Listen प्रकृति-पुरुष-सम्बन्धी मार्मिक बात आकर्षण सदा सजातीयतामें ही होता है;
जैसे‒कानोंका शब्दमें, त्वचाका स्पर्शमें, नेत्रोंका रूपमें, जिह्वाका रसमें और नासिकाका गन्धमें आकर्षण होता है । इस प्रकार पाँचों
इन्द्रियोंका अपने-अपने विषयोंमें ही आकर्षण होता है । एक इन्द्रियका दूसरी इन्द्रियके
विषयमें कभी आकर्षण नहीं होता । तात्पर्य यह है कि एक वस्तुका दूसरी वस्तुके प्रति
आकर्षण होनेमें मूल कारण उन दोनोंकी सजातीयता ही है । आकर्षण, प्रवृत्ति एवं प्रवृत्तिकी सिद्धि सजातीयतामें ही होती है ।
विजातीय वस्तुओंमें न तो आकर्षण होता है, न प्रवृत्ति होती है और न प्रवृत्तिकी सिद्धि ही होती है,
इसलिये आकर्षण, प्रवृत्ति और प्रवृत्तिकी सिद्धि सजातीयताके कारण
‘प्रकृति’
में ही होती है; परन्तु पुरुष (चेतन)-में विजातीय प्रकृति (जड)-का जो आकर्षण
प्रतीत होता है, उसमें भी वास्तवमें प्रकृतिका अंश ही प्रकृतिकी ओर आकर्षित होता है । करने और भोगनेकी
क्रिया प्रकृतिमें ही है, पुरुषमें नहीं । पुरुष तो सदा निर्विकार,
नित्य, अचल तथा एकरस रहता है । तेरहवें अध्यायके इकतीसवें श्लोकमें भगवान्ने बताया है कि
शरीरमें स्थित होनेपर भी पुरुष वस्तुतः न तो कुछ करता है और न लिप्त होता है‒‘शरीरस्थोऽपि
कौन्तेय न करोति न लिप्यते ।’ पुरुष तो केवल ‘प्रकृतिस्थ’ होने अर्थात् प्रकृतिसे तादात्म्य माननेके कारण सुख-दुःखोंके
भोक्तृत्वमें हेतु कहा जाता
है‒‘पुरुषः
सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते’ (गीता
१३ । २०) और
‘पुरुषः
प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्’ (गीता १३ । २१) । तात्पर्य यह है कि यद्यपि सम्पूर्ण क्रियाएँ,
क्रियाओंकी सिद्धि और आकर्षण प्रकृतिमें ही होता है,
तथापि प्रकृतिसे तादात्म्यके कारण पुरुष
‘मैं सुखी हूँ’,
‘मैं दुःखी हूँ’‒ऐसा मानकर भोक्तृत्वमें
हेतु बन जाता है । कारण कि सुखी-दुःखी होनेका अनुभव प्रकृति (जड)-में हो ही नहीं सकता,
प्रकृति (जड)-के बिना केवल पुरुष (चेतन) सुख-दुःखका भोक्ता बन
ही नहीं सकता । पुरुषमें प्रकृतिकी परिवर्तनरूप क्रिया या विकार नहीं है;
परन्तु उसमें सम्बन्ध मानने अथवा न माननेकी योग्यता तो है ही
। वह पत्थरकी तरह जड नहीं, प्रत्युत ज्ञानस्वरूप है । यदि पुरुषमें सम्बन्ध मानने अथवा
न माननेकी योग्यता नहीं होती, तो वह प्रकृतिसे अपना सम्बन्ध कैसे मानता ?
प्रकृतिसे सम्बन्ध मानकर उसकी क्रियाको अपनेमें कैसे मानता ?
और अपनेमें कर्तृत्व-भोक्तृत्व कैसे स्वीकार करता ?
