Listen सूक्ष्म विषय‒ज्ञानीके लिये अज्ञानी मनुष्योंको
कर्मोंसे विचलित न करनेका कथन । प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु । तानकृत्स्नविदो मन्दान् कृत्स्नविन्न विचालयेत् ॥ २९ ॥ अर्थ‒प्रकृतिजन्य गुणोंसे अत्यन्त मोहित
हुए अज्ञानी मनुष्य गुणों और कर्मोंमें आसक्त रहते हैं । उन पूर्णतया न समझनेवाले मन्दबुद्धि
अज्ञानियोंको पूर्णतया जाननेवाला ज्ञानी मनुष्य विचलित न करे ।
व्याख्या‒‘प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु’‒सत्त्व, रज और तम‒ये तीनों प्रकृतिजन्य गुण मनुष्यको बाँधनेवाले हैं
। सत्त्वगुण सुख और ज्ञानकी आसक्तिसे, रजोगुण कर्मकी आसक्तिसे और तमोगुण प्रमाद,
आलस्य तथा निद्रासे मनुष्यको बाँधता है (गीता‒चौदहवें अध्यायके
छठेसे आठवें श्लोकतक) । उपर्युक्त पदोंमें उन अज्ञानियोंका वर्णन है,
जो प्रकृतिजन्य गुणोंसे अत्यन्त मोहित अर्थात् बँधे हुए हैं;
परन्तु जिनका शास्त्रोंमें, शास्त्रविहित शुभकर्मोंमें तथा उन कर्मोंके फलोंमें श्रद्धा-विश्वास
है । इसी अध्यायके पचीसवें-छब्बीसवें श्लोकोंमें ऐसे अज्ञानी पुरुषोंका ‘सक्ताः,
अविद्वांसः’ और ‘कर्मसंगिनाम्, अज्ञानाम्’
नामसे वर्णन हुआ है । लौकिक और पारलौकिक भोगोंकी कामनाके कारण
ये पुरुष पदार्थों और कर्मोंमें आसक्त रहते हैं । इस कारण इनसे ऊँचे उठनेकी बात समझ
नहीं सकते । इसीलिये भगवान्ने इन्हें अज्ञानी कहा है । ‘तानकृत्स्नविदो
मन्दान्’‒अज्ञानी मनुष्य
शुभकर्म तो करते हैं, पर करते हैं नित्य-निरन्तर न रहनेवाले नाशवान् पदार्थोंकी प्राप्तिके
लिये । धनादि प्राप्त पदार्थोंमें वे ममता रखते हैं और अप्राप्त पदार्थोंकी कामना
करते हैं । इस प्रकार ममता और कामनासे बँधे रहनेके कारण वे गुणों (पदार्थों) और कर्मोंके
तत्त्वको पूर्णरूपसे नहीं जान सकते । अज्ञानी मनुष्य शास्त्रविहित कर्म और उनकी विधिको तो ठीक तरहसे
जानते हैं, पर गुणों और कर्मोंके तत्त्वको ठीक तरहसे न जाननेके कारण उन्हें
‘अकृत्स्नविदः’
(पूर्णतया न जाननेवाले) कहा
गया है और सांसारिक भोग तथा संग्रहमें रुचि होनेके कारण उन्हें
‘मन्दान्’
(मन्दबुद्धि) कहा गया है । ‘कृत्स्नविन्न
विचालयेत्’‒गुण और कर्म-विभागको पूर्णतया जाननेवाले तथा कामना-ममतासे रहित ज्ञानी पुरुषको
चाहिये कि वह पूर्ववर्णित (सकाम भावपूर्वक शुभ-कर्मोंमें लगे हुए) अज्ञानी पुरुषोंको
शुभ-कर्मोंसे विचलित न करें, जिससे वे मन्दबुद्धि पुरुष अपनी वर्तमान स्थितिसे नीचे न गिर
जायँ । इसी अध्यायके पचीसवें-छब्बीसवें श्लोकोंमें ऐसे ज्ञानी पुरुषोंका
‘असक्तः,
विद्वान्’ और ‘युक्तः,
विद्वान्’ नामसे वर्णन हुआ है । भगवान्ने तत्त्वज्ञ महापुरुषको पचीसवें श्लोकमें ‘कुर्यात्’ पदसे स्वयं कर्म करनेकी तथा छब्बीसवें श्लोकमें ‘जोषयेत्’ पदसे अज्ञानी पुरुषोंसे भी वैसे ही कर्म करवानेकी आज्ञा दी थी
। परन्तु यहाँ भगवान्ने ‘न विचालयेत्’
पदोंसे वैसी आज्ञा न देकर मानो उसमें कुछ ढील दी है कि ज्ञानी
पुरुष अधिक नहीं तो कम-से-कम अपने संकेत, वचन और क्रियासे अज्ञानी पुरुषोंको विचलित न करे । कारण कि जीवन्मुक्त
महापुरुषपर भगवान् और शास्त्र अपना शासन नहीं रखते । उनके कहलानेवाले शरीरसे स्वतः-स्वाभाविक
लोकसंग्रहार्थ क्रियाएँ हुआ करती हैं१
। १. क्रिया और कर्म‒इन दोनोंमें
भी भेद है । क्रियाके साथ जब ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा अहंभाव रहता है, तब वह क्रिया ‘कर्म’ हो जाती है और उसका इष्ट, अनिष्ट और मिश्रित‒तीन प्रकारका फल
मिलता है (गीता १८ । १२) । परन्तु जहाँ ‘मैं कर्ता नहीं हूँ’ ऐसा भाव रहता है, वहाँ वह किया ‘कर्म’ नहीं बनती अर्थात् फलदायक नहीं होती
। तत्त्वज्ञ महापुरुषके द्वारा फलदायक कर्म नहीं होते, प्रत्युत केवल क्रियाएँ (चेष्टामात्र)
होती हैं (गीता ३ । ३३) । तत्त्वज्ञ महापुरुष कर्मयोगी हो अथवा ज्ञानयोगी‒सम्पूर्ण कर्म
करते हुए भी उसका कर्मों और पदार्थोंके साथ किसी प्रकारका सम्बन्ध स्वतः नहीं रहता,
जो वस्तुतः था नहीं । अज्ञानी मनुष्य स्वर्ग-प्राप्तिके लिये शुभ-कर्म किया करते
हैं । इसलिये भगवान्ने ऐसे मनुष्योंको विचलित न करनेकी आज्ञा दी है अर्थात् वे महापुरुष
अपने संकेत, वचन और क्रियासे ऐसी कोई बात प्रकट न करें, जिससे उन सकाम पुरुषोंकी शास्त्रविहित शुभ-कर्मोंमें अश्रद्धा,
अविश्वास या अरुचि पैदा हो जाय और वे उन कर्मोंका त्याग कर
दें;
क्योंकि ऐसा करनेसे उनका पतन हो सकता है । इसलिये ऐसे पुरुषोंको सकामभावसे विचलित करना है, शास्त्रीय
कर्मोंसे नहीं । जन्म-मरणरूप बन्धनसे छुटकारा दिलानेके लिये उन्हें सकामभावसे विचलित
करना उचित भी है और आवश्यक भी ।
परिशिष्ट भाव‒अर्जुनका प्रश्न था कि मेरेको घोर कर्ममें क्यों लगाते हो
?
उस प्रश्नका उत्तर भगवान् कई तरहसे देते हैं,
जिसका तात्पर्य है कि मेरा उद्देश्य घोर कर्ममें लगाना नहीं
है,
प्रत्युत कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद करना है । कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये ही कर्मयोग है । രരരരരരരരരര |