।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०८०, मंगलवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



Listen



सम्बन्ध‒भगवान्‌के मतके अनुसार कर्म न करनेसे मनुष्यका पतन हो जाता है‒ऐसा क्यों है ? इसका उत्तर भगवान् आगेके श्‍लोकमें देते हैं

सूक्ष्म विषय‒प्रकृतिकी परवशता ।

     सदृशं   चेष्‍टते   स्वस्याः   प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।

प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥ ३३ ॥

अर्थ‒सम्पूर्ण प्राणी प्रकृतिको प्राप्‍त होते हैं । ज्ञानी महापुरुष भी अपनी प्रकृतिके अनुसार चेष्टा करता है । (फिर इसमें किसीका) हठ क्या करेगा ?

भूतानि = सम्पूर्ण प्राणी

प्रकृतेः = प्रकृतिके

प्रकृतिम् = प्रकृतिको

सदृशम् = अनुसार

यान्ति = प्राप्‍त होते हैं ।

चेष्‍टते = चेष्‍टा करता है ।

ज्ञानवान् = ज्ञानी महापुरुष

निग्रहः = (फिर इसमें किसीका) हठ

अपि = भी

किम् = क्या

स्वस्याः = अपनी

करिष्यति = करेगा ?

व्याख्याप्रकृतिं यान्ति भूतानि’जितने भी कर्म किये जाते हैं, वे स्वभाव अथवा सिद्धान्तको सामने रखकर किये जाते हैं । स्वभाव दो प्रकारका होता है‒राग-द्वेषरहित और राग-द्वेषयुक्त । जैसे, रास्तेमें चलते हुए कोई बोर्ड दिखायी दिया और उसपर लिखा हुआ पढ़ लिया तो यह पढ़ना न तो राग-द्वेषसे हुआ और न किसी सिद्धान्तसे, अपितु राग-द्वेषरहित स्वभावसे स्वतः हुआ । किसी मित्रका पत्र आनेपर उसे रागपूर्वक पढ़ते हैं और शत्रुका पत्र आनेपर उसे द्वेषपूर्वक पढ़ते हैं, तो यह पढ़ना राग-द्वेषयुक्त स्वभावसे हुआ । गीता, रामायण आदि सत्-शास्‍त्रोंको पढ़ना सिद्धान्त’ से पढ़ना हुआ । मनुष्य-जन्म परमात्मप्राप्‍तिके लिये ही है; अतः परमात्मप्राप्‍तिके उद्‌देश्यसे कर्म करना भी सिद्धान्तके अनुसार कर्म करना है ।

१.सिद्धान्त वह है, जो शास्‍त्र और भगवान्‌की आज्ञाके अनुसार हो । शास्‍त्र और भगवान्‌की आज्ञाके विपरीत सिद्धान्त मान्य नहीं है ।

इस प्रकार देखना, सुनना, सूँघना, स्पर्श करना आदि मात्र क्रियाएँ स्वभाव और सिद्धान्त‒दोनोंसे होती हैं । राग-द्वेषरहित स्वभाव दोषी नहीं होता, प्रत्युत राग-द्वेषयुक्त स्वभाव दोषी होता है । राग-द्वेषपूर्वक होनेवाली क्रियाएँ मनुष्यको बाँधती हैं; क्योंकि इनसे स्वभाव अशुद्ध होता है और सिद्धान्तसे होनेवाली क्रियाएँ उद्धार करनेवाली होती हैं; क्योंकि इनसे स्वभाव शुद्ध होता है । स्वभाव अशुद्ध होनेके कारण ही संसारसे माने हुए सम्बन्धका विच्छेद नहीं होता । स्वभाव शुद्ध होनेसे संसारसे माने हुए सम्बन्धका सुगमतापूर्वक विच्छेद हो जाता है ।

ज्ञानी महापुरुषके अपने कहलानेवाले शरीरद्वारा स्वतः क्रियाएँ हुआ करती हैं; क्योंकि उसमें कर्तृत्वाभिमान नहीं होता । परमात्मप्राप्‍ति चाहनेवाले साधककी क्रियाएँ सिद्धान्तके अनुसार होती हैं । जैसे लोभी पुरुष सदा सावधान रहता है कि कहीं कोई घाटा न लग जाय, ऐसे ही साधक निरन्तर सावधान रहता है कि कहीं कोई क्रिया राग-द्वेषपूर्वक न हो जाय । ऐसी सावधानी होनेपर साधकका स्वभाव शीघ्र शुद्ध हो जाता है और परिणाम-स्वरूप वह कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।

यद्यपि क्रियामात्र स्वाभाविक ही प्रकृतिके द्वारा होती है, तथापि अज्ञानी पुरुष क्रियाओंके साथ अपना सम्बन्ध मानकर अपनेको उन क्रियाओंका कर्ता मान लेता है (गीता‒तीसरे अध्यायका सत्ताईसवाँ श्‍लोक) । पदार्थों और क्रियाओंसे अपना सम्बन्ध माननेके कारण ही राग-द्वेष उत्पन्‍न होते हैं, जिनसे जन्म-मरणरूप बन्धन होता है । परन्तु प्रकृतिसे सम्बन्ध न माननेवाला साधक अपनेको सदा अकर्ता ही देखता है (गीता‒तेरहवें अध्यायका उनतीसवाँ श्‍लोक) ।

स्वभावमें मुख्य दोष प्राकृत पदार्थोंका राग ही है । जबतक स्वभावमें राग रहता है, तभीतक अशुद्ध कर्म होते हैं । अतः साधकके लिये राग ही बन्धनका मुख्य कारण है ।

राग माने हुएअहम्’ में रहता है और मन, बुद्धि, इन्द्रियों एवं इन्द्रियोंके विषयोंमें दिखायी देता है ।

अहम्’ दो प्रकारका है‒

-चेतनद्वारा जडके साथ माने हुए सम्बन्धसे होनेवाला तादात्म्यरूपअहम्’

-जड प्रकृतिका धातुरूप अहम्‌’‒‘महाभूतान्यहङ्कारः’ (गीता १३ । ५) ।

जड प्रकृतिके धातुरूपअहम्’ में कोई दोष नहीं है; क्योंकि यहअहम्’ मन, बुद्धि, इन्द्रियों आदिकी तरह एक करण ही है । इसलिये सम्पूर्ण दोष माने हुएअहम्’ में ही हैं । ज्ञानी महापुरुषमें तादात्म्यरूप अहम्’ का सर्वथा अभाव होता है; अतः उसके कहलानेवाले शरीरके द्वारा होनेवाली समस्त क्रियाएँ प्रकृतिके धातुरूपअहम्’ से ही होती हैं । वास्तवमें समस्त प्राणियोंकी सब क्रियाएँ इस धातुरूपअहम्’ से ही होती हैं, परन्तु जड शरीरकोमैं’ और मेरा’ माननेवाला अज्ञानी पुरुष उन क्रियाओंको अपनी तथा अपने लिये मान लेता है और बँध जाता है । कारण कि क्रियाओंको अपनी और अपने लिये माननेसे ही राग उत्पन्‍न होता है

२.शरीरके बढ़ने, बदलने आदि क्रियाओंके समान शरीर-निर्वाहकी व्यावहारिक क्रियाएँ भी स्वाभाविकरूपसे होती हैं; परन्तु राग-द्वेष रहनेसे साधारण पुरुषोंकी तो इन (व्यावहारिक) क्रियाओंमें लिप्‍तता रहती है, पर राग-द्वेष न रहनेसे ज्ञानी महापुरुषकी लिप्‍तता नहीं होती ।

രരരരരരരരരര