Listen सम्बन्ध‒कर्म करनेसे लोकसंग्रह कैसे होता है‒इसका विवेचन भगवान् आगेके श्लोकमें करते हैं । सूक्ष्म विषय‒लोकसंग्रहकी शिक्षा । यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो
जनः । स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते
॥ २१ ॥ अर्थ‒श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं । वह जो कुछ
प्रमाण कर देता है, दूसरे मनुष्य उसीके अनुसार आचरण करते
हैं ।
व्याख्या‒‘यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः’‒श्रेष्ठ पुरुष वही है, जो संसार (शरीरादि पदार्थों)-को और ‘स्वयं’ (अपने स्वरूप)-को तत्त्वसे जानता है । उसका यह स्वाभाविक अनुभव होता है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, धन, कुटुम्ब, जमीन आदि पदार्थ संसारके हैं, अपने नहीं । इतना ही नहीं, वह श्रेष्ठ पुरुष त्याग, वैराग्य, प्रेम, ज्ञान, सद्गुण आदिको भी अपना नहीं मानता; क्योंकि उन्हें भी अपना माननेसे व्यक्तित्व पुष्ट होता
है, जो तत्त्वप्राप्तिमें बाधक है । ‘मैं त्यागी हूँ’, ‘मैं वैरागी हूँ’, ‘मैं सेवक हूँ’, ‘मैं भक्त हूँ’ आदि भाव भी व्यक्तित्वको पुष्ट करनेवाले होनेके कारण तत्त्वप्राप्तिमें बाधक
होते हैं । श्रेष्ठ पुरुषमें (जडताके सम्बन्धसे होनेवाला) ‘व्यष्टि अहंकार’ तो होता ही नहीं, और ‘समष्टि अहंकार’ व्यवहारमात्रके लिये होता है, जो संसारकी सेवामें लगा रहता है; क्योंकि अहंकार भी संसारका ही है (गीता‒सातवें अध्यायका
चौथा और तेरहवें अध्यायका पाँचवाँ श्लोक) । संसारसे मिले हुए शरीर, धन, परिवार, पद, योग्यता, अधिकार आदि सब पदार्थ सदुपयोग करने अर्थात् दूसरोंकी सेवामें लगानेके लिये ही मिले
हैं; उपभोग करने अथवा अपना अधिकार जमानेके
लिये नहीं । जो इन्हें अपना और अपने लिये मानकर इनका उपभोग करता है, उसको भगवान् चोर कहते हैं‒‘यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः’ (गीता ३ । १२) । ये सब पदार्थ समष्टिके ही हैं, व्यष्टिके कभी किसी प्रकार नहीं । वास्तवमें इन पदार्थोंसे
हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है । श्रेष्ठ पुरुषके अपने कहलानेवाले शरीरादि पदार्थ (संसारके
होनेसे) स्वतः-स्वाभाविक संसारकी सेवामें लगते हैं । सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें उसकी
स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है । ‘देने’ के भावसे समाजमें एकता, प्रेम उत्पन्न होता है और ‘लेने’ के भावसे संघर्ष उत्पन्न होता है । ‘देने’ का भाव उद्धार करनेवाला और ‘लेने’ का भाव पतन करनेवाला होता है । शरीरको ‘मैं’, ‘मेरा’ अथवा ‘मेरे लिये’ माननेसे ही ‘लेने’ का भाव उत्पन्न होता है । शरीरसे अपना कोई सम्बन्ध न
माननेके कारण श्रेष्ठ पुरुषमें ‘लेने’ का भाव किंचिन्मात्र भी नहीं होता ।
अतः उसकी प्रत्येक क्रिया दूसरोंका हित करनेवाली ही होती है । ऐसे श्रेष्ठ पुरुषके दर्शन, स्पर्श, वार्तालाप, चिन्तन आदिसे स्वतः लोगोंका हित होता
