Listen सम्बन्ध‒अब भगवान् आगेके तीन श्लोकोंमें अपना
उदाहरण देकर लोकसंग्रहकी पुष्टि करते हैं । सूक्ष्म विषय‒भगवान्के द्वारा लोकसंग्रह । न मे पार्थास्ति
कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन । नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥ २२ ॥ अर्थ‒हे पार्थ ! मुझे तीनों लोकोंमें न
तो कुछ कर्तव्य है और न कोई प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है, फिर भी मैं कर्तव्यकर्ममें ही लगा रहता हूँ ।
व्याख्या‒‘न मे
पार्थास्ति....नानवाप्तमवाप्तव्यम्’‒भगवान् किसी एक लोकमें सीमित नहीं हैं
। इसलिये वे तीनों लोकोंमें अपना कोई कर्तव्य न होनेकी बात कह रहे हैं । भगवान्के लिये त्रिलोकीमें कोई भी
कर्तव्य शेष नहीं है; क्योंकि उनके लिये कुछ भी पाना शेष
नहीं है । कुछ-न-कुछ पानेके लिये ही सब (मनुष्य, पशु, पक्षी आदि) कर्म करते हैं । भगवान् उपर्युक्त पदोंमें
बहुत विलक्षण बात कह रहे हैं कि कुछ भी करना और पाना शेष न होनेपर भी मैं कर्म करता
हूँ ! अपने लिये कोई कर्तव्य न होनेपर भी
भगवान् केवल दूसरोंके हितके लिए अवतार लेते हैं और साधु पुरुषोंका उद्धार, पापी पुरुषोंका विनाश तथा धर्मकी संस्थापना करनेके लिये
कर्म करते हैं (गीता ४ । ८) । अवतारके सिवाय भगवान्की सृष्टि-रचना भी जीवमात्रके
उद्धारके लिये ही होती है । स्वर्गलोक पुण्यकर्मोंका फल भुगतानेके लिये है और चौरासी
लाख योनियाँ एवं नरक पाप-कर्मोंका फल भुगतानेके लिये हैं । मनुष्य-योनि पुण्य और पाप‒दोनोंसे ऊँचे उठकर अपना कल्याण करनेके
लिये है । ऐसा तभी सम्भव है, जब मनुष्य अपने लिये कुछ न करे । वह सम्पूर्ण कर्म‒स्थूल शरीरसे होनेवाली ‘क्रिया’, सूक्ष्म शरीरसे होनेवाला ‘चिन्तन’ और कारण शरीरसे होनेवाली ‘स्थिरता’ केवल दूसरोंके हितके लिये ही करे, अपने लिये नहीं । कारण कि जिनसे सब कर्म किये जाते हैं, वे स्थूल, सूक्ष्म और कारण‒तीनों ही शरीर संसारके हैं, अपने नहीं । इसलिये कर्मयोगी शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदि सम्पूर्ण सामग्रीको (जो वास्तवमें संसारकी
ही है) संसारकी ही मानता है और उसे संसारकी सेवामें लगाता है । अगर मनुष्य संसारकी वस्तुको संसारकी सेवामें न लगाकर अपने सुख-भोगमें
लगाता है तो बड़ी भारी भूल करता है । संसारकी वस्तुको अपनी मान लेनेसे ही फलकी
इच्छा होती है और फलप्राप्तिके लिये कर्म होता है । इस तरह जबतक मनुष्य कुछ पानेकी
इच्छासे कर्म करता है, तबतक उसके लिये कर्तव्य अर्थात् ‘करना’ शेष रहता है । गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो मालूम
होता है कि मनुष्यमात्रका अपने लिये कोई कर्तव्य है ही नहीं । कारण कि प्रापणीय वस्तु
(परमात्मतत्त्व) नित्यप्राप्त है और स्वयं (स्वरूप) भी नित्य है, जबकि कर्म और कर्म-फल अनित्य अर्थात् उत्पन्न एवं नष्ट
होनेवाला है । अनित्य (कर्म और फल)-का सम्बन्ध नित्य (स्वयं)-के साथ हो ही कैसे सकता
है ! कर्मका सम्बन्ध ‘पर’ (शरीर और संसार)-से है, ‘स्व’ से नहीं । कर्म सदैव ‘पर’ के द्वारा और ‘पर’ के लिये ही होता है । इसलिये अपने लिये कुछ करना है ही नहीं । जब मनुष्यमात्रके
