।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
अधिक श्रावण कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०८०, सोमवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते’जिसके अन्तःकरणमें कामना, ममता, आसक्ति, स्वार्थ, पक्षपात आदि दोष नहीं हैं और नाशवान् पदार्थोंका महत्त्व या कुछ भी लेनेका भाव नहीं है, ऐसे मनुष्यके द्वारा कहे हुए वचनोंका प्रभाव दूसरोंपर स्वतः पड़ता है और वे उसके वचनानुसार स्वयं आचरण करने भी लग जाते हैं ।

यहाँ यह शंका हो सकती है कि जब आचरणकी बात कह दी, तब प्रमाणके कहनेकी क्या आवश्यकता है और प्रमाणकी बात कहनेपर आचरणके कहनेकी क्या आवश्यकता है ? इसका समाधान यह है कि यद्यपि आचरण मुख्य होता है तथापि एक ही मनुष्यके द्वारा सभी वर्णों, आश्रमों, सम्प्रदायों आदिके भावोंका आचरण करना सम्भव नहीं है । अतः श्रेष्‍ठ मनुष्य स्वयं जिस वर्ण, आश्रम आदिमें है, उसके अनुसार तो वह सांगोपांग आचरण करता ही है और अन्य वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिके लोगोंके लिये भी वह अपने वचनोंसे शास्‍त्र, इतिहास आदिके प्रमाणसे यह शिक्षा देता है कि अपने लिये कुछ न करके, सम्पूर्ण प्राणियोंके हितके भावसे अपने-अपने (वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिके अनुसार) कर्तव्यका पालन करना कल्याणका सुगम और श्रेष्‍ठ साधन है (गीता‒अठारहवें अध्यायका पैंतालीसवाँ श्‍लोक) । उसके वचनोंसे प्रभावित होकर दूसरे वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिके लोग उसके कहे अनुसार अपने-अपने कर्तव्योंका पालन करने लग जाते हैं । यद्यपि आचरणका क्षेत्र सीमित और प्रमाण (वचनों)-का क्षेत्र विस्तृत होता है, तथापि भगवान्‌के द्वारा श्रेष्‍ठ पुरुषके आचरणमें पाँच पद‒यत्’, यत्’,तत्’, ‘तत्’ और (विशेषरूपसे) एव’ देनेका अभिप्राय है कि उसके आचरणका प्रभाव समाजपर पाँच गुना (अधिक) पड़ता है और प्रमाणमें दो पद‒यत्’ और तत्’ देनेका अभिप्राय है कि प्रमाणका प्रभाव समाजपर केवल दो गुना (अपेक्षाकृत कम) पड़ता है । इसीलिये भगवान्‌ने बीसवें श्‍लोकमें लोकसंग्रहके लिये अपने कर्तव्यकर्मोंका पालन करनेपर ही विशेषरूपसे जोर दिया है ।

यदि श्रेष्‍ठ मनुष्य स्वयं अपने वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार आचरण न करके केवल प्रमाण दे, तो उसका लोगोंपर विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा । उसमें लोगोंका ऐसा भाव हो सकता है कि ये बातें तो केवल कहने-सुननेकी हैं; क्योंकि कहनेवाला स्वयं भी तो अपने कर्तव्य-कर्मका पालन नहीं कर रहा है । ऐसा भाव होनेपर लोगोंमें अपने कर्तव्यके प्रति अश्रद्धा और अरुचि होनेकी सम्भावना रहती है । इसलिये श्रेष्‍ठ पुरुष स्वयं आचरण करके और प्रमाण देकर‒दोनों ही प्रकारसे लोगोंको अपने-अपने कर्तव्य-पालनमें लगाकर उनका हित करता है ।

श्रेष्‍ठ पुरुषके आचरणोंका अनुवर्तन (अनुसरण) वे ही लोग करते हैं, जो उसे श्रेष्‍ठ मानते हैं । अतः वास्तवमें श्रेष्‍ठ होनेपर भी अगर कोई मनुष्य उसे श्रेष्‍ठ नहीं मानता, तो वह उस श्रेष्‍ठ पुरुषके आचरणों और वचनोंके अनुसार आचरण नहीं कर सकेगा ।

वर्तमानमें पारमार्थिक (भगवत्सम्बन्धी) भावोंका प्रचार करनेवाले बहुत-से पुरुषोंके होनेपर भी लोगोंपर उन भावोंका प्रभाव बहुत कम दिखायी देता है । इसका कारण यही है कि प्रायः वक्ता जैसा कहता है, वैसा स्वयं पूरा आचरण नहीं करता । स्वयं आचरण करके कही गयी बात गोलीसे भरी बन्दूकके समान है, जो गोलीके छूटनेपर आवाजके साथ-साथ मार भी करती है । इसके विपरीत आचरणमें लाये बिना कही गयी बात केवल बारूदसे भरी बन्दूकके समान है, जो केवल आवाज करके ही शान्त हो जाती है । हाँ, पारमार्थिक बातें ऐसे ही खत्म नहीं हो जातीं, प्रत्युत कुछ-न-कुछ प्रभाव डालती ही हैं । भगवच्‍चर्चा, कथा-कीर्तन आदिका कुछ-न-कुछ प्रभाव सबपर पड़ता ही है । अगर सुननेवालोंमें श्रद्धा है और वे साधन करते हैं अथवा करना चाहते हैं, तो उनपर (अपनी श्रद्धा और साधनकी रुचिके कारण) वचनोंका प्रभाव अधिक पड़ता है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒समाजमें जिस मनुष्यको लोग श्रेष्‍ठ मानते हैं, उसपर विशेष जिम्मेवारी रहती है कि वह ऐसा कोई आचरण न करे तथा ऐसी कोई बात न कहे, जो लोक-मर्यादा तथा शास्त्र-मर्यादाके विरुद्ध हो ।

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