।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
अधिक श्रावण अमावस्या, वि.सं.-२०८०, बुधवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सूक्ष्म विषय‒ज्ञानीके लिये अज्ञानी मनुष्योंको कर्मोंसे विचलित न करनेका कथन ।

    प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः       सज्‍जन्ते         गुणकर्मसु ।

    तानकृत्‍स्‍नविदो मन्दान् कृत्‍स्‍नविन्‍न विचालयेत् ॥ २९ ॥

अर्थ‒प्रकृतिजन्य गुणोंसे अत्यन्त मोहित हुए अज्ञानी मनुष्य गुणों और कर्मोंमें आसक्त रहते हैं । उन पूर्णतया न समझनेवाले मन्दबुद्धि अज्ञानियोंको पूर्णतया जाननेवाला ज्ञानी मनुष्य विचलित न करे ।

प्रकृतेः = प्रकृतिजन्य

अकृत्‍स्‍नविदः = पूर्णतया न समझनेवाले

गुणसम्मूढाः = गुणोंसे अत्यन्त मोहित हुए अज्ञानी मनुष्य

मन्दान् = मन्दबुद्धि अज्ञानियोंको

गुणकर्मसु = गुणों और कर्मोंमें

कृत्‍स्‍नवित् = पूर्णतया जाननेवाला ज्ञानी मनुष्य

सज्‍जन्ते = आसक्त रहते हैं ।

, विचालयेत् = विचलित न करे ।

तान् = उन

 

व्याख्याप्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्‍जन्ते गुणकर्मसु’सत्त्व, रज और तम‒ये तीनों प्रकृतिजन्य गुण मनुष्यको बाँधनेवाले हैं । सत्त्वगुण सुख और ज्ञानकी आसक्तिसे, रजोगुण कर्मकी आसक्तिसे और तमोगुण प्रमाद, आलस्य तथा निद्रासे मनुष्यको बाँधता है (गीता‒चौदहवें अध्यायके छठेसे आठवें श्‍लोकतक) । उपर्युक्त पदोंमें उन अज्ञानियोंका वर्णन है, जो प्रकृतिजन्य गुणोंसे अत्यन्त मोहित अर्थात् बँधे हुए हैं; परन्तु जिनका शास्‍त्रोंमें, शास्‍त्रविहित शुभकर्मोंमें तथा उन कर्मोंके फलोंमें श्रद्धा-विश्‍वास है । इसी अध्यायके पचीसवें-छब्बीसवें श्‍लोकोंमें ऐसे अज्ञानी पुरुषोंका सक्ताः, अविद्वांसः’ और कर्मसंगिनाम्, अज्ञानाम्’ नामसे वर्णन हुआ है । लौकिक और पारलौकिक भोगोंकी कामनाके कारण ये पुरुष पदार्थों और कर्मोंमें आसक्त रहते हैं । इस कारण इनसे ऊँचे उठनेकी बात समझ नहीं सकते । इसीलिये भगवान्‌ने इन्हें अज्ञानी कहा है ।

तानकृत्‍स्‍नविदो मन्दान्’‒अज्ञानी मनुष्य शुभकर्म तो करते हैं, पर करते हैं नित्य-निरन्तर न रहनेवाले नाशवान् पदार्थोंकी प्राप्‍तिके लिये । धनादि प्राप्‍त पदार्थोंमें वे ममता रखते हैं और अप्राप्‍त पदार्थोंकी कामना करते हैं । इस प्रकार ममता और कामनासे बँधे रहनेके कारण वे गुणों (पदार्थों) और कर्मोंके तत्त्वको पूर्णरूपसे नहीं जान सकते ।

अज्ञानी मनुष्य शास्‍त्रविहित कर्म और उनकी विधिको तो ठीक तरहसे जानते हैं, पर गुणों और कर्मोंके तत्त्वको ठीक तरहसे न जाननेके कारण उन्हें अकृत्‍स्‍नविदः’ (पूर्णतया न जाननेवाले) कहा गया है और सांसारिक भोग तथा संग्रहमें रुचि होनेके कारण उन्हें मन्दान्’ (मन्दबुद्धि) कहा गया है ।

