।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
अधिक श्रावण कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०८०, शनिवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒ज्ञानी और अज्ञानीमें क्या अन्तर है‒इसको भगवान्‌ आगेके श्‍लोकमें बताते है

सूक्ष्म विषय‒अज्ञानी मनुष्यके कर्मका प्रकार ।

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।

      अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति  मन्यते ॥ २७ ॥

अर्थ‒सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिके गुणोंद्वारा किये जाते हैं; परन्तु अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला अज्ञानी मनुष्य मैं कर्ता हूँ‒ऐसा मान लेता है ।

कर्माणि = सम्पूर्ण कर्म

अहङ्कारविमूढात्मा = अहंकारसे मोहित अन्‍तःकरणवाला अज्ञानी मनुष्य

सर्वशः = सब प्रकारसे

अहम्‌ = मैं

प्रकृतेः = प्रकृतिके

कर्ता = कर्ता हूँ‒

गुणैः = गुणोंद्वारा

इति = ऐसा

क्रियमाणानि = किये जाते हैं; (परन्तु)

मन्यते = मान लेता है ।

व्याख्याप्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः’जिस समष्‍टि शक्तिसे शरीर, वृक्ष आदि पैदा होते और बढ़ते-घटते हैं, गंगा आदि नदियाँ प्रवाहित होती हैं, मकान आदि पदार्थोंमें परिवर्तन होता है, उसी समष्‍टि शक्तिसे मनुष्यकी देखना, सुनना, खाना-पीना आदि सब क्रियाएँ होती हैं । परन्तु मनुष्य अहंकारसे मोहित होकर, अज्ञानवश एक ही समष्‍टि शक्तिसे होनेवाली क्रियाओंके दो विभाग कर लेता है‒एक तो स्वतः होनेवाली क्रियाएँ; जैसे‒शरीरका बनना, भोजनका पचना इत्यादि; और दूसरी, ज्ञानपूर्वक होनेवाली क्रियाएँ; जैसे‒देखना, बोलना, भोजन करना इत्यादि । ज्ञानपूर्वक होनेवाली क्रियाओंको मनुष्य अज्ञानवश अपने द्वारा की जानेवाली मान लेता है ।

प्रकृतिसे उत्पन्‍न गुणों (सत्त्व, रज और तम)-का कार्य होनेसे बुद्धि, अहंकार, मन, पंचमहाभूत, दस इन्द्रियाँ और इन्द्रियोंके शब्दादि पाँच विषय‒ये भी प्रकृतिके गुण कहे जाते हैं । उपर्युक्त पदोंमें भगवान् स्पष्‍ट करते हैं कि सम्पूर्ण क्रियाएँ (चाहे समष्‍टिकी हों या व्यष्‍टिकी) प्रकृतिके गुणों द्वारा ही की जाती हैं, स्वरूपके द्वारा नहीं ।

अहङ्कारविमूढात्मा’‒‘अहंकार’ अन्‍तःकरणकी एक वृत्ति है ।स्वयं’ (स्वरूप) उस वृत्तिका ज्ञाता है । परन्तु भूलसे स्वयं’ को उस वृत्तिसे मिलाने अर्थात् उस वृत्तिको ही अपना स्वरूप मान लेनेसे यह मनुष्य विमूढात्मा कहा जाता है ।

जैसे शरीर इदम्’ (यह) है ? ऐसे ही अहंकार भी इदम्’ (यह) है । इदम्’ (यह) कभी अहम्’ (मैं) नहीं हो सकता‒यह सिद्धान्त है । जब मनुष्य भूलसे इदम्’ को अहम्’ अर्थात् यह’ को मैं’ मान लेता है, तब वह अहङ्कारविमूढात्मा’ कहलाता है । यह माना हुआ अहंकार उद्योग करनेसे नहीं मिटता; क्योंकि उद्योग करनेमें भी अहंकार रहता है । माना हुआ अहंकार मिटता है‒अस्वीकृतिसे अर्थात्न मानने’ से ।

