Listen सम्बन्ध‒जिससे मनुष्य कर्मोंमें फँस जाता है, उस कर्म और कर्मफलकी आसक्तिसे
छूटनेके लिये क्या करना चाहिये‒इसको भगवान् आगेके श्लोकमें बताते हैं । प्रधान विषय‒३०—३५ श्लोकतक‒राग-द्वेषरहित होकर स्वधर्मके अनुसार कर्तव्य-कर्म करनेकी
प्रेरणा । सूक्ष्म विषय‒भगवन्निष्ठाके अनुसार कर्म करनेकी विधि । मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा । निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥ ३० ॥
व्याख्या‒‘मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा’‒प्रायः साधकका यह विचार रहता है कि कर्मोंसे बन्धन होता है और
कर्म किये बिना कोई रह सकता नहीं; इसलिये कर्म करनेसे तो मैं बँध जाऊँगा ! अतः कर्म किस प्रकार
करने चाहिये, जिससे कर्म बन्धनकारक न हों, प्रत्युत मुक्तिदायक हो जायँ‒इसके लिये भगवान् अर्जुनसे कहते
हैं कि तू अध्यात्मचित्त (विवेक-विचारयुक्त अन्तःकरण)-से सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मोंको
मेरे अर्पण कर दे अर्थात् इनसे अपना कोई सम्बन्ध मत मान । कारण कि वास्तवमें संसारमात्रकी
सम्पूर्ण क्रियाओंमें केवल मेरी शक्ति ही काम कर रही है । शरीर,
इन्द्रियाँ, पदार्थ आदि भी मेरे हैं और शक्ति भी मेरी है । इसलिये ‘सब
कुछ भगवान्का है और भगवान् अपने हैं’‒गम्भीरतापूर्वक ऐसा विचार करके जब तू कर्तव्य-कर्म
करेगा, तब
वे कर्म तेरेको बाँधनेवाले नहीं होंगे, प्रत्युत उद्धार करनेवाले हो जायँगे । शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिपर अपना कोई अधिकार नहीं चलता‒यह मनुष्यमात्रका अनुभव
है । ये सब प्रकृतिके हैं‒‘प्रकृतिस्थानि’
और ‘स्वयं’ परमात्माका है‒‘ममैवांशो जीवलोके’
(गीता १५ । ७) । अतः शरीरादि पदार्थोंमें भूलसे माने
हुए अपनेपनको हटाकर इनको भगवान्का ही मानना (जो कि वास्तवमें है) ‘अर्पण’ कहलाता
है । अतः अपने विवेकको महत्त्व देकर पदार्थों और कर्मोंसे मूर्खतावश माने हुए सम्बन्धका
त्याग करना ही अर्पण करनेका तात्पर्य है । ‘अध्यात्मचेतसा’
पदसे भगवान्का यह तात्पर्य है कि किसी भी मार्गका साधक हो,
उसका उद्देश्य आध्यात्मिक होना चाहिये,
लौकिक नहीं । वास्तवमें उद्देश्य
या आवश्यकता सदैव नित्यतत्त्वकी (आध्यात्मिक) होती है और कामना सदैव अनित्यतत्त्व (उत्पत्ति
विनाशशील वस्तु)-की होती है । साधकमें उद्देश्य होना चाहिये कामना नहीं । उद्देश्यवाला
अन्तःकरण विवेक-विचारयुक्त ही रहता है । दार्शनिक अथवा वैज्ञानिक, किसी भी दृष्टिसे यह सिद्ध नहीं हो सकता कि शरीरादि भौतिक पदार्थ
अपने हैं । वास्तवमें ये पदार्थ अपने और अपने लिये हैं ही
नहीं, प्रत्युत केवल सदुपयोग करनेके लिये मिले हुए हैं
। अपने न होनेके कारण ही इनपर किसीका आधिपत्य नहीं चलता । संसारमात्र परमात्माका है; परन्तु जीव भूलसे परमात्माकी वस्तुको अपनी मान लेता है और इसीलिये
बन्धनमें पड़ जाता है । अतः विवेक-विचारके द्वारा इस भूलको मिटाकर सम्पूर्ण पदार्थों
और कर्मोंको अध्यात्मतत्त्व (परमात्मा)-का स्वीकार कर लेना ही अध्यात्मचित्तके द्वारा
उनका अर्पण करना है । इस श्लोकमें ‘अध्यात्मचेतसा’
पद मुख्यरूपसे आया है । तात्पर्य यह है कि अविवेकसे ही उत्पत्ति-विनाशशील
शरीर (संसार) अपना दीखता है । यदि विवेक-विचारपूर्वक देखा जाय तो शरीर या संसार अपना
नहीं दीखेगा, प्रत्युत एक अविनाशी परमात्मतत्त्व ही अपना दीखेगा । संसारको
अपना देखना ही पतन है और अपना न देखना ही उत्थान है‒ द्व्यक्षरस्तु
भवेन्मृत्युस्त्र्यक्षरं ब्रह्म शाश्वतम्
। ममेति
च भवेन्मृत्युर्न ममेति च
शाश्वतम् ॥ (महा॰ शान्ति॰ १३ । ४; आश्वमेधिक॰ ५१ । २९) ‘दो अक्षरोंका ‘मम’ (यह मेरा है‒ऐसा भाव) मृत्यु है और तीन अक्षरोंका ‘न मम’ (यह मेरा नहीं है‒ऐसा भाव) अमृत‒सनातन ब्रह्म है
।’ अर्पण-सम्बन्धी विशेष बात भगवान्ने ‘मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्य’
पदोंसे सम्पूर्ण कर्मोंको अर्पण करनेकी बात इसलिये कही है कि
