Listen सम्बन्ध‒पूर्वश्लोकमें अपना मत (सिद्धान्त) बताकर अब भगवान् आगेके
दो श्लोकोंमें अपने मतकी पुष्टि करते हैं । सूक्ष्म विषय‒भगवान्के सिद्धान्तका पालन करनेसे होनेवाला लाभ । ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः । श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥
३१ ॥ अर्थ‒जो
मनुष्य दोष-दृष्टिसे रहित होकर श्रद्धापूर्वक मेरे इस (पूर्वश्लोकमें वर्णित) मतका
सदा अनुसरण करते हैं, वे भी कर्मोंके बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं ।
व्याख्या‒‘ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः । श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो’‒किसी भी वर्ण, आश्रम, धर्म, सम्प्रदाय आदिका कोई भी मनुष्य यदि कर्म-बन्धनसे मुक्त होना
चाहता है,
तो उसे इस सिद्धान्तको मानकर इसका अनुसरण करना चाहिये । शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ, कर्म आदि कुछ भी अपना नहीं है‒इस वास्तविकताको जान
लेनेवाले सभी मनुष्य कर्म-बन्धनसे छूट जाते हैं । भगवान् और उनके मतमें प्रत्यक्षकी तरह निःसन्देह दृढ़ विश्वास
और पूज्यभावसे युक्त मनुष्यको ‘श्रद्धावन्तः’
पदसे कहा गया है । शरीरादि जड पदार्थोंको अपने और अपने लिये न माननेसे
मनुष्य मुक्त हो जाता है‒इस वास्तविकतापर श्रद्धा होनेसे जडताके माने हुए सम्बन्धका
त्याग करना सुगम हो जाता है । श्रद्धावान् साधक ही सत्-शास्त्र,
सत्-चर्चा और सत्संगकी बातें सुनता है और उनको आचरणमें लाता
है । मनुष्यशरीर परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है । अतः परमात्माको
ही प्राप्त करनेकी एकमात्र उत्कट अभिलाषा होनेपर साधकमें श्रद्धा,
तत्परता, संयतेन्द्रियता आदि स्वतः आ जाते हैं । अतः साधकको मुख्यरूपसे
परमात्मप्राप्तिकी अभिलाषाको ही तीव्र बनाना चाहिये । पीछेके (तीसवें) श्लोकमें भगवान्ने अपना जो मत बताया है,
उसमें दोष-दृष्टि न करनेके लिये यहाँ
‘अनसूयन्तः’
पद दिया गया है । गुणोंमें दोष देखनेको
‘असूया’
कहते हैं । असूया (दोषदृष्टि)-से रहित मनुष्योंको यहाँ
‘अनसूयन्तः’
कहा गया है । जहाँ श्रद्धा रहती है, वहाँ भी किसी अंशमें दोषदृष्टि रह सकती है । इसलिये भगवान्ने
‘श्रद्धावन्तः’
पदके साथ ‘अनसूयन्तः’
पद भी देकर मनुष्यको दोषदृष्टिसे सर्वथा रहित (पूर्ण श्रद्धावान्)
होनेके लिये कहा है । इसी प्रकार गीता-श्रवणका माहात्म्य बताते हुए भी भगवान्ने ‘श्रद्धावाननसूयश्च’ (गीता
१८ । ७१) पद देकर श्रोताके
लिये श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टिसे रहित होनेकी बात कही है । ‘भगवान्का मत तो उत्तम है, पर भगवान् कितनी आत्मश्लाघा, अभिमानकी बात कहते हैं कि सब कुछ मेरे ही अर्पण कर दो’
अथवा ‘यह मत तो अच्छा है, पर कर्मोंके द्वारा भगवत्प्राप्ति कैसे हो सकती है ?
कर्म तो जड और बाँधनेवाले होते हैं’
आदि-आदि भाव आना ही भगवान्के मतमें दोष-दृष्टि करना है । साधकको भगवान् और उनके मत दोनोंमें ही दोष-दृष्टि नहीं करनी चाहिये
। वास्तवमें सब कुछ भगवान्का ही है;
परन्तु मनुष्य भूलसे भगवान्की वस्तुओंको अपनी मानकर बँध जाता
है और ममता-कामनाके वशमें होकर दुःख पाता रहता है । अतः इस अपनेपनका त्याग करवाकर मनुष्यका
उद्धार करनेके लिये (कि वह सदाके लिये सुखी हो जाय) भगवान् अपनी सहज करुणासे सब कुछ
अपने अर्पण करनेकी बात कहते हैं । अतः इस विषयमें दोष-दृष्टि करना अनुचित है । यह
तो भगवान्का परम सौहार्द, कारुण्य, वात्सल्य
ही है कि अपनेमें कोई अपूर्णता (कमी) और आवश्यकता न होनेपर भी केवल मनुष्यके कल्याणार्थ
वे समस्त कर्मोंको अपने अर्पण करनेके लिये कहते हैं । भगवान्का मत ही लोकमें ‘सिद्धान्त’ कहलाता है । सर्वोपरि सिद्धान्तको ही यहाँ
‘मतम्’
पदसे कहा गया है । भगवान्ने अपनी सहज सरलता एवं निरभिमानताके
कारण सर्वोपरि सिद्धान्तको ‘मत’ नामसे कहा है । यह मत या सिद्धान्त त्रिकालमें एक-जैसा रहता
है अर्थात् इसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता, चाहे कोई श्रद्धा करे या न करे ।
यहाँ ‘नित्यम्’
पद ‘मतम्’
का विशेषण नहीं, प्रत्युत ‘अनुतिष्ठन्ति’
पदका ही विशेषण है । कारण कि भगवान् नित्य हैं;
अतः उनसे सम्बन्धित समस्त वस्तुएँ भी नित्य ही हैं । भगवान्का
मत भी नित्य है । भगवान्का मत सर्वोपरि सिद्धान्त है और सिद्धान्त वही होता है,
जो कभी मिटता नहीं । अतः भगवान्का मत तो नित्य है ही,
उसका अनुष्ठान नित्य होना चाहिये । इसलिये यहाँ क्रियाविशेषण
‘नित्यम्’
पद देनेका तात्पर्य है‒भगवान्के मतपर नित्य-निरन्तर (सदा) स्थित
रहना तथा इसके अनुसार अनुष्ठान करना । രരരരരരരരരര |