है । इतना ही नहीं, उसके शरीरको स्पर्श करके बहनेवाली वायुतकसे लोगोंका हित होता
है । ऐसे श्रेष्ठ पुरुष दो प्रकारके होते
हैं‒(१) अवधूत कोटिके और (२) आचार्य कोटिके । अवधूत कोटिके श्रेष्ठ पुरुष अवधूतोंके
लिये ही आदर्श होते हैं, साधारण जनताके लिये नहीं । परन्तु आचार्य कोटिके श्रेष्ठ पुरुष मनुष्यमात्रके
लिये आदर्श होते हैं । यहाँ आचार्य कोटिके श्रेष्ठ पुरुषोंका वर्णन किया गया है, जिनके आचरण सदा शास्त्रमर्यादाके अनुकूल ही होते हैं
। कोई देखे या न देखे, अहंता-ममता न रहनेके कारण उनके द्वारा
स्वाभाविक ही कर्तव्यका पालन होता है । जैसे, जंगलमें कोई पुष्प खिला और कुछ समयके बाद मुरझा गया और
सूखकर गिर गया । उसे किसीने देखा नहीं, फिर भी उसने (चारों ओर) अपनी सुगन्ध फैलाकर दुर्गन्धका नाश किया ही है । इसी तरह
श्रेष्ठ पुरुषसे (परहितका असीम भाव होनेके कारण) संसारमात्रका स्वाभाविक ही बहुत उपकार
हुआ करता है, चाहे कोई समझे या न समझे । कारण यह
है कि व्यक्तित्व (अहंता-ममता) मिट जानेके कारण भगवान्की उस पालन-शक्तिके साथ उसकी
एकता हो जाती है, जिसके द्वारा संसारमात्रका हित हो रहा
है । जैसे एक ही शरीरके सब अंग भिन्न-भिन्न
होनेपर भी एक ही हैं (जैसे‒किसी भी अंगमें पीड़ा होनेपर मनुष्य उसे अपनी पीड़ा मानता
है), ऐसे ही संसारके सब प्राणी भिन्न-भिन्न होनेपर भी एक ही हैं । जैसे शरीरका कोई भी पीड़ित (रोगी) अंग ठीक हो जानेपर सम्पूर्ण शरीरका
हित होता है, ऐसे ही मर्यादामें रहकर प्राप्त वस्तु, समय, परिस्थिति आदिके अनुसार अपने कर्तव्यका
पालन करनेवाले मनुष्यके द्वारा सम्पूर्ण संसारका स्वतः हित होता है । श्रेष्ठ पुरुषके आचरणों और वचनोंका
प्रभाव (स्थूल-शरीरसे होनेके कारण) स्थूलरीतिसे पड़ता है, जो सीमित होता है । परन्तु उसके भावोंका प्रभाव सूक्ष्मरीतिसे
पड़ता है, जो असीम होता है । कारण यह है कि ‘क्रिया’ तो सीमित होती है, पर ‘भाव’ असीम होता है । श्रेष्ठ पुरुष जिन भावोंको अपने आचरणोंमें
लाता है, उन भावोंका दूसरे मनुष्योंपर बहुत प्रभाव
पड़ता है । अपने वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिके आचरणोंका अच्छी तरहसे पालन करनेके कारण
उसके द्वारा कहे हुए वचनोंका दूसरे वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिके लोगोंपर भी बहुत प्रभाव
पड़ता है । यद्यपि श्रेष्ठ मनुष्य अपने लिये कोई
आचरण नहीं करता और उसमें कर्तृत्वाभिमान भी नहीं होता, तथापि लोगोंकी दृष्टिमें वह आचरण करता हुआ दीखनेके कारण
यहाँ ‘आचरति’ क्रियाका प्रयोग हुआ है । उसके द्वारा सबके उपकारके लिये
स्वतः-स्वाभाविक क्रियाएँ होती हैं । अपना कोई स्वार्थ न रहनेके कारण उसकी छोटी-बड़ी
प्रत्येक क्रिया लोगोंका स्वतः हित करनेवाली होती है । यद्यपि उसके लिये कोई कर्तव्य
नहीं है‒‘तस्य कार्यं न विद्यते’ (गीता ३ । १७) और उसमें करनेका अभिमान भी नहीं है‒‘निर्ममो निरहङ्कारः’
(गीता २ । ७१) तथापि उसके द्वारा स्वतः-स्वाभाविक