कृत्‍स्‍नविन्‍न विचालयेत्’गुण और कर्म-विभागको पूर्णतया जाननेवाले तथा कामना-ममतासे रहित ज्ञानी पुरुषको चाहिये कि वह पूर्ववर्णित (सकाम भावपूर्वक शुभ-कर्मोंमें लगे हुए) अज्ञानी पुरुषोंको शुभ-कर्मोंसे विचलित न करें, जिससे वे मन्दबुद्धि पुरुष अपनी वर्तमान स्थितिसे नीचे न गिर जायँ । इसी अध्यायके पचीसवें-छब्बीसवें श्‍लोकोंमें ऐसे ज्ञानी पुरुषोंका असक्तः, विद्वान्’ और युक्तः, विद्वान्’ नामसे वर्णन हुआ है ।

भगवान्‌ने तत्त्वज्ञ महापुरुषको पचीसवें श्‍लोकमें  कुर्यात्’ पदसे स्वयं कर्म करनेकी तथा छब्बीसवें श्‍लोकमें  जोषयेत्’ पदसे अज्ञानी पुरुषोंसे भी वैसे ही कर्म करवानेकी आज्ञा दी थी । परन्तु यहाँ भगवान्‌ने न विचालयेत्’ पदोंसे वैसी आज्ञा न देकर मानो उसमें कुछ ढील दी है कि ज्ञानी पुरुष अधिक नहीं तो कम-से-कम अपने संकेत, वचन और क्रियासे अज्ञानी पुरुषोंको विचलित न करे । कारण कि जीवन्मुक्त महापुरुषपर भगवान् और शास्‍त्र अपना शासन नहीं रखते । उनके कहलानेवाले शरीरसे स्वतः-स्वाभाविक लोकसंग्रहार्थ क्रियाएँ हुआ करती हैं

१. क्रिया और कर्म‒इन दोनोंमें भी भेद है । क्रियाके साथ जब मैं कर्ता हूँ’ ऐसा अहंभाव रहता है, तब वह क्रिया कर्म’ हो जाती है और उसका इष्‍ट, अनिष्‍ट और मिश्रित‒तीन प्रकारका फल मिलता है (गीता १८ । १२) । परन्तु जहाँमैं कर्ता नहीं हूँ’ ऐसा भाव रहता है, वहाँ वह किया कर्म’ नहीं बनती अर्थात् फलदायक नहीं होती । तत्त्वज्ञ महापुरुषके द्वारा फलदायक कर्म नहीं होते, प्रत्युत केवल क्रियाएँ (चेष्‍टामात्र) होती हैं (गीता ३ । ३३) ।

तत्त्वज्ञ महापुरुष कर्मयोगी हो अथवा ज्ञानयोगी‒सम्पूर्ण कर्म करते हुए भी उसका कर्मों और पदार्थोंके साथ किसी प्रकारका सम्बन्ध स्वतः नहीं रहता, जो वस्तुतः था नहीं ।

अज्ञानी मनुष्य स्वर्ग-प्राप्‍तिके लिये शुभ-कर्म किया करते हैं । इसलिये भगवान्‌ने ऐसे मनुष्योंको विचलित न करनेकी आज्ञा दी है अर्थात् वे महापुरुष अपने संकेत, वचन और क्रियासे ऐसी कोई बात प्रकट न करें, जिससे उन सकाम पुरुषोंकी शास्‍त्रविहित शुभ-कर्मोंमें अश्रद्धा, अविश्‍वास या अरुचि पैदा हो जाय और वे उन कर्मोंका त्याग कर दें; क्योंकि ऐसा करनेसे उनका पतन हो सकता है । इसलिये ऐसे पुरुषोंको सकामभावसे विचलित करना है, शास्‍त्रीय कर्मोंसे नहीं । जन्म-मरणरूप बन्धनसे छुटकारा दिलानेके लिये उन्हें सकामभावसे विचलित करना उचित भी है और आवश्यक भी ।

परिशिष्‍ट भाव‒अर्जुनका प्रश्‍न था कि मेरेको घोर कर्ममें क्यों लगाते हो ? उस प्रश्‍नका उत्तर भगवान् कई तरहसे देते हैं, जिसका तात्पर्य है कि मेरा उद्‌देश्य घोर कर्ममें लगाना नहीं है, प्रत्युत कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद करना है । कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये ही कर्मयोग है ।

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