मनुष्यने करण (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण), उपकरण (कर्म करनेमें उपयोगी सामग्री) तथा क्रियाओंको
भूलसे अपनी और अपने लिये मान लिया, जो कभी इसके थे नहीं, हैं नहीं, होंगे नहीं और हो सकते भी नहीं । उत्पत्ति-विनाशवाली वस्तुओंसे
अविनाशीका क्या सम्बन्ध ? अतः कर्मोंको चाहे संसारके अर्पण कर दे,
चाहे प्रकृतिके अर्पण कर दे और चाहे भगवान्के अर्पण कर दे‒तीनोंका
एक ही नतीजा होगा; क्योंकि संसार प्रकृतिका कार्य है और भगवान् प्रकृतिके स्वामी
हैं । इस दृष्टिसे संसार और प्रकृति दोनों भगवान्के हैं । अतः
‘मैं
भगवान्का हूँ और मेरी कहलानेवाली मात्र वस्तुएँ भगवान्की हैं’, इस
प्रकार सब कुछ भगवान्के अर्पण कर देना चाहिये अर्थात् अपनी ममता उठा देनी चाहिये ।
ऐसा करनेके बाद फिर साधकको संसार या भगवान्से कुछ भी चाहना नहीं पड़ता; क्योंकि
जो उसे चाहिये, उसकी व्यवस्था भगवान् स्वतः करते हैं । अर्पण करनेके बाद फिर शरीरादि पदार्थ अपने प्रतीत नहीं होने
चाहिये । यदि अपने प्रतीत होते हैं तो वास्तवमें अर्पण हुआ ही नहीं । इसीलिये भगवान्ने
विवेक-विचारयुक्त चित्तसे अर्पण करनेके लिये कहा है जिससे यह वास्तविकता ठीक तरहसे
समझमें आ जाय कि ये पदार्थ भगवान्के ही हैं, अपने हैं ही नहीं । भगवान्के अर्पणकी बात ऐसी विलक्षण है कि किसी तरहसे (उकताकर
भी) अर्पण किया जाय तो भी लाभ-ही-लाभ है । कारण कि कर्म और वस्तुएँ अपनी हैं ही नहीं
। कर्मोंको करनेके बाद भी उनका अर्पण किया जा सकता है,
पर वास्तविक अर्पण पदार्थों और कर्मोंसे
सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर ही होता है । पदार्थों और कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद
तभी होता है, जब यह बात ठीक-ठीक अनुभवमें आ जाय कि करण (शरीरादि), उपकरण (सांसारिक पदार्थ),
कर्म और
‘स्वयं’‒ये सब भगवान्के ही हैं । साधकसे प्रायः
यह भूल होती है कि वह उपकरणोंको तो भगवान्का माननेकी चेष्टा करता है, पर ‘करण
तथा स्वयं भी भगवान्के हैं’‒इसपर ध्यान नहीं देता । इसीलिये उसका अर्पण अधूरा रह जाता है । अतः साधकको करण,
उपकरण, क्रिया और ‘स्वयं’‒सभीको एकमात्र भगवान्का ही मान लेना चाहिये,
जो वास्तवमें उन्हींके हैं । कर्मों और पदार्थोंका स्वरूपसे त्याग करना अर्पण नहीं है । भगवान्की
वस्तुको भगवान्की ही मानना वास्तविक अर्पण है । जो मनुष्य वस्तुओंको अपनी मानते हुए
भगवान्के अर्पण करता है, उसके बदलेमें भगवान् बहुत वस्तुएँ देते हैं;
जैसे‒पृथ्वीमें जितने बीज बोये जायँ, उससे कई गुणा अधिक अन्न
पृथ्वी देती है; पर कई गुणा मिलनेपर भी वह सीमित ही मिलता है । परन्तु जो वस्तुको अपनी न मानकर (भगवान्की ही मानते हुए) भगवान्के अर्पण करता है, भगवान्
उसे अपने-आपको देते हैं और ऋणी भी हो जाते हैं । तात्पर्य है कि वस्तुको अपनी मानकर देनेसे (अन्तःकरणमें वस्तुका
महत्त्व होनेसे) उस वस्तुका मूल्य वस्तुमें ही मिलता है और अपनी न मानकर देनेसे स्वयं
भगवान् मिलते हैं ।
वास्तविक अर्पणसे भगवान् अत्यन्त प्रसन्न होते हैं
। इसका अर्थ यह नहीं कि अर्पण करनेसे भगवान्को कोई सहायता मिलती है; परन्तु
अर्पण करनेवाला कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है और इसीमें भगवान्की प्रसन्नता है । जैसे छोटा बालक आँगनमें पड़ी हुई चाबी पिताजीको सौंप देता है
तो पिताजी प्रसन्न हो जाते हैं, जबकि छोटा बालक भी पिताजीका है,
आँगन भी पिताजीका है और चाबी भी पिताजीकी है,
पर वास्तवमें पिताजी चाबीके मिलनेसे नहीं,
प्रत्युत बालकका (देनेका) भाव देखकर प्रसन्न होते हैं और हाथ
ऊँचा करके बालकसे कहते हैं कि तू इतना बड़ा हो जा ! अर्थात् उसे अपनेसे भी ऊँचा (बड़ा)
बना लेते हैं । इसी प्रकार सम्पूर्ण पदार्थ, शरीर तथा शरीरी (स्वयं) भगवान्के ही हैं;
अतः उनपरसे अपनापन हटाने और उन्हें भगवान्के अर्पण करनेका भाव
देखकर ही वे (भगवान्) प्रसन्न हो जाते हैं और उसके ऋणी हो जाते हैं । രരരരരരരരരര |