।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०८०, शुक्रवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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कामना-सम्बन्धी विशेष बात

परमात्माने मनुष्य-शरीरकी रचना बड़े विचित्र ढंगसे की है । मनुष्यके जीवन-निर्वाह और साधनके लिये जो-जो आवश्यक सामग्री है, वह उसे प्रचुर मात्रामें प्राप्‍त है । उसमें भगवत्प्रदत्त विवेक भी विद्यमान है । उस विवेकको महत्त्व न देकर जब मनुष्य प्राप्‍त वस्तुओंका ठीक-ठीक सदुपयोग नहीं करता, प्रत्युत उन्हें अपना मानकर अपने लिये उनका उपयोग करता है एवं प्राप्‍त वस्तुओंमें ममता तथा अप्राप्‍त वस्तुओंकी कामना करने लगता है, तब वह जन्म-मरणके बन्धनमें बँध जाता है । वर्तमानमें जो वस्तु व्यक्ति, परिस्थिति, घटना, योग्यता, शक्ति, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, प्राण, बुद्धि आदि मिले हुए दीखते हैं, वे पहले भी हमारे पास नहीं थे और बादमें भी सदा हमारे पास नहीं रहेंगे; क्योंकि वे कभी एकरूप नहीं रहते, प्रतिक्षण बदलते रहते हैं, इस वास्तविकताको मनुष्य जानता है । यदि मनुष्य जैसा जानता है, वैसा ही मान ले और वैसा ही आचरणमें ले आये तो उसका उद्धार होनेमें किंचिन्मात्र भी संदेह नहीं है । जैसा जानता है, वैसा मान लेनेका तात्पर्य यह है कि शरीरादि पदार्थोंको अपना और अपने लिये न माने, उनके आश्रित न रहे और उन्हें महत्त्व देकर उनकी पराधीनता स्वीकार न करे । पदार्थोंको महत्त्व देना महान् भूल है । उनकी प्राप्‍तिसे अपनेको कृतार्थ मानना महान् बन्धन है । नाशवान् पदार्थोंको महत्त्व देनेसे ही उनकी नयी-नयी कामनाएँ उत्पन्‍न होती हैं । कामना सम्पूर्ण पापों, तापों, दुःखों, अनर्थों, नरकों आदिकी जड़ है । कामनासे पदार्थ मिलते नहीं और प्रारब्धवशात् मिल भी जायँ तो टिकते नहीं । कारण कि पदार्थ आने-जानेवाले हैं और स्वयं’ सदा रहनेवाला है । अतः कामनाका त्याग करके मनुष्यको कर्तव्य-कर्मका पालन करना चाहिये ।

यहाँ शंका हो सकती है कि कामनाके बिना कर्मोंमें प्रवृति कैसे होगी ? इसका समाधान यह है कि कामनाकी पूर्ति और निवृत्ति‒दोनोंके लिये कर्मोंमें प्रवृत्ति होती है । साधारण मनुष्य कामनाकी पूर्तिके लिये कर्मोंमें प्रवृत्त होते हैं और साधक आत्मशुद्धिहेतु कामनाकी निवृत्तिके लिये (गीता‒पाँचवें अध्यायका ग्यारहवाँ श्‍लोक) । वास्तवमें कर्मोंमें प्रवृत्ति कामनाकी निवृत्तिके लिये ही है, कामनाकी पूर्तिके लिये नहीं ।

मनुष्य-शरीर उद्‌देश्यकी पूर्तिके लिये ही मिला है । उद्‌देश्यकी पूर्ति होनेपर कुछ भी करना शेष नहीं रहता । कामना-पूर्तिके लिये कर्मोंमें प्रवृत्ति उन्हीं मनुष्योंकी होती है, जो अपने वास्तविक उद्‌देश्य (नित्यतत्त्व परमात्माकी प्राप्‍ति)-को भूले हुए हैं । ऐसे मनुष्योंको भगवान्‌ने कृपण’ (दीन या दयाका पात्र) कहा है‒कृपणाः फलहेतवः’ (गीता २ । ४९) । इसके विपरीत जो मनुष्य उद्‌देश्यको सामने रखकर (कामनाकी निवृत्तिके लिये) कर्मोंमें प्रवृत होते हैं, उन्हें भगवान्‌ने मनीषी’ (बुद्धिमान् या ज्ञानी) कहा है‒फलं त्यक्त्वा मनीषिणः’ (गीता २ । ५१) । सेवा, स्वरूप-बोध और भगवत्प्राप्‍तिका भाव उद्‌देश्य है, कामना नहीं । नाशवान् पदार्थोंकी प्राप्‍तिका भाव ही कामना है । अतः कामनाके बिना कर्मोंमें प्रवृत्ति नहीं होती‒ऐसा मानना भूल है । उद्‌देश्यकी पूर्तिके लिये भी कर्म सुचारुरूपसे होते हैं ।

