Listen सम्बन्ध‒ज्ञानी और अज्ञानीमें क्या अन्तर है‒इसको भगवान् आगेके श्लोकमें
बताते है । सूक्ष्म विषय‒अज्ञानी मनुष्यके कर्मका प्रकार । प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि
सर्वशः । अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥ २७
॥ अर्थ‒सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिके
गुणोंद्वारा किये जाते हैं; परन्तु अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला अज्ञानी मनुष्य मैं
कर्ता हूँ‒ऐसा मान लेता है ।
व्याख्या‒‘प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि
सर्वशः’‒जिस समष्टि शक्तिसे शरीर, वृक्ष आदि पैदा होते और बढ़ते-घटते हैं,
गंगा आदि नदियाँ प्रवाहित होती हैं,
मकान आदि पदार्थोंमें परिवर्तन होता है,
उसी समष्टि शक्तिसे मनुष्यकी देखना,
सुनना, खाना-पीना आदि सब क्रियाएँ होती हैं । परन्तु मनुष्य अहंकारसे
मोहित होकर, अज्ञानवश एक ही समष्टि शक्तिसे होनेवाली क्रियाओंके दो विभाग कर लेता है‒एक तो
स्वतः होनेवाली क्रियाएँ; जैसे‒शरीरका बनना, भोजनका पचना इत्यादि; और दूसरी, ज्ञानपूर्वक होनेवाली क्रियाएँ;
जैसे‒देखना, बोलना, भोजन करना इत्यादि । ज्ञानपूर्वक होनेवाली क्रियाओंको मनुष्य
अज्ञानवश अपने द्वारा की जानेवाली मान लेता है । प्रकृतिसे उत्पन्न गुणों (सत्त्व, रज और तम)-का कार्य होनेसे बुद्धि,
अहंकार, मन, पंचमहाभूत, दस इन्द्रियाँ और इन्द्रियोंके शब्दादि पाँच विषय‒ये भी प्रकृतिके
गुण कहे जाते हैं । उपर्युक्त पदोंमें भगवान् स्पष्ट करते हैं कि सम्पूर्ण क्रियाएँ
(चाहे समष्टिकी हों या व्यष्टिकी) प्रकृतिके गुणों द्वारा ही की जाती हैं,
स्वरूपके द्वारा नहीं । ‘अहङ्कारविमूढात्मा’‒‘अहंकार’ अन्तःकरणकी एक वृत्ति है । ‘स्वयं’ (स्वरूप) उस वृत्तिका ज्ञाता है । परन्तु भूलसे ‘स्वयं’ को उस वृत्तिसे मिलाने अर्थात् उस वृत्तिको ही अपना स्वरूप मान
लेनेसे यह मनुष्य विमूढात्मा कहा जाता है । जैसे शरीर ‘इदम्’
(यह) है ?
