ति हो जाती है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒जनकादि राजाओंने भी कर्मयोगके द्वारा ही मुक्ति प्राप्‍त की थी । इससे सिद्ध होता है कि कर्मयोग मुक्तिका स्वतन्त्र साधन है ।

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