अपने अंशी परमात्मासे विमुख होकर संसार (जडता)-से अपना सम्बन्ध मान लेनेसे ही आवश्यकता और कामना‒दोनोंकी उत्पत्ति होती है । संसारसे माने हुए सम्बन्धका सर्वथा त्याग होनेपर आवश्यकताकी पूर्ति और कामनाकी निवृत्ति हो जाती है ।

निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः’सम्पूर्ण कर्मों और पदार्थों (कर्मसामग्री)-को भगवदर्पण करनेके बाद भी कामना, ममता और सन्तापका कुछ अंश शेष रह सकता है । उदाहरणार्थ‒हमने किसीको पुस्तक दी । उसे वह पुस्तक पढ़ते हुए देखकर हमारे मनमें ऐसा भाव आ जाता है कि वह मेरी पुस्तक पढ़ रहा है । यही आंशिक ममता है, जो पुस्तक अर्पण करनेके बाद भी शेष है । इस अंशका त्याग करनेके लिये भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि तू नयी वस्तुकीकामना’ मत कर, प्राप्‍त वस्तुमें ममता’ मत कर और नष्‍ट वस्तुका संताप’ मत कर । सब कुछ मेरे अर्पण करनेकी कसौटी यह है कि कामना, ममता और संतापका अंश भी न रहे ।

जिन साधकोंको सब कुछ भगवदर्पण करनेके बाद भी पूर्वसंस्कारवश शरीरादि पदार्थोंकी कामना, ममता तथा संताप दीखते हैं, उन्हें कभी निराश नहीं होना चाहिये । कारण कि जिसमें कामना दीखती है, वही कामनारहित होता है; जिसमें ममता दीखती है, वही ममतारहित होता है और जिसमें संताप दीखता है, वही संतापरहित होता है । इसी प्रकार जो देहको अहम्’ (मैं) मानता है, वही विदेह (अहंतारहित) होता है । अतः मनुष्यमात्र कामना, ममता और संतापरहित होनेका पूरा अधिकारी है ।

गीतामें ज्वर’ शब्द केवल यहीं आया है । युद्धमें कौटुम्बिक स्‍नेह आदिसे संताप होनेकी सम्भावना रहती है । अतः युद्धरूप कर्तव्य-कर्म करते समय विशेष सावधान रहनेके लिये भगवान् विगतज्वरः’ पद देकर अर्जुनसे कहते हैं कि तू सन्तापरहित होकर युद्धरूप कर्तव्य-कर्मको कर ।

अर्जुनके सामने युद्धके रूपमें कर्तव्य-कर्म था, इसलिये भगवान् युध्यस्व’ पदसे उन्हें युद्ध करनेकी आज्ञा देते हैं । इसमें भगवान्‌का तात्पर्य युद्ध करनेसे नहीं, प्रत्युत कर्तव्य-कर्म करनेसे है । इसलिये समय-समयपर जो कर्तव्य-कर्म सामने आ जाय, उसे साधकको निष्काम, निर्मम तथा निःसंताप होकर भगवदर्पण-बुद्धिसे करना चाहिये । उसके परिणाम (सिद्धि या असिद्धि)-की तरफ नहीं देखना चाहिये । सिद्धि-असिद्धि, अनुकूलता-प्रतिकूलता आदिमें सम रहना विगतज्वर’ होना है; क्योंकि अनुकूलतासे होनेवाली प्रसन्‍नता और प्रतिकूलतासे होनेवाली उद्विग्‍नता‒दोनों ही ज्वर (संताप) हैं । राग-द्वेष, हर्ष-शोक, काम-क्रोध आदि विकार भी ज्वर हैं । संक्षेपमें राग-द्वेष, चिन्ता, उद्वेग, हलचल आदि जितनी भी मानसिक विकृतियाँ (विकार) हैं, वे सब ज्वर हैं और उनसे रहित होना ही विगतज्वरः’ पदका तात्पर्य है ।

विशेष बात

जब साधकका एकमात्र उद्‌देश्य परमात्मप्राप्‍तिका हो जाता है, तब उसके पास जो भी सामग्री (वस्तु, परिस्थिति आदि) होती है, वह सब साधनरूप (साधन-सामग्री) हो जाती है । फिर उस सामग्रीमें बढ़िया और घटिया‒ये दो विभाग नहीं होते । इसीलिये सामग्री जो है और जैसी है, वही और वैसी ही भगवान्‌के अर्पण करनी है । भगवान्‌ने जैसा दिया है, वैसा ही उन्हें वापस करना है ।

सम्पूर्ण कर्मोंको भगवान्‌के अर्पण करनेके बाद भी अपनेमें जो कामना, ममता और संताप प्रतीत होते हैं, उन्हें भी भगवान्‌के अर्पण कर देना है । भगवान्‌के अर्पण करनेसे वह भगवन्‍निष्‍ठ हो जाता है ।

