।। श्रीहरिः ।।

  


  आजकी शुभ तिथि–
अधिक श्रावण कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०८०, रविवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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विशेष बात

जिस प्रकार समुद्रका ही अंश होनेके कारण लहर और समुद्रमें जातीय एकता है अर्थात् जिस जातिकी लहर है, उसी जातिका समुद्र है, उसी प्रकार संसारका ही अंश होनेके कारण शरीरकी संसारसे जातीय एकता है । मनुष्य संसारको तो मैं’ नहीं मानता, पर भूलसे शरीरको मैं’ मान लेता है ।

जिस प्रकार समुद्रके बिना लहरका अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, उसी प्रकार संसारके बिना शरीरका अपना कोई अस्तित्व नहीं है । परन्तु अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला मनुष्य जब शरीरकोमैं’ (अपना स्वरूप) मान लेता है, तब उसमें अनेक प्रकारकी कामनाएँ उत्पन्‍न होने लगती हैं; जैसे‒मुझे स्‍त्री, पुत्र, धन आदि पदार्थ मिल जायँ, लोग मुझे अच्छा समझें, मेरा आदर-सम्मान करें, मेरे अनुकूल चलें इत्यादि । उसका इस ओर ध्यान ही नहीं जाता कि शरीरको अपना स्वरूप मानकर मैं पहलेसे ही बँधा बैठा हूँ, अब कामनाएँ करके और बन्धन बढ़ा रहा हूँ‒अपनेको और विपत्तिमें डाल रहा हूँ ।

साधनकालमें मैं (स्वयं) प्रकृतिजन्य गुणोंसे सर्वथा अतीत हूँ’ऐसा अनुभव न होनेपर भी जब साधक ऐसा मान लेता है, तब उसे वैसा ही अनुभव हो जाता है । इस प्रकार जैसे वह गलत मान्यता करके बँधा था, ऐसे ही सही मान्यता करके मुक्त हो जाता है; क्योंकि मानी हुई बात न माननेसे मिट जाती है‒यह सिद्धान्त है । इसी बातको भगवान्‌ने पाँचवें अध्यायके आठवें श्‍लोकमें‒नैव किंचित् करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्’ पदोंमें मन्येत’ पदसे प्रकट किया है कि मैं कर्ता हूँ’इस अवास्तविक मान्यताको मिटानेके लिये मैं कुछ भी नहीं करता’ऐसी वास्तविक मान्यता करनी होगी ।

‘मैं शरीर हूँ; मैं कर्ता हूँ’ आदि असत्य मान्यताएँ भी इतनी दृढ़ हो जाती हैं कि उन्हें छोड़ना कठिन मालूम देता है; फिर मैं शरीर नहीं हूँ; मैं अकर्ता हूँ’ आदि सत्य मान्यताएँ दृढ़ कैसे नहीं होंगी ? और एक बार दृढ़ हो जानेपर फिर कैसे छूटेंगी ?

परिशिष्‍ट भाव‒सम्पूर्ण क्रियाएँ जड़-विभागमें ही होती हैं । चेतन-विभागमें कभी किंचिन्मात्र भी कोई क्रिया नहीं होती । अहंकारसे अन्तःकरण मोहित होनेके कारण अज्ञानी मनुष्यमैं कर्ता हूँ’ऐसा मान लेता है । अहंकारसे अन्तःकरण मोहित होनेका तात्पर्य है‒अपरा प्रकृतिके अंश अहम्‌के साथ अपना सम्बन्ध मान लेना अर्थात् अहम्‌को अपना स्वरूप मान लेना कि यही मैं हूँ । इसीको तादात्म्य कहते हैं ।

अपनेको कर्ता माननेवाला तो चेतन है, पर वह जड़ अहम्‌को अपना स्वरूप मान लेता है । तात्पर्य है कि अहम्‌को अपना स्वरूप माननेवाला, अपनेको एकदेशीय माननेवाला स्वयं परमात्माका अंश है । उस स्वयंमें कर्तापन सम्भव ही नहीं है (गीता‒तेरहवें अध्यायका उनतीसवाँ श्‍लोक) । वास्तवमें स्वयं शरीरसे मिल सकता ही नहीं‒शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३ । ३१), पर मनुष्य मिला हुआ मान लेता है‒कर्ताहमिति मन्यते ।’ वास्तवमें तादात्म्य होता नहीं, प्रत्युत तादात्म्य माना जाता है । तात्पर्य है कि स्वयं कर्ता बनता नहीं, केवल अविवेकपूर्वक अपनेमें कर्तापनकी मान्यता कर लेता है‒मन्यते ।’ अपनेको कर्ता मानते ही उसपर शास्‍त्रीय विधि-निषेध लागू हो जाते हैं और उसको कर्मफलका भोक्ता बनना पड़ता है ।

