Listen ‘सदृशं
चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि’‒यद्यपि अन्तःकरणमें राग-द्वेष न रहनेसे ज्ञानी महापुरुषकी प्रकृति
निर्दोष होती है और वह प्रकृतिके वशीभूत नहीं होता, तथापि वह चेष्टा तो अपनी प्रकृति (स्वभाव)-के अनुसार ही करता
है । जैसे, कोई ज्ञानी महापुरुष अंग्रेजी भाषा नहीं जानता और उससे अंग्रेजी बोलनेके लिये कहा
जाय,
तो वह बोल नहीं सकेगा । वह जिस भाषाको जानता है उसी भाषामें
बोलेगा । भगवान् भी अपनी प्रकृति (स्वभाव)-को वशमें करके जिस योनिमें
अवतार लेते हैं, उसी योनिके स्वभावके अनुसार चेष्टा करते हैं;
जैसे‒भगवान् राम या कृष्णरूपसे मनुष्य-योनिमें अवतार लेते हैं
तथा मत्स्य, कच्छप, वराह आदि योनियोंमें अवतार लेते हैं तो वहाँ उस-उस योनिके अनुसार ही चेष्टा करते
हैं । तात्पर्य है कि भगवान्के अवतारी शरीरोंमें भी वर्ण,
योनिके अनुसार स्वभावकी भिन्नता रहती है,
पर परवशता नहीं रहती । इसी तरह जिन महापुरुषोंका प्रकृति (जडता)-से
सम्बन्ध-विच्छेद हो गया है, उनमें स्वभावकी भिन्नता तो रहती है, पर परवशता नहीं रहती
। परन्तु जिन मनुष्योंका प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं हुआ है,
उनमें स्वभावकी भिन्नता और परवशता‒दोनों रहती हैं । यहाँ ‘स्वस्याः’ पदका तात्पर्य यह है कि ज्ञानी महापुरुषकी प्रकृति निर्दोष होती
है । वह प्रकृतिके वशमें नहीं होता, प्रत्युत प्रकृति उसके वशमें होती है । कर्मोंकी फल-जनकताका मूल बीज कर्तृत्वाभिमान और स्वार्थ-बुद्धि
है । ज्ञानी महापुरुषमें कर्तृत्वाभिमान और स्वार्थ-बुद्धि नहीं होती । उसके
द्वारा चेष्टामात्र होती है । बन्धनकारक कर्म होता है,
चेष्टा या क्रिया नहीं । इसीलिये यहाँ
‘चेष्टते’
पद आया है । उसका स्वभाव इतना शुद्ध होता है कि उसके द्वारा
होनेवाली क्रियाएँ भी महान् शुद्ध एवं साधकोंके लिये आदर्श होती हैं । पीछेके और वर्तमान जन्मके संस्कार, माता-पिताके
संस्कार, वर्तमानका
संग, शिक्षा, वातावरण, अध्ययन, उपासना, चिन्तन, क्रिया, भाव
आदिके अनुसार स्वभाव बनता है । यह स्वभाव सभी मनुष्योंमें भिन्न-भिन्न होता है और
इसे निर्दोष बनानेमें सभी मनुष्य स्वतन्त्र हैं । व्यक्तिगत स्वभावकी भिन्नता ज्ञानी महापुरुषोंमें भी रहती
है । चेतनमें भिन्नता होती ही नहीं और प्रकृति (स्वभाव)-में स्वाभाविक भिन्नता रहती
है । प्रकृति है ही विषम । जैसे एक जाति होनेपर भी आम आदिके वृक्षोंमें अवान्तर भेद
रहता है,
ऐसे ही प्रकृति (स्वभाव) शुद्ध होनेपर भी ज्ञानी महापुरुषोंमें
प्रकृतिका भेद रहता है । ज्ञानी महापुरुषका स्वभाव शुद्ध (राग-द्वेषरहित) होता है;
अतः वह प्रकृतिके वशमें नहीं होता । इसके विपरीत अशुद्ध (राग-द्वेषयुक्त)
स्वभाववाले मनुष्य अपनी बनायी हुई परवशतासे बाध्य होकर कर्म करते हैं । ‘निग्रहः
किं करिष्यति’‒जिनका स्वभाव महान् शुद्ध एवं श्रेष्ठ है, उनकी क्रियाएँ भी अपनी प्रकृतिके अनुसार हुआ करती हैं,
फिर जिनका स्वभाव अशुद्ध (राग-द्वेषयुक्त) है,
उन पुरुषोंकी क्रियाएँ तो प्रकृतिके अनुसार होंगी ही । इस विषयमें
हठ उनके काम नहीं आयेगा । जिसका जैसा स्वभाव है, उसे उसीके अनुसार कर्म करने पड़ेंगे । यदि स्वभाव अशुद्ध हो तो
वह अशुद्ध कर्मोंमें और शुद्ध हो तो वह शुद्ध कर्मोंमें मनुष्यको लगा देगा । अर्जुन भी जब हठपूर्वक युद्धरूप कर्तव्य-कर्मका त्याग करना चाहते
हैं,
तब भगवान् उन्हें यही कहते हैं कि तेरा स्वभाव तुझे बलपूर्वक
युद्धमें लगा देगा‒‘प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति’ (१८ ।
५९);
क्योंकि तेरे स्वभावमें क्षात्रकर्म (युद्ध आदि) करनेका प्रवाह
है । इसलिये स्वाभाविक कर्मोंसे बँधा हुआ तू परवश होकर युद्ध करेगा अर्थात् इसमें तेरा
हठ काम नहीं आयेगा‒‘करिष्यस्यवशोऽपि तत्’ (१८ ।
६०) । जैसे सौ मील प्रति घंटेकी गतिसे चलनेवाली मोटर अपनी नियत क्षमतासे
अधिक नहीं चलेगी, ऐसे ही ज्ञानी महापुरुषके द्वारा भी अपनी शुद्ध प्रकृतिके विपरीत
चेष्टा नहीं होगी । जिनकी प्रकृति अशुद्ध है, उनकी प्रकृति बिगड़ी हुई मोटरके समान है । बिगड़ी हुई मोटरको सुधारनेके
दो मुख्य उपाय हैं‒(१) मोटरको खुद ठीक करना और (२) मोटरको कारखानेमें पहुँचा देना ।
इसी प्रकार अशुद्ध प्रकृतिको सुधारनेके भी दो मुख्य उपाय
हैं‒(१) राग-द्वेषसे रहित होकर कर्म करना (गीता‒तीसरे अध्यायका चौंतीसवाँ श्लोक) और
(२) भगवान्के शरणमें चले जाना (गीता‒अठारहवें अध्यायका बासठवाँ श्लोक) । यदि
मोटर ठीक चलती है तो हम मोटरके वशमें नहीं हैं और यदि मोटर बिगड़ी हुई है तो हम मोटरके
वशमें हैं । ऐसे ही ज्ञानी महापुरुष प्रकृतिके शुद्ध होनेके कारण प्रकृतिके वशमें नहीं
होता और अज्ञानी पुरुष प्रकृतिके अशुद्ध होनेके कारण प्रकृतिके वशमें होता है । जिसकी बुद्धिमें जडता (सांसारिक भोग और संग्रह)-का
ही महत्त्व है ऐसा मनुष्य कितना ही विद्वान् क्यों न हो, उसका
पतन अवश्यम्भावी है । परन्तु जिसकी बुद्धिमें जडताका महत्त्व नहीं है और भगवत्प्राप्ति
ही जिसका उद्देश्य है, ऐसा मनुष्य विद्वान् न भी हो, तो
भी उसका उत्थान अवश्यम्भावी है