योगारूढ़ होनेमें कर्म करना ही हेतु कहा जाता है‒आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते’ (गीता ६ । ३) । कारण कि कर्तव्य-कर्म करनेसे ही साधकको पता लगता है कि मुझमें क्या और कहाँ कमी (कामना, ममता आदि) है ? इसीलिये बारहवें अध्यायके बारहवें श्‍लोकमें ध्यानकी अपेक्षा कर्मफल-त्याग (कर्मयोग)-को श्रेष्‍ठ कहा गया है; क्योंकि ध्यानमें साधककी दृष्‍टि विशेषरूपसे मनकी चंचलतापर ही रहती है और वह ध्येयमें मन लगनेमात्रसे ध्यानकी सफलता मान लेता है । परन्तु मनकी चंचलताके अतिरिक्त दूसरी कमियों (कामना, ममता आदि)-की ओर उसकी दृष्‍टि तभी जाती है, जब वह कर्म करता है । इसलिये भगवान् प्रस्तुत श्‍लोकमें युध्यस्व’ पदसे कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं ।

१.उदाहरणार्थ‒एक व्यक्ति किसी सेवा-समितिमें मन लगाकर सेवाकार्य करता है, पर जब कोई उसका आदर करता है या उसे पुरस्कार देता है तो उसे उसमें रस आ सकता है‒यह उसमें कमी हुई । ऐसी कमियोंका पता कर्म करनेपर ही लगता है ।

जैसे दूसरे अध्यायके अड़तालीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा दी थी, ऐसे ही यहाँ (तीसवें श्‍लोकमें) निष्काम, निर्मम और निःसंताप होकर युद्ध अर्थात् कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं । जब युद्ध-जैसा घोर (क्रूर) कर्म भी समभावसे किया जा सकता है, तब ऐसा कौन-सा दूसरा कर्म है, जो समभावसे न किया जा सकता हो ? समभाव तभी होता है, जबशरीर मैं नहीं, मेरा नहीं और मेरे लिये नहीं’ऐसा भाव हो जाय, जो कि वास्तवमें है ।

कर्तव्य-कर्मका पालन तभी सम्भव है, जब साधकका उद्‌देश्य संसारका न होकर एकमात्र परमात्माका हो जाय । परमात्मप्राप्‍तिके उद्‌देश्यसे साधक ज्यों-ज्यों कर्तव्य-परायण होता है, त्यों-ही-त्यों कामना, ममता, आसक्ति आदि दोष स्वतः मिटते चले जाते हैं और समतामें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव होता जाता है । समतामें अपनी स्थितिका पूर्ण अनुभव होते ही कर्तापन सर्वथा मिट जाता है और उद्‌देश्यके साथ एकता हो जाती है । यह नियम है कि अपने लिये कुछ भी पाने या करनेकी इच्छा न रहनेपरअहम्’ (व्यक्तित्व) स्वतः नष्‍ट हो जाता है ।

अर्जुन श्रेय (कल्याण) तो चाहते हैं, पर युद्धरूप कर्तव्य-कर्मसे हटकर । इसलिये अर्जुनके द्वारा अपना श्रेय पूछनेपर भगवान् उन्हें युद्धरूप कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं; क्योंकि भगवान्‌के मतानुसार कर्तव्य-कर्म करनेसे अर्थात् कर्मयोगसे भी श्रेयकी प्राप्‍ति होती है और ज्ञानयोग एवं भक्तियोगसे भी होती है ।

परिशिष्‍ट भाव‒अबतक तो भगवान्‌ने अर्जुनके प्रश्‍न (मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हो ?)-का ही कई तरहसे उत्तर दिया । अब इस श्‍लोकमें भगवन्‍निष्‍ठाके अनुसार कर्म करनेकी विधि बताते हैं ।

सम्पूर्ण कर्मोंको मेरे अर्पण कर‒ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि क्रिया और पदार्थको अपने और अपने लिये न मानकर मेरे और मेरे लिये ही मान । कारण कि भगवान् समग्र हैं और सम्पूर्ण कर्म तथा पदार्थ (अधिभूत) समग्र भगवान्‌के ही अन्तर्गत हैं (गीता‒सातवें अध्यायका उनतीसवाँ-तीसवाँ श्‍लोक) । उस समग्र भगवान्‌के लिये ही यहाँ मयि’ पद आया है ।

इस श्‍लोकमें मयि सर्वाणि कर्माणि सन्‍न्‍यस्य’ पदोंमें भक्तियोगकी, अध्यात्मचेतसा’ पदमें ज्ञानयोगकी और  निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः’ पदोंमें कर्मयोगकी बात आयी है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒यदि साधक भगवन्‍निष्‍ठ है तो उसे सम्पूर्ण कर्म भगवान्‌के अर्पित करके करने चाहिये । अर्पण करनेका तात्पर्य है‒अपने लिये कोई कर्म न करके केवल भगवान्‌की प्रसन्‍नताके लिये ही सब कर्म करना ।

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