।। श्रीहरिः ।।

    


  आजकी शुभ तिथि–
अधिक श्रावण कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०८०, शुक्रवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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विशेष बात

मनुष्य जबतक निष्कामभावपूर्वक विहित-कर्म नहीं करता, तबतक उसका जन्म-मरण नहीं मिट सकता । वह जबतक अपने लिये कर्म करता है, तबतक वह कृतकृत्य नहीं होता अर्थात् उसकाकरना’ समाप्‍त नहीं होता । कारण किस्वयं’ नित्य रहनेवाला है और कर्म एवं उसका फल नष्‍ट होनेवाला है । अतः प्रत्येक मनुष्यके लिये स्वार्थ-त्यागपूर्वक (अपने लिये न करके केवल दूसरोंके हितके लिये) कर्तव्य-कर्म करनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है ।

सांसारिक पदार्थोंको मूल्यवान् समझनेके कारण ही कर्मयोग (निष्कामभावपूर्वक कर्तव्य-कर्म)-के पालनमें कठिनाई प्रतीत होती है । हमें दूसरोंसे कुछ न चाहकर केवल दूसरोंके हितके लिये सब कर्म करने हैं‒इस बातको यदि स्वीकार कर लें तो आज ही कर्मयोगका पालन सुगम हो जाय ।

वास्तवमें महत्ता पदार्थकी नहीं, प्रत्युत आचरण (उसके उपयोग)-की ही होती है । आचरणकी महत्ता भी तब है, जब अन्तःकरणमें पदार्थकी महत्ता न हो । कोई भी पदार्थ व्यक्तिगत नहीं है; केवल उपयोगके लिये ही व्यक्तिगत है । पदार्थको व्यक्तिगत माननेसे ही परहितके लिये उसका त्याग कठिन प्रतीत होता है । कोई भी पदार्थ या क्रिया बन्धनकारक नहीं, उनका सम्बन्ध ही बन्धनकारक है ।

विद्वान् पुरुषोंसे भी लोकसंग्रहके लिये सब कर्म होते हैं । परन्तु ऐसा होते हुए भी उनमेंमैं लोकसंग्रह कर रहा हूँ’यह अभिमान नहीं रहता । कारण यह है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, विद्या, योग्यता, पद आदि सब संसारके हैं और संसारसे मिले हैं । संसारसे मिली सामग्रीको संसारकी ही सेवामें लगा देना ईमानदारी है । उस सामग्रीको बहुत सच्‍चाईसे, ईमानदारीसे संसारके अर्पण कर देना है । यह अर्पण करना कोई बड़ा काम नहीं है । जैसे किसीने हमारे पास धरोहररूपसे रुपये रखे और कुछ समय बाद उसके माँगनेपर हमने उसके रुपये उसे वापस कर दिये, तो कौन-सा बड़ा काम किया ? हाँ, हमारा दायित्व समाप्‍त हो गया, हम ऋणमुक्त हो गये । इसी प्रकार संसारकी वस्तु संसारके अर्पण कर देनेसे हमारा दायित्व समाप्‍त हो जाता है, हम ऋणमुक्त हो जाते हैंजन्म-मरणके बन्धनसे सदाके लिये छूट जाते हैं । इसलिये सांसारिक पदार्थोंको संसारकी सेवामें लगाकर कोई दान-पुण्य नहीं करना है, प्रत्युत उन पदार्थोंसे अपना पिण्ड छुड़ाना है ।

न बुद्धिभेदं.........विद्वान्युक्तः समाचरन्पचीसवें श्‍लोकमें असक्तः, विद्वान्’ पदोंसे जिसका वर्णन हुआ है, उसी आसक्तिरहित विद्वान्‌को यहाँ युक्तः, विद्वान् पदोंसे कहा गया है ।

जिसके अन्तःकरणमें स्वतः-स्वाभाविक समता है, जिसकी स्थिति निर्विकार है, जिसकी समस्त इन्द्रियाँ अच्छी तरह जीती हुई हैं और जिसके लिये मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण समान हैं ऐसा तत्त्वज्ञ महापुरुष ही युक्तः, विद्वान् कहलाता है (गीता‒छठे अध्यायका आठवाँ श्‍लोक) ।

पीछेके (पचीसवें) श्‍लोकमें सक्ताः, अविद्वांसः’ पदोंसे जिनका वर्णन हुआ है, उन्हीं शास्‍त्रविहित शुभकर्मोंमें आसक्तिवाले अज्ञानी पुरुषोंको यहाँ कर्मसङ्गिनाम्, अज्ञानाम् पदोंसे कहा गया है ।

शास्‍त्रविहित कर्मोंको अपने लिये (सुख-भोग, मान, बड़ाई आदिकी प्राप्‍तिके लिये) करनेके कारण इन पुरुषोंकोकर्मसंगी’ औरअज्ञानी’ कहा गया है ।