लिये कोई कर्तव्य नहीं है, तब भगवान्के लिये कोई कर्तव्य हो ही कैसे सकता है ! कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषके लिये
भगवान्ने इसी अध्यायके सत्रहवें-अठारहवें श्लोकोंमें कहा है कि उस महापुरुषके लिये
कोई कर्तव्य नहीं है; क्योंकि उसकी रति, तृप्ति और संतुष्टि अपने-आपमें ही होती है । इसलिये
उसे संसारमें करने अथवा न करनेसे कोई प्रयोजन नहीं रहता तथा उसका किसी भी प्राणीसे
किंचिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता । ऐसा होनेपर भी वह महापुरुष लोकसंग्रहार्थ
कर्म करता है । इसी प्रकार यहाँ भगवान् अपने लिये कहते हैं कि कोई भी कर्तव्य न होने
तथा कुछ भी पाना बाकी न होनेपर भी मैं लोकसंग्रहार्थ कर्म करता हूँ । तात्पर्य है कि
तत्त्वज्ञ महापुरुषकी भगवान्के साथ एकता होती है‒‘मम साधर्म्यमागताः’ (गीता १४ । २) । जैसे भगवान् त्रिलोकीमें आदर्श पुरुष
हैं (गीता‒तीसरे अध्यायका तेईसवाँ और चौथे अध्यायका ग्यारहवाँ श्लोक), ऐसे ही संसारमें
तत्त्वज्ञ पुरुष भी आदर्श हैं (गीता‒तीसरे अध्यायका पचीसवाँ श्लोक) । ‘वर्त एव च कर्मणि’‒यहाँ ‘एव’ पदसे भगवान्का तात्पर्य है कि मैं उत्साह एवं तत्परतासे, आलस्यरहित होकर, सावधानीपूर्वक, सांगोपांग कर्तव्यकर्मोंको करता हूँ
। कर्मोंका न त्याग करता हूँ, न उपेक्षा । जैसे इंजनके पहियोंके चलनेसे इंजनसे
जुड़े हुए डिब्बे भी चलते रहते हैं, ऐसे ही भगवान् और सन्त-महापुरुष (जिनमें करने और पानेकी इच्छा नहीं है) इंजनके
समान कर्तव्य-कर्म करते हैं, जिससे अन्य मनुष्य भी उन्हींका अनुसरण करते हैं । अन्य मनुष्योंमें करने और पानेकी इच्छा रहती है । ये इच्छाएँ निष्कामभावपूर्वक
कर्तव्य-कर्म करनेसे ही दूर होती हैं । यदि भगवान् और सन्त-महापुरुष कर्तव्य-कर्म
न करें तो दूसरे मनुष्य भी कर्तव्य-कर्म नहीं करेंगे, जिससे उनमें प्रमाद-आलस्य आ जायगा और वे अकर्तव्य करने
लग जायँगे ! फिर उन मनुष्योंकी इच्छाएँ कैसे मिटेंगी ! इसलिये सम्पूर्ण मनुष्योंके
हितके लिये भगवान् और सन्त-महापुरुषोंके द्वारा स्वाभाविक ही कर्तव्य-कर्म होते हैं
। भगवान् सदैव कर्तव्यपरायण रहते हैं,
कभी कर्तव्यच्युत नहीं होते । अतः भगवत्परायण साधकको भी कभी कर्तव्यच्युत नहीं होना
चाहिये । कर्तव्यच्युत होनेसे ही वह भगवत्तत्त्वके अनुभवसे वंचित रहता है । नित्य कर्तव्य-परायण रहनेसे साधकको भगवत्तत्त्वका अनुभव सुगमतापूर्वक
हो सकता है । परिशिष्ट भाव‒महाभारतमें भगवान्ने उत्तंक ऋषिको
भी तीनों लोकोंमें अपना कर्तव्य बताया है‒ धर्मसंरक्षणार्थाय धर्मसंस्थापनाय च । तैस्तैर्वेषैश्च रूपैश्च
त्रिषु लोकेषु भार्गव ॥ (महा॰ आश्व॰ ५४ । १३-१४) ‘मैं धर्मकी रक्षा और स्थापनाके लिये तीनों लोकोंमें बहुत-सी
योनियोंमें अवतार धारण करके उन-उन रूपों और वेषोंद्वारा तदनुरूप बर्ताव करता हूँ ।’
गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒भगवान् भी अवतारकालमें सदा कर्तव्य-कर्ममें
लगे रहते हैं, इसलिये जो साधक फलेच्छा व आसक्ति-रहित
होकर सदा कर्तव्य-कर्ममें लगा रहता है, वह सुगमतापूर्वक भगवान्को प्राप्त हो जाता है । രരരരരരരരരര |