।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
अधिक श्रावण कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०८०, मंगलवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



Listen



सम्बन्ध‒अब भगवान् आगेके तीन श्‍लोकोंमें अपना उदाहरण देकर लोकसंग्रहकी पुष्‍टि करते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒भगवान्‌के द्वारा लोकसंग्रह ।

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्‍चन ।

        नानवाप्‍तमवाप्‍तव्यं  वर्त   एव  च  कर्मणि ॥ २२ ॥

अर्थ‒हे पार्थ ! मुझे तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई प्राप्‍त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्‍त है, फिर भी मैं कर्तव्यकर्ममें ही लगा रहता हूँ ।

पार्थ = हे पार्थ !

च = और

मे = मुझे

न = न (कोई)

त्रिषु = तीनों

अवाप्‍तव्यम् = प्राप्‍त करनेयोग्य (वस्तु)

लोकेषु = लोकोंमें

अनवाप्‍तम् = अप्राप्‍त है,

न = न तो

कर्मणि = (फिर भी मैं) कर्तव्यकर्ममें

किञ्‍चन = कुछ

एव = ही

कर्तव्यम् = कर्तव्य

वर्ते = लगा रहता हूँ ।

अस्ति = है

 

व्याख्या‘न मे पार्थास्ति....नानवाप्‍तमवाप्‍तव्यम्’‒भगवान् किसी एक लोकमें सीमित नहीं हैं । इसलिये वे तीनों लोकोंमें अपना कोई कर्तव्य न होनेकी बात कह रहे हैं ।

भगवान्‌के लिये त्रिलोकीमें कोई भी कर्तव्य शेष नहीं है; क्योंकि उनके लिये कुछ भी पाना शेष नहीं है । कुछ-न-कुछ पानेके लिये ही सब (मनुष्य, पशु, पक्षी आदि) कर्म करते हैं । भगवान् उपर्युक्त पदोंमें बहुत विलक्षण बात कह रहे हैं कि कुछ भी करना और पाना शेष न होनेपर भी मैं कर्म करता हूँ !

अपने लिये कोई कर्तव्य न होनेपर भी भगवान् केवल दूसरोंके हितके लिए अवतार लेते हैं और साधु पुरुषोंका उद्धार, पापी पुरुषोंका विनाश तथा धर्मकी संस्थापना करनेके लिये कर्म करते हैं (गीता ४ । ८) । अवतारके सिवाय भगवान्‌की सृष्‍टि-रचना भी जीवमात्रके उद्धारके लिये ही होती है । स्वर्गलोक पुण्यकर्मोंका फल भुगतानेके लिये है और चौरासी लाख योनियाँ एवं नरक पाप-कर्मोंका फल भुगतानेके लिये हैं । मनुष्य-योनि पुण्य और पाप‒दोनोंसे ऊँचे उठकर अपना कल्याण करनेके लिये है । ऐसा तभी सम्भव है, जब मनुष्य अपने लिये कुछ न करे । वह सम्पूर्ण कर्म‒स्थूल शरीरसे होनेवाली क्रिया’, सूक्ष्म शरीरसे होनेवालाचिन्तन’ और कारण शरीरसे होनेवालीस्थिरता’ केवल दूसरोंके हितके लिये ही करे, अपने लिये नहीं । कारण कि जिनसे सब कर्म किये जाते हैं, वे स्थूल, सूक्ष्म और कारण‒तीनों ही शरीर संसारके हैं, अपने नहीं । इसलिये कर्मयोगी शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदि सम्पूर्ण सामग्रीको (जो वास्तवमें संसारकी ही है) संसारकी ही मानता है और उसे संसारकी सेवामें लगाता है । अगर मनुष्य संसारकी वस्तुको संसारकी सेवामें न लगाकर अपने सुख-भोगमें लगाता है तो बड़ी भारी भूल करता है । संसारकी वस्तुको अपनी मान लेनेसे ही फलकी इच्छा होती है और फलप्राप्‍तिके लिये कर्म होता है । इस तरह जबतक मनुष्य कुछ पानेकी इच्छासे कर्म करता है, तबतक उसके लिये कर्तव्य अर्थात् करना’ शेष रहता है ।

गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो मालूम होता है कि मनुष्यमात्रका अपने लिये कोई कर्तव्य है ही नहीं । कारण कि प्रापणीय वस्तु (परमात्मतत्त्व) नित्यप्राप्‍त है और स्वयं (स्वरूप) भी नित्य है, जबकि कर्म और कर्म-फल अनित्य अर्थात् उत्पन्‍न एवं नष्‍ट होनेवाला है । अनित्य (कर्म और फल)-का सम्बन्ध नित्य (स्वयं)-के साथ हो ही कैसे सकता है ! कर्मका सम्बन्ध पर’ (शरीर और संसार)-से है, स्व’ से नहीं । कर्म सदैव पर’ के द्वारा और पर’ के लिये ही होता है । इसलिये अपने लिये कुछ करना है ही नहीं । जब मनुष्यमात्रके लिये कोई कर्तव्य नहीं है, तब भगवान्‌के लिये कोई कर्तव्य हो ही कैसे सकता है !

कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषके लिये भगवान्‌ने इसी अध्यायके सत्रहवें-अठारहवें श्‍लोकोंमें कहा है कि उस महापुरुषके लिये कोई कर्तव्य नहीं है; क्योंकि उसकी रति, तृप्‍ति और संतुष्‍टि अपने-आपमें ही होती है । इसलिये उसे संसारमें करने अथवा न करनेसे कोई प्रयोजन नहीं रहता तथा उसका किसी भी प्राणीसे किंचिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता । ऐसा होनेपर भी वह महापुरुष लोकसंग्रहार्थ कर्म करता है । इसी प्रकार यहाँ भगवान् अपने लिये कहते हैं कि कोई भी कर्तव्य न होने तथा कुछ भी पाना बाकी न होनेपर भी मैं लोकसंग्रहार्थ कर्म करता हूँ । तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञ महापुरुषकी भगवान्‌के साथ एकता होती है‒मम साधर्म्यमागताः’ (गीता १४ । २) । जैसे भगवान् त्रिलोकीमें आदर्श पुरुष हैं (गीता‒तीसरे अध्यायका तेईसवाँ और चौथे अध्यायका ग्यारहवाँ श्‍लोक), ऐसे ही संसारमें तत्त्वज्ञ पुरुष भी आदर्श हैं (गीता‒तीसरे अध्यायका पचीसवाँ श्‍लोक) ।

वर्त एव च कर्मणि’यहाँ एव’ पदसे भगवान्‌का तात्पर्य है कि मैं उत्साह एवं तत्परतासे, आलस्यरहित होकर, सावधानीपूर्वक, सांगोपांग कर्तव्यकर्मोंको करता हूँ । कर्मोंका न त्याग करता हूँ, न उपेक्षा ।

जैसे इंजनके पहियोंके चलनेसे इंजनसे जुड़े हुए डिब्बे भी चलते रहते हैं, ऐसे ही भगवान् और सन्त-महापुरुष (जिनमें करने और पानेकी इच्छा नहीं है) इंजनके समान कर्तव्य-कर्म करते हैं, जिससे अन्य मनुष्य भी उन्हींका अनुसरण करते हैं । अन्य मनुष्योंमें करने और पानेकी इच्छा रहती है । ये इच्छाएँ निष्कामभावपूर्वक कर्तव्य-कर्म करनेसे ही दूर होती हैं । यदि भगवान् और सन्त-महापुरुष कर्तव्य-कर्म न करें तो दूसरे मनुष्य भी कर्तव्य-कर्म नहीं करेंगे, जिससे उनमें प्रमाद-आलस्य आ जायगा और वे अकर्तव्य करने लग जायँगे ! फिर उन मनुष्योंकी इच्छाएँ कैसे मिटेंगी ! इसलिये सम्पूर्ण मनुष्योंके हितके लिये भगवान् और सन्त-महापुरुषोंके द्वारा स्वाभाविक ही कर्तव्य-कर्म होते हैं ।

भगवान् सदैव कर्तव्यपरायण रहते हैं, कभी कर्तव्यच्युत नहीं होते । अतः भगवत्परायण साधकको भी कभी कर्तव्यच्युत नहीं होना चाहिये । कर्तव्यच्युत होनेसे ही वह भगवत्तत्त्वके अनुभवसे वंचित रहता है । नित्य कर्तव्य-परायण रहनेसे साधकको भगवत्तत्त्वका अनुभव सुगमतापूर्वक हो सकता है ।

परिशिष्‍ट भाव‒महाभारतमें भगवान्‌ने उत्तंक ऋषिको भी तीनों लोकोंमें अपना कर्तव्य बताया है‒

धर्मसंरक्षणार्थाय   धर्मसंस्थापनाय   च ।

तैस्तैर्वेषैश्‍च रूपैश्‍च त्रिषु लोकेषु भार्गव ॥

(महा आश्‍व ५४ । १३-१४)

मैं धर्मकी रक्षा और स्थापनाके लिये तीनों लोकोंमें बहुत-सी योनियोंमें अवतार धारण करके उन-उन रूपों और वेषोंद्वारा तदनुरूप बर्ताव करता हूँ ।’

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒भगवान् भी अवतारकालमें सदा कर्तव्य-कर्ममें लगे रहते हैं, इसलिये जो साधक फलेच्छा व आसक्ति-रहित होकर सदा कर्तव्य-कर्ममें लगा रहता है, वह सुगमतापूर्वक भगवान्‌को प्राप्‍त हो जाता है ।

രരരരരരരരരര