श्रेष्‍ठ पुरुषपर विशेष जिम्मेवारी होती है; क्योंकि दूसरे लोग स्वाभाविक ही उसका अनुसरण करते हैं । इसलिये भगवान् उपर्युक्त पदोंसे विद्वान्‌को आज्ञा देते हैं कि उसे ऐसा कोई आचरण नहीं करना चाहिये और ऐसी कोई बात नहीं कहनी चाहिये, जिसे अज्ञानी (कामनायुक्त) पुरुषोंका वर्तमान स्थितिसे पतन हो जाय । अज्ञानी पुरुष अभी जिस स्थितिमें हैं, उस स्थितिसे उन्हें विचलित करना (नीचे गिराना) ही उनमें बुद्धिभेद’ उत्पन्‍न करना है । अतः विद्वान्‌को सबके हितका भाव रखते हुए अपने वर्णाश्रमधर्मके अनुसार शास्‍त्रविहित शुभ-कर्मोंका आचरण करते रहना चाहिये, जिससे दूसरे पुरुषोंको भी निष्कामभावसे कर्तव्य-कर्म करनेकी प्रेरणा मिलती रहे । समाज एवं परिवारके मुख्य व्यक्तियोंपर भी यही बात लागू होती है । उनको भी सावधानीपूर्वक अपने कर्तव्य-कर्मोंका अच्छी तरह आचरण करते रहना चाहिये, जिससे समाज और परिवारपर अच्छा प्रभाव पड़े ।

बुद्धिभेद पैदा करनेके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं‒

-‘कर्मोंमें क्या रखा है ? कर्मोंसे तो जीव बँधता है; कर्म निकृष्‍ट हैं; कर्म छोड़कर ज्ञानमें लगना चाहिये’ आदि उपदेश देना अथवा इस प्रकारके अपने आचरणों और वचनोंसे दूसरोंमें कर्तव्य-कर्मोंके प्रति अश्रद्धा-अविश्‍वास उत्पन्‍न करना ।

२-‘जहाँ देखो, वहीं स्वार्थ है; स्वार्थके बिना कोई रह नहीं सकता; सभी स्वार्थके लिये कर्म करते हैं; मनुष्य कोई कर्म करे तो फलकी इच्छा रहती ही है; फलकी इच्छा न रहे तो वह कर्म करेगा ही क्यों’ आदि उपदेश देना ।

३-‘फलकी इच्छा रखकर (अपने लिये) कर्म करनेसे (फल भोगनेके लिये) बार-बार जन्म लेना पड़ता है’ आदि उपदेश देना । इस प्रकारके उपदेशोंसे कामनावाले पुरुषोंका कर्मफलपर विश्‍वास नहीं रहता । फलस्वरूप उनकी (फलमें) आसक्ति तो छूटती नहीं; शुभ-कर्म जरूर छूट जाते हैं । बन्धनका कारण आसक्ति ही है, कर्म नहीं । इस प्रकार लोगोंमें बुद्धिभेद उत्पन्‍न न करके तत्त्वज्ञ पुरुषको चाहिये कि वह अपने वर्णाश्रमधर्मके अनुसार स्वयं कर्तव्य-कर्म करे और दूसरोंसे भी वैसे ही करवाये । उसे चाहिये कि वह अपने आचरणों और वचनोंके द्वारा अज्ञानियोंकी बुद्धिमें भ्रम पैदा न करते हुए उन्हें वर्तमान स्थितिसे क्रमशः ऊँचे उठाये । जिन शास्‍त्रविहित शुभ-कर्मोंको अज्ञानी पुरुष अभी कर रहे हैं, उनकी वह विशेषरूपसे प्रशंसा करे और उनके कर्मोंमें होनेवाली त्रुटियोंसे उन्हें अवगत कराये, जिससे वे उन त्रुटियोंको दूर करके सांगोपांग विधिसे कर्म कर सकें । इसके साथ ही ज्ञानी पुरुष उन्हें यह उपदेश दें कि यज्ञ, दान, पूजा, पाठ आदि शुभकर्म करना तो बहुत अच्छा है, पर उन कर्मोंमें फलकी इच्छा रखना उचित नहीं; क्योंकि हीरेको कंकड़-पत्थरोंके बदले बेचना बुद्धिमत्ता नहीं है । अतः सकामभावका त्याग करके शुभ-कर्म करनेसे बहुत जल्दी लाभ होता है । इस प्रकार सकामभावसे निष्कामभावकी ओर जाना बुद्धिभेद नहीं है, प्रत्युत वास्तविकता है ।