ऐसे ही अहंकार भी ‘इदम्’
(यह) है ।
‘इदम्’
(यह) कभी
‘अहम्’
(मैं) नहीं हो सकता‒यह सिद्धान्त
है । जब मनुष्य भूलसे ‘इदम्’
को ‘अहम्’ अर्थात् ‘यह’
को ‘मैं’
मान लेता है, तब वह ‘अहङ्कारविमूढात्मा’
कहलाता है । यह माना हुआ अहंकार उद्योग करनेसे नहीं मिटता;
क्योंकि उद्योग करनेमें भी अहंकार रहता है । माना हुआ अहंकार
मिटता है‒अस्वीकृतिसे अर्थात् ‘न मानने’ से । विशेष बात ‘अहम्’
दो प्रकारका होता है‒ (१)
वास्तविक (आधाररूप) ‘अहम्’१; जैसे‒‘मैं हूँ’ (अपनी सत्तामात्र) । १.जिसको यहाँ ‘वास्तविक अहम्’ कहा है वह वास्तवमें ‘अहम्’ नहीं है प्रत्युत सत्-रूप, चित्-रूप तत्त्व है । उसको ‘वास्तविक अहम्’ इसलिये कहा है कि वह कभी बदलता नहीं, जबकि ‘अवास्तविक अहम्’ बदलता है । जैसे, कोई व्यक्ति पढ़ा-लिखा नहीं है, तो वह कहता है कि ‘मैं मूर्ख हूँ, अपढ़ हूँ’ और पढ़-लिखकर वही व्यक्ति कहता है कि ‘मैं विद्वान् हूँ, पढ़ा-लिखा हूँ’ । इस प्रकार ‘अहम्’ के बदलनेपर भी अपनी सत्ता (‘मैं हूँ’) नहीं बदली । माने हुए ‘अहम्’ के साथ सदा रहनेसे ही उस सत्ताको ‘वास्तविक अहम्’ कहते हैं । माने हुए ‘अहम्’ का साथ मिटते ही अर्थात् वहाँसे दृष्टि
हटते ही वह ‘वास्तविक अहम्’ सच्चिदानन्दस्वरूप हो जाता है । (२) अवास्तविक (माना हुआ)
‘अहम्’;
जैसे‒‘मैं शरीर हूँ’ । ‘वास्तविक अहम्’ स्वाभाविक एवं नित्य और ‘अवास्तविक अहम्’ अस्वाभाविक एवं अनित्य होता है । अतः
‘वास्तविक अहम्’
विस्मृत तो हो सकता है, पर मिट नहीं सकता; और ‘अवास्तविक अहम्’ प्रतीत तो हो सकता है, पर टिक नहीं सकता । मनुष्यसे भूल यह होती है कि वह ‘वास्तविक
अहम्’ (अपने
स्वरूप)-को विस्मृत करके ‘अवास्तविक अहम्’ (मैं शरीर हूँ)-को ही सत्य मान लेता है । ‘कर्ताहमिति
मन्यते’‒यद्यपि सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिजन्य गुणोंके द्वारा
ही किये जाते हैं, तथापि अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला अज्ञानी मनुष्य कुछ कर्मोंका
कर्ता अपनेको मान लेता है । कारण कि वह अहंकारको ही अपना स्वरूप मान बैठता है । अहंकारके
कारण ही मनुष्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदिमें ‘मैं’-पन कर लेता है और उन (शरीरादि)-की क्रियाओंका कर्ता अपनेको मान
लेता है । यह विपरीत मान्यता मनुष्यने स्वयं की है, इसलिये
इसको मिटा भी वही सकता है । इसको मिटानेका उपाय है‒इसे विवेक-विचारपूर्वक न मानना;
क्योंकि मान्यतासे ही मान्यता कटती है ।
एक ‘करना’ होता है, और एक ‘न करना’ । जैसे ‘करना’ क्रिया है, ऐसे ही ‘न करना’ भी क्रिया है । सोना, जागना, बैठना, चलना, समाधिस्थ होना आदि सब क्रियाएँ हैं । क्रिया मात्र प्रकृतिमें
होती है । ‘स्वयं’ (चेतन स्वरूप)-में करना और न करना‒दोनों ही नहीं हैं;
क्योंकि वह इन दोनोंसे परे है । वह अक्रिय और सबका प्रकाशक है
। यदि ‘स्वयं’ में भी क्रिया होती, तो वह क्रिया (शरीरादिमें परिवर्तनरूप क्रियाओं)-का ज्ञाता कैसे
होता ?
करना और न करना वहाँ होता है, जहाँ ‘अहम्’ (मैं) रहता है । ‘अहम्’ न रहनेपर क्रियाके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता । करना और न करना‒दोनों
जिससे प्रकाशित होते हैं, उस अक्रिय तत्त्व (अपने स्वरूप)-में मनुष्यमात्रकी स्वाभाविक
स्थिति है । परन्तु ‘अहम्’ के कारण मनुष्य प्रकृतिमें होनेवाली क्रियाओंसे अपना सम्बन्ध
मान लेता है । प्रकृति (जड)-से माना हुआ सम्बन्ध ही ‘अहम्’ कहलाता है । രരരരരരരരരര |