सम्बन्धको मानना अथवा न मानना ‘भाव’ है, ‘क्रिया’ नहीं
। पुरुषमें सम्बन्ध जोड़ने अथवा न जोड़नेकी योग्यता तो है,
पर क्रिया करनेकी योग्यता उसमें नहीं है । क्रिया करनेकी योग्यता
उसीमें होती है, जिसमें परिवर्तन (विकार) होता है । पुरुषमें परिवर्तनका स्वभाव नहीं
है,
जबकि प्रकृतिमें परिवर्तनका स्वभाव है अर्थात् प्रकृतिमें क्रियाशीलता
स्वाभाविक है । इसलिये प्रकृतिसे सम्बन्ध जोड़नेपर ही पुरुष अपनेमें क्रिया मान लेता
है‒‘कर्ताहमिति
मन्यते’ (गीता
३ । २७) । पुरुषमें कोई परिवर्तन नहीं होता,
यह (परिवर्तनका न होना) उसकी कोई अशक्तता या कमी नहीं है,
प्रत्युत उसकी महत्ता है । वह निरन्तर एकरस,
एकरूप रहनेवाला है । परिवर्तन होना उसका स्वभाव ही नहीं है;
जैसे‒बर्फमें गरम होनेका स्वभाव या योग्यता नहीं है । परिवर्तनरूप
क्रिया होना प्रकृतिका स्वभाव है, पुरुषका नहीं । परन्तु प्रकृतिसे अपना सम्बन्ध न माननेकी इसमें
पूरी योग्यता, सामर्थ्य, स्वतन्त्रता है; क्योंकि वास्तवमें प्रकृतिसे सम्बन्ध
मूलमें नहीं है । प्रकृतिके अंश शरीरको पुरुष जब अपना स्वरूप मान लेता है,
तब प्रकृतिके उस अंशमें (सजातीय प्रकृतिका) आकर्षण,
क्रियाएँ और उनके फलकी प्राप्ति होती रहती है । इसीका संकेत
यहाँ ‘गुणाः
गुणेषु वर्तन्ते’ पदोंसे किया गया है । गुणोंमें अपनी स्थिति मानकर पुरुष (चेतन)
सुखी-दुःखी होता रहता है । वास्तवमें सुख-दुःखकी पृथक् सत्ता नहीं है । इसलिये भगवान्
गुणोंसे माने हुए सम्बन्धका विच्छेद करनेके लिये विशेष जोर देते हैं । तात्त्विक दृष्टिसे देखा जाय तो सम्बन्ध-विच्छेद
पहलेसे (सदासे) ही है । केवल भूलसे सम्बन्ध माना हुआ है । अतः माने हुए सम्बन्धको अस्वीकार
करके केवल ‘गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं’ इस
वास्तविकताको पहचानना है । ‘इति
मत्वा न सज्जते’‒यहाँ ‘मत्वा’
पद ‘जानने’ के अर्थमें आया है । तत्त्वज्ञ महापुरुष प्रकृति (जड) और पुरुष
(चेतन)-को स्वाभाविक ही अलग-अलग जानता है । इसलिये वह प्रकृतिजन्य गुणोंमें आसक्त नहीं
होता । भगवान् ‘मत्वा’
पदका प्रयोग करके मानो साधकोंको यह आज्ञा देते हैं कि वे भी
प्रकृतिजन्य गुणोंको अलग मानकर उनमें आसक्त न हों । विशेष बात कर्मयोगी और सांख्ययोगी‒दोनोंकी साधना-प्रणालीमें एकता नहीं
होती । कर्मयोगी गुणों (शरीरादि)-से मानी हुई एकताको मिटानेकी चेष्टा करता है, इसलिये
श्रीमद्भागवतमें ‘कर्मयोगस्तु कामिनाम्’ (११ ।
२० । ७) कहा गया है ।
भगवान्ने भी इसीलिये कर्मयोगीके लिये कर्म करनेकी आवश्यकतापर विशेष जोर दिया है;
जैसे‒‘कर्मोंका आरम्भ किये बिना मनुष्य निष्कर्मताको प्राप्त नहीं
होता’ (गीता‒तीसरे अध्यायका चौथा श्लोक)
‘योगमें आरूढ़ होनेकी इच्छावाले
मननशील पुरुषके लिये कर्म करना ही हेतु कहा जाता है’
(गीता‒छठे अध्यायका तीसरा श्लोक)
। कर्मयोगी कर्मोंको तो करता है, पर उनको अपने लिये नहीं,
प्रत्युत दूसरोंके हितके लिये ही करता है;