इसी तरह उपासनाके विषयमें भी तत्त्वज्ञ पुरुषको बुद्धिभेद पैदा नहीं करना चाहिये । जैसे, प्रायः लोग कह दिया करते हैं कि नाम-जप करते समय भगवान्‌में मन नहीं लगा तो नामजप करना व्यर्थ है । परन्तु तत्त्वज्ञ पुरुषको ऐसा न कहकर यह उपदेश देना चाहिये कि नामजप कभी व्यर्थ हो ही नहीं सकता; क्योंकि भगवान्‌के प्रति कुछ-न-कुछ भाव रहनेसे ही नामजप होता है । भावके बिना नामजपमें प्रवृत्ति ही नहीं होती । अतः नामजपका किसी भी अवस्थामें त्याग नहीं करना चाहिये । जो यह कहा गया है कि मनुवाँ तो चहुँ दिसि फिरै, यह तो सुमिरन नाहिं’ इसका भी यही अर्थ है कि मन न लगनेसे यहसुमिरन’ (स्मरण) नहीं है, जप’ तो है ही । हाँ, मन लगाकर ध्यानपूर्वक नाम-जप करनेसे बहुत जल्दी लाभ होता है ।

कोई भी मनुष्य सर्वथा गुणरहित नहीं होता । उसमें कुछ-न-कुछ गुण रहते ही हैं । इसलिये तत्त्वज्ञ महापुरुषको चाहिये कि अगर किसी व्यक्तिको (उसकी उन्‍नतिके लिये) कोई शिक्षा देनी हो, कोई बात समझानी हो, तो उस व्यक्तिकी निन्दा या अपमान न करके उसके गुणोंकी प्रशंसा करे । गुणोंकी प्रशंसा करते हुए आदरपूर्वक उसे जो शिक्षा दी जायगी, उस शिक्षाका उसपर विशेष असर पड़ेगा । समाज और परिवारके मुख्य व्यक्तियोंको भी इसी रीतिसे दूसरोंको शिक्षा देनी चाहिये ।

समाचरन्’ और जोषयेत्’ पदोंसे भगवान् विद्वान्‌को दो आज्ञाएँ देते हैं‒(१) स्वयं सावधानीपूर्वक शास्‍त्र-विहित कर्तव्य-कर्मोंको अच्छी तरह करे और (२) कर्मोंमें आसक्त अज्ञानी पुरुषोंसे भी वैसे ही कर्म करवाये । लोगोंको दिखानेके लिये कर्म करनादम्भ’ है, जो पतन करनेवाली आसुरी-सम्पत्तिका लक्षण है (गीता‒सोलहवें अध्यायका चौथा श्‍लोक) । अतः भगवान् लोगोंको दिखानेके लिये नहीं, प्रत्युत लोकसंग्रहके लिये ही कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं ।

तत्त्वज्ञ पुरुषको चाहिये कि कर्म करनेसे अपना कोई प्रयोजन न रहनेपर भी वह समस्त कर्तव्य-कर्मोंको सुचारुरूपसे करता रहे, जिससे कर्मोंमें आसक्त पुरुषोंकी निष्काम कर्मोंके प्रति महत्त्वबुद्धि जाग्रत् हो और वे भी निष्कामभावसे कर्म करने लगें । तात्पर्य यह है कि उस महापुरुषके आसक्तिरहित आचरणोंको देखकर अन्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करनेकी चेष्‍टा करने लगेंगे ।

इस प्रकार ज्ञानी पुरुषको चाहिये कि वह कर्मोंमें आसक्त पुरुषोंको आदरपूर्वक समझाकर उनसे निषिद्धकर्मोंका स्वरूपसे (सर्वथा) त्याग करवाये, और विहित-कर्मोंमेंसे सकामभावका त्याग करनेकी प्रेरणा करे ।

परिशिष्‍ट भाव‒तत्त्वज्ञ महापुरुष और भगवान्दोनोंमें ही कर्तृत्वाभिमान नहीं होता । अतः वे केवल लोकसंग्रहके लिये ही कर्तव्य-कर्म किया करते हैं, अपने लिये नहीं । साधकको भी अपने लिये कुछ नहीं करना चाहिये; क्योंकि स्वरूपमें कर्तृत्व नहीं है । लोगोंको उन्मार्गसे हटाकर सन्मार्गमें लगाना लोकसंग्रह है । लोकसंग्रहका उपाय है‒शास्‍त्रके अनुसार ठीक आचरण करना, पर भीतरमें साधक यह भाव रखे कि मेरेको अपने लिये कुछ नहीं करना है । वह लोगोंमें यह न कहे कि मैं अपने लिये कुछ नहीं करता हूँ ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒यद्यपि ज्ञानी महापुरुषके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता‒‘तस्य कार्यं न विद्यते’ (गीता ३ । १७ ), तथापि भगवान् उसे आज्ञा देते हैं कि वह लोकसंग्रहके लिये स्वयं भी सावधानीपूर्वक कर्तव्य-कर्म करे और कर्मोंमें आसक्त दूसरे मनुष्योंसे भी वैसे ही कर्तव्य-कर्म करवाये ।

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