सुचारुरूपसे कर्तव्यका पालन होता है । इस प्रकार उसके द्वारा स्वतः-स्वाभाविक लोकसंग्रह
होता है । विशेष बात प्रायः देखा जाता है कि जिस समाज, सम्प्रदाय, जाति, वर्ण, आश्रम आदिमें जो श्रेष्ठ मनुष्य कहलाते हैं और जिनको
लोग श्रेष्ठ मानकर आदरकी दृष्टिसे देखते हैं, वे जैसा आचरण करते हैं, उस समाज, सम्प्रदाय, जाति आदिके लोग भी वैसा ही आचरण करने
लग जाते हैं । अन्तःकरणमें धन और पदका महत्त्व एवं
लोभ रहनेके कारण लोग अधिक धनवाले (लखपति, करोड़पति) तथा ऊँचे पदवाले (नेता, मन्त्री आदि) पुरुषोंको श्रेष्ठ मान लेते हैं और उन्हें बहुत आदरकी दृष्टिसे
देखते हैं । जिनके अन्तःकरणमें जड वस्तुओं (धन, पद आदि)-का महत्त्व है, वे मनुष्य वास्तवमें न तो स्वयं श्रेष्ठ
होते हैं और न श्रेष्ठ व्यक्तिको समझ ही सकते हैं । जिसको वे श्रेष्ठ समझते हैं, वह भी वास्तवमें श्रेष्ठ नहीं होता । यदि उनके हृदयमें
धनका अधिक आदर है तो उनपर अधिक धनवालोंका ही प्रभाव पड़ता है; जैसे‒चोरपर चोरोंके सरदारका ही प्रभाव पड़ता है । वास्तवमें
श्रेष्ठ न होनेपर भी लोगोंके द्वारा श्रेष्ठ मान लिये जानेके कारण उन धनी तथा उच्च
पदाधिकारी पुरुषोंके आचरणोंका समाजमें स्वतः प्रचार हो जाता है । जैसे, धनके कारण जो श्रेष्ठ माने जाते हैं, वे पुरुष जिन-जिन उपायोंसे धन कमाते और जमा करते हैं, उन-उन उपायोंका लोगोंमें स्वतः प्रचार हो जाता है, चाहे वे उपाय कितने ही गुप्त क्यों न हों ! यही कारण है कि वर्तमानमें झूठ, कपट, बेईमानी, धोखा, चोरी आदि बुराइयोंका समाजमें, किसी पाठशालामें पढ़ाये बिना ही स्वतः
प्रचार होता चला जा रहा है । यह दुःख और आश्चर्यकी बात है कि वर्तमानमें
लोग लखपतिको तो श्रेष्ठ मान लेते हैं, पर प्रतिदिन भगवन्नामका लाख जप करनेवालेको
श्रेष्ठ नहीं मानते । वे यह विचार ही नहीं करते कि लखपतिके
मरनेपर एक कौड़ी भी साथ नहीं जायगी, जबकि भगवन्नामका जप करनेवालेके मरनेपर
पूरा-का-पूरा भगवन्नामरूप धन उसके साथ जायगा, एक भी भगवन्नाम पीछे नहीं रहेगा !
अपने-अपने स्थान या क्षेत्रमें
जो पुरुष मुख्य कहलाते हैं, उन अध्यापक, व्याख्यानदाता, आचार्य, गुरु, नेता, शासक, महन्त, कथावाचक, पुजारी आदि सभीको अपने आचरणोंमें विशेष
सावधानी रखनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है, जिससे दूसरोंपर उनका अच्छा प्रभाव पड़े
। इसी
प्रकार परिवारके मुख्य व्यक्ति (मुखिया)-को भी अपने आचरणोंमें पूरी सावधानी रखनेकी
आवश्यकता है । कारण कि मुख्य व्यक्तिकी ओर सबकी दृष्टि रहती है । रेलगाड़ीके चालकके
समान मुख्य व्यक्तिपर विशेष जिम्मेवारी रहती है । रेलगाड़ीमें बैठे अन्य व्यक्ति सोये
भी रह सकते हैं, पर चालकको सदा जाग्रत् रहना पड़ता है
। उसकी थोड़ी भी असावधानीसे दुर्घटना हो जानेकी सम्भावना रहती है । इसलिये संसारमें
अपने-अपने क्षेत्रमें श्रेष्ठ माने जानेवाले सभी पुरुषोंको अपने आचरणोंपर विशेष ध्यान
रखनेकी बहुत आवश्यकता है । രരരരരരരരരര |