।। श्रीहरिः ।।

   


  आजकी शुभ तिथि–
अधिक श्रावण कृष्ण दशमी, वि.सं.-२०८०, गुरुवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒पीछेके तीन श्‍लोकोंमें भगवान्‌ने जैसे अपने लिये कर्म करनेमें सावधानी रखनेका वर्णन किया, ऐसे ही आगेके दो श्‍लोकोंमें ज्ञानी महापुरुषके लिये कर्म करनेमें सावधानी रखनेकी प्रेरणा करते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒ज्ञानी महापुरुषको स्वयं कर्म करने तथा दूसरोंसे करवानेकी प्रेरणा ।

         सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो  यथा कुर्वन्ति भारत ।

        कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्‍चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम् ॥ २५ ॥

न  बुद्धिभेदं   जनयेदज्ञानां  कर्मसङ्गिनाम्

        जोषयेत्सर्वकर्माणि  विद्वान्युक्तः  समाचरन् ॥ २६ ॥

अर्थ‒हे भरतवंशोद्धव अर्जुन ! कर्ममें आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित तत्वज्ञ महापुरुप भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे । सावधान तत्वज्ञ महापुरुष कर्मोंमें आसक्तिवाले अज्ञानी मनुष्योंकी बुद्धिमें भ्रम उत्पन्‍न न करे, प्रत्युत स्वयं समस्त कर्मोंको अच्छी तरहसे करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाये ।

भारत = हे भरतवंशोद्भव अर्जुन !

कुर्यात् = (कर्म) करे ।

कर्मणि = कर्ममें

युक्तः = सावधान

सक्ताः = आसक्त हुए

विद्वान् = तत्त्वज्ञ महापुरुष

अविद्वांसः = अज्ञानीजन

कर्मसङ्गिनाम् = कर्मोंमें आसक्तिवाले

यथा = जिस प्रकार

अज्ञानाम् = अज्ञानी मनुष्योंकी

कुर्वन्ति = (कर्म) करते हैं,

बुद्धिभेदम् = बुद्धिमें भ्रम

असक्तः = आसक्तिरहित

, जनयेत् = उत्पन्‍न न करे, (प्रत्युत स्वयं)

विद्वान् = तत्त्वज्ञ महापुरुष (भी)

सर्वकर्माणि = समस्त कर्मोंको

लोकसङ्ग्रहम् = लोकसंग्रह

समाचरन् = अच्छी तरहसे करता हुआ

चिकीर्षुः = करना चाहता हुआ

जोषयेत् = (उनसे भी वैसे ही) करवाये ।

तथा = उसी प्रकार

 

व्याख्यासक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत’जिन मनुष्योंकी शास्‍त्र, शास्‍त्र-पद्धति और शास्‍त्रविहित शुभ कर्मोंपर पूरी श्रद्धा है एवं शास्‍त्रविहित कर्मोंका फल अवश्य मिलता है‒इस बातपर पूरा विश्‍वास है; जो न तो तत्त्वज्ञ हैं और न दुराचारी हैं; किन्तु कर्मों, भोगों एवं पदार्थोंमें आसक्त हैं, ऐसे मनुष्योंके लिये यहाँ  सक्ताः’, ‘अविद्वांसः’ पद आये हैं । शास्‍त्रोंके ज्ञाता होनेपर भी केवल कामनाके कारण ऐसे मनुष्य अविद्वान् (अज्ञानी) कहे गये हैं । ऐसे पुरुष शास्‍त्रज्ञ तो हैं, पर तत्त्वज्ञ नहीं । ये केवल अपने लिये कर्म करते हैं, इसीलिये अज्ञानी कहलाते हैं ।

ऐसे अविद्वान् मनुष्य कर्मोंमें कभी प्रमाद, आलस्य आदि न रखकर सावधानी और तत्परतापूर्वक सांगोपांग विधिसे कर्म करते हैं; क्योंकि उनकी ऐसी मान्यता रहती है कि कर्मोंको करनेमें कोई कमी आ जानेसे उनके फलमें भी कमी आ जायगी । भगवान् उनके इस प्रकार कर्म करनेकी रीतिको आदर्श मानकर सर्वथा आसक्तिरहित विद्वान्‌के लिये भी इसी विधिसे लोकसंग्रहके लिये कर्म करनेकी प्रेरणा करते हैं ।

कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्‍चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम्’जिसमें कामना, ममता, आसक्ति, वासना, पक्षपात, स्वार्थ आदिका सर्वथा अभाव हो गया है और शरीरादि पदार्थोंके साथ किंचिन्मात्र भी लगाव नहीं रहा, ऐसे तत्त्वज्ञ महापुरुषके लिये यहाँ असक्तः, विद्वान्’ पद आये हैं

१.यद्यपि परमात्मतत्त्वको प्राप्‍त होनेपर सांख्ययोगी और कर्मयोगी‒दोनों एक हो जाते हैं (गीता ५ । ४-५), तथापि साधनावस्थामें दोनोंकी साधनप्रणालीमें अन्तर रहनेसे सिद्धावस्थामें भी उनके लक्षणोंमें, स्वभावमें थोड़ा अन्तर रहता है । सांख्ययोगीकी तो कर्मोंसे विशेष उपरति रहती है, पर कर्मयोगीकी कर्मोंमें विशेष तत्परता रहती है; क्योंकि पहले कर्म करनेका स्वभाव पड़ा हुआ रहता है । यह अन्तर भी कहीं-कहीं होता है ।

बीसवें श्‍लोकमें लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्’ कहकर फिर इक्‍कीसवें श्‍लोकमें जिसकी व्याख्या की गयी, उसीको यहाँ लोकसङ्ग्रहं चिकीर्षुः’ पदोंसे कहा गया है ।

श्रेष्‍ठ मनुष्य (आसक्तिरहित विद्वान्)-के सभी आचरण स्वाभाविक ही यज्ञके लिये, मर्यादा सुरक्षित रखनेके लिये होते हैं । जैसे भोगी मनुष्यकी भोगोंमें, मोही मनुष्यकी कुटुम्बमें और लोभी मनुष्यकी धनमें रति होती है, ऐसे ही श्रेष्‍ठ मनुष्यकी प्राणिमात्रके हितमें रति होती है । उसके अन्तःकरणमेंमैं लोकहित करता हूँ’ऐसा भाव भी नहीं होता, प्रत्युत उसके द्वारा स्वतः-स्वाभाविक लोकहित होता है । प्राकृत पदार्थमात्रसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जानेके कारण उस ज्ञानी महापुरुषके कहलानेवाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि भी लोकसंग्रह’ पदमें आये लोक’ शब्दके अन्तर्गत आते हैं ।

दूसरे लोगोंको ऐसे ज्ञानी महापुरुष लोकसंग्रहकी इच्छावाले दीखते हैं, पर वास्तवमें उनमें लोकसंग्रहकी भी इच्छा नहीं होती । कारण कि वे संसारसे प्राप्‍त शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ, पद, अधिकार, धन, योग्यता, सामर्थ्य आदिको साधनावस्थासे ही कभी किंचिन्मात्र भी अपने और अपने लिये नहीं मानते, प्रत्युत संसारके और संसारकी सेवाके लिये ही मानते हैं, जो कि वास्तवमें है । वही प्रवाह रहनेके कारण सिद्धावस्थामें भी उनके कहलानेवाले शरीरादि पदार्थ स्वतः-स्वाभाविक, किसी प्रकारकी इच्छाके बिना संसारकी सेवामें लगे रहते हैं ।

इस श्‍लोकमें यथा’ और तथा’ पद कर्म करनेके प्रकारके अर्थमें आये हैं । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार अज्ञानी (सकाम) पुरुष अपने स्वार्थके लिये सावधानी और तत्परतापूर्वक कर्म करते हैं, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष भी लोकसंग्रह अर्थात् दूसरोंके हितके लिये कर्म करे । ज्ञानी पुरुषको प्राणिमात्रके हितका भाव रखकर सम्पूर्ण लौकिक और वैदिक कर्तव्य-कर्मोंका आचरण करते रहना चाहिये । सबका कल्याण कैसे हो ?‒इस भावसे कर्तव्य-कर्म करनेपर लोकमें अच्छे भावोंका प्रचार स्वतः होता है ।

अज्ञानी पुरुष तो फलकी प्राप्‍तिके लिये सावधानी और तत्परतासे विधिपूर्वक कर्तव्य-कर्म करता है, पर ज्ञानी पुरुषकी फलमें आसक्ति नहीं होती और उसके लिये कोई कर्तव्य भी नहीं होता । अतः उसके द्वारा कर्मकी उपेक्षा होना सम्भव है । इसीलिये भगवान् कर्म करनेके विषयमें ज्ञानी पुरुषको भी अज्ञानी (सकाम) पुरुषकी ही तरह कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं ।

इक्‍कीसवें श्‍लोकमें तो विद्वान्‌को आदर्श’ बताया गया था, पर यहाँ उसे अनुयायी’ बताया है । तात्पर्य यह है कि विद्वान् चाहे आदर्श हो अथवा अनुयायी, उसके द्वारा स्वतः लोकसंग्रह होता है । जैसे भगवान् श्रीराम प्रजाको उपदेश भी देते हैं और पिताजीकी आज्ञाका पालन करके वनवास भी जाते हैं । दोनों ही परिस्थितियोंमें उनके द्वारा लोकसंग्रह होता है; क्योंकि उनका कर्मोंके करने अथवा न करनेसे अपना कोई प्रयोजन नहीं था ।

जब विद्वान् आसक्तिरहित होकर कर्तव्य-कर्म करता है, तब आसक्तियुक्त चित्तवाले पुरुषोंके अन्तःकरणपर भी विद्वान्‌के कर्मोंका स्वतः प्रभाव पड़ता है, चाहे उन पुरुषोंकोयह महापुरुष निष्कामभावसे कर्म कर रहा है’ऐसा प्रत्यक्ष दीखे या न दीखे । मनुष्यके निष्कामभावोंका दूसरोंपर स्वाभाविक प्रभाव पड़ता है‒यह सिद्धान्त है । इसलिये आसक्तिरहित विद्वान्‌के भावों, आचरणोंका प्रभाव मनुष्योंपर ही नहीं, अपितु पशु-पक्षी आदिपर भी पड़ता है ।

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