इसलिये वह उन कर्मोंका भोक्ता नहीं बनता । भोक्ता न बननेसे अर्थात्
भोक्तृत्वका नाश होनेसे कर्तृत्वका नाश स्वतः हो जाता है । तात्पर्य यह है कि कर्तृत्वमें जो कर्तापन है, वह
फलके लिये ही है । फलका उद्देश्य न रहनेपर कर्तृत्व नहीं रहता । इसलिये वास्तवमें कर्मयोगी भी कर्ता नहीं बनता । सांख्ययोगीमें विवेक-विचारकी प्रधानता रहती है । वह
‘प्रकृतिजन्य गुण ही गुणोंमें
बरत रहे हैं’ ऐसा जानकर अपनेको उन क्रियाओंका कर्ता नहीं मानता । इसी बातको
भगवान् आगे तेरहवें अध्यायके उनतीसवें श्लोकमें कहेंगे कि जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मोंको
सब प्रकारसे प्रकृतिके द्वारा ही किये जाते हुए देखता है और
‘स्वयं’ (आत्मा)-को अकर्ता देखता है, वही यथार्थ देखता है । इस प्रकार सांख्ययोगी कर्तृत्वका नाश
करता है । कर्तृत्वका नाश होनेपर भोक्तृत्वका नाश स्वतः हो जाता है । तीसरे अध्यायके आरम्भसे ही भगवान्ने कई उदाहरणों एवं दृष्टिकोणोंसे
कर्म करनेपर ही जोर दिया है; जैसे‒जनकादि महापुरुष भी निष्कामभावसे कर्म करके परम-सिद्धिको
प्राप्त हुए हैं (तीसरे अध्यायका बीसवाँ श्लोक); ‘मैं भी कर्म करता हूँ’ (तीसरे अध्यायका बाईसवाँ श्लोक); ‘ज्ञानी महापुरुष भी अज्ञानी पुरुषोंके समान लोक-संग्रहार्थ कर्म
करता है’ (तीसरे अध्यायका पचीसवाँ-छब्बीसवाँ श्लोक) । इससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक दृष्टिसे
कर्म करना ही श्रेयस्कर है । परिशिष्ट भाव‒जो अहंकारसे
मोहित नहीं होता, वह ‘तत्त्ववित्’ होता है । इस तत्त्ववित्को ही दूसरे अध्यायके सोलहवें श्लोकमें
‘तत्त्वदर्शी’
कहा है । तत्त्ववित् गुण-विभाग और कर्म-विभागसे अर्थात् पदार्थ
और क्रियासे सर्वथा अतीत हो जाता है । जबतक साधकका संसारके साथ सम्बन्ध रहेगा,
तबतक वह ‘तत्त्ववित्’ नहीं हो सकता । कारण कि संसारके साथ सम्बन्ध रखते हुए कोई संसारको
जान ही नहीं सकता । संसारसे सर्वथा अलग होनेपर ही संसारको
जान सकते हैं‒यह नियम है । इसी तरह परमात्मासे अलग होकर कोई परमात्माको जान ही नहीं
सकता । परमात्मासे एक होकर ही परमात्माको जान सकते हैं‒यह नियम है । कारण यह है कि
वास्तवमें हम संसारसे अलग हैं और परमात्मासे एक हैं । शरीरकी संसारके साथ एकता है, हमारी
(स्वयंकी) परमात्माके साथ एकता है ।
गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒यह सिद्धान्त है कि संसार (पदार्थ
और क्रिया)-से अलग होनेपर ही संसारका ज्ञान होता है और परमात्मासे एक होनेपर ही परमात्माका
ज्ञान होता है । कारण यह है कि वास्तवमें हम संसारसे अलग और परमात्मासे एक हैं । तत्त्वज्ञ
महापुरुष गुण-विभाग (पदार्थ) और कर्म-विभाग (क्रिया)-से सर्वथा अलग होनेपर यह जान लेता
है कि सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं । तात्पर्य है कि सम्पूर्ण क्रियाएँ संसारमें
ही हो रही हैं । स्वरूपमें कभी कोई क्रिया नहीं होती । രരരരരരരരരര |