विशेष बात

अहम्’ दो प्रकारका होता है‒

(१)        वास्तविक (आधाररूप) अहम्’; जैसे‒मैं हूँ’ (अपनी सत्तामात्र) ।

१.जिसको यहाँवास्तविक अहम्’ कहा है वह वास्तवमेंअहम्’ नहीं है प्रत्युत सत्-रूप, चित्-रूप तत्त्व है । उसको वास्तविक अहम्’ इसलिये कहा है कि वह कभी बदलता नहीं, जबकिअवास्तविक अहम्’ बदलता है । जैसे, कोई व्यक्ति पढ़ा-लिखा नहीं है, तो वह कहता है किमैं मूर्ख हूँ, अपढ़ हूँ’ और पढ़-लिखकर वही व्यक्ति कहता है किमैं विद्वान् हूँ, पढ़ा-लिखा हूँ’ । इस प्रकार अहम्’ के बदलनेपर भी अपनी सत्ता (मैं हूँ’) नहीं बदली । माने हुएअहम्’ के साथ सदा रहनेसे ही उस सत्ताको वास्तविक अहम्’ कहते हैं । माने हुएअहम्’ का साथ मिटते ही अर्थात् वहाँसे दृष्‍टि हटते ही वहवास्तविक अहम्’ सच्‍चिदानन्दस्वरूप हो जाता है ।

(२) अवास्तविक (माना हुआ) अहम्’; जैसे‒मैं शरीर हूँ’

वास्तविक अहम्’ स्वाभाविक एवं नित्य और अवास्तविक अहम्’ अस्वाभाविक एवं अनित्य होता है । अतःवास्तविक अहम्’ विस्मृत तो हो सकता है, पर मिट नहीं सकता; औरअवास्तविक अहम्’ प्रतीत तो हो सकता है, पर टिक नहीं सकता । मनुष्यसे भूल यह होती है कि वह वास्तविक अहम्’ (अपने स्वरूप)-को विस्मृत करके अवास्तविक अहम्’ (मैं शरीर हूँ)-को ही सत्य मान लेता है ।

कर्ताहमिति मन्यते’यद्यपि सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिजन्य गुणोंके द्वारा ही किये जाते हैं, तथापि अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला अज्ञानी मनुष्य कुछ कर्मोंका कर्ता अपनेको मान लेता है । कारण कि वह अहंकारको ही अपना स्वरूप मान बैठता है । अहंकारके कारण ही मनुष्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदिमें मैं’-पन कर लेता है और उन (शरीरादि)-की क्रियाओंका कर्ता अपनेको मान लेता है । यह विपरीत मान्यता मनुष्यने स्वयं की है, इसलिये इसको मिटा भी वही सकता है । इसको मिटानेका उपाय है‒इसे विवेक-विचारपूर्वक न मानना; क्योंकि मान्यतासे ही मान्यता कटती है ।

एक करना’ होता है, और एक न करना’ । जैसेकरना’ क्रिया है, ऐसे हीन करना’ भी क्रिया है । सोना, जागना, बैठना, चलना, समाधिस्थ होना आदि सब क्रियाएँ हैं । क्रिया मात्र प्रकृतिमें होती है ।स्वयं’ (चेतन स्वरूप)-में करना और न करना‒दोनों ही नहीं हैं; क्योंकि वह इन दोनोंसे परे है । वह अक्रिय और सबका प्रकाशक है । यदि स्वयं’ में भी क्रिया होती, तो वह क्रिया (शरीरादिमें परिवर्तनरूप क्रियाओं)-का ज्ञाता कैसे होता ? करना और न करना वहाँ होता है, जहाँअहम्’ (मैं) रहता है ।अहम्’ न रहनेपर क्रियाके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता । करना और न करना‒दोनों जिससे प्रकाशित होते हैं, उस अक्रिय तत्त्व (अपने स्वरूप)-में मनुष्यमात्रकी स्वाभाविक स्थिति है । परन्तु अहम्’ के कारण मनुष्य प्रकृतिमें होनेवाली क्रियाओंसे अपना सम्बन्ध मान लेता है । प्रकृति (जड)-से माना हुआ सम्बन्ध ही अहम्’ कहलाता है ।

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