स्वरूप (स्वयं)-में कोई क्रिया नहीं है । क्रिया वहीं होती है, जहाँ कुछ खाली जगह हो । सर्वथा ठोस स्वरूपमें क्रिया कैसे हो सकती है ? परन्तु अपनेको कर्ता मान लेनेसे वह प्रकृतिकी जिस क्रियाके साथ सम्बन्ध जोड़ता है, वह क्रिया उसके लिये फलजनककर्म’ बन जाती है, जिसका फल उसको भोगना ही पड़ता है । कारण कि जो कर्ता होता है, वही भोक्ता होता है ।

स्वरूपका कारकमात्रसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद है । इसलिये स्वरूपमें लेशमात्र भी कर्तृत्व नहीं है । कर्तृत्वका विभाग ही अलग है । आजतक देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, यक्ष, राक्षस आदि अनेक शरीरों (योनियों)-में जो भी कर्म किये गये हैं, उनमेंसे कोई भी कर्म स्वरूपतक नहीं पहुँचा तथा कोई भी शरीर स्वरूपतक नहीं पहुँचा; क्योंकि कर्म और पदार्थ (शरीर)-का विभाग ही अलग है और स्वरूपका विभाग ही अलग है । परन्तु इस विवेकको महत्त्व न देनेके कारण मनुष्य कर्म और फलमें बँध जाता है ।

जबतक करना’ है, तबतक अहंकारके साथ सम्बन्ध है; क्योंकि अहंकार (कर्तापन)-के बिना करना’ सिद्ध नहीं होता । करनेका भाव होनेपर कर्तृत्वाभिमान हो ही जाता है । कर्तृत्वाभिमान होनेसे करना’ होता है और करनेसे कर्तृत्वाभिमान पुष्‍ट होता है । इसलिये किये हुए साधनसे साधक कभी अहंकाररहित हो ही नहीं सकता । अहंकारपूर्वक किया गया कर्म कभी कल्याण नहीं कर सकता; क्योंकि सब अनर्थोंका, जन्म-मरणका मूल अहंकार ही है । अपने लिये कुछ न करनेसे अहंकारके साथ सम्बन्ध नहीं रहता अर्थात् प्रकृतिमात्रसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । इसलिये साधकको चाहिये कि वह क्रियाको महत्त्व न देकर अपने विवेकको महत्त्व दे । विवेकको महत्त्व देनेसे विवेक स्वतः स्पष्‍ट होता रहता है और साधकका मार्गदर्शन करता रहता है । आगे चलकर यह विवेक ही तत्त्वज्ञानमें परिणत हो जाता है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒जड़-विभाग अलग है और चेतन-विभाग अलग है । क्रियामात्र जड़ प्रकृतिमें ही होती है । चेतनमें कभी कोई क्रिया होती ही नहीं‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३ । ३१) । क्रियाका आरम्भ और समाप्‍ति तथा पदार्थका आदि और अन्त होता है; परन्तु चेतनका न आरम्भ तथा समाप्‍ति होती है, न आदि तथा अन्त होता है ।

भगवान्‌ने गीतामें कर्मोंके होनेमें पाँच कारण बताये हैं‒

(१) प्रकृति‒‘प्रकृतेः क्रियमाणानि’ (३ । २७), ‘प्रकृत्यैव च कर्माणि’ (१३ । २९) ।

(२) गुण‒‘गुणा गुणेषु वर्तन्ते’ (३ । २८ ), ‘नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं (१४ । १९) ।

(३) इन्द्रियाँ‒‘इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते’ (५ । ९) ।

(४) स्वभाव‒(क्रियाका वेग)‒‘स्वभावस्तु प्रवर्तते’ (५ । १४), ‘प्रकृतिं यान्ति भूतानि (३ । ३३) ।

(५) पाँचहेतु‒‘अधिष्ठनं तथा कर्ता (१८ । १४) ।

उपर्युक्त पाँचोंका मूल कारण एक ‘अपरा प्रकृति’ (जड़-विभाग) ही है । आजतक अनेक योनियोंमें जीवने जो भी कर्म किये हैं, उनमेंसे कोई भी कर्म तथा कोई भी शरीर स्वरूपतक नहीं पहुँचा । सूर्यतक अंधकार कैसे पहुँच सकता है ? कारण कि कर्म और शरीरादि पदार्थोंका विभाग ही अलग है और स्वरूपका विभाग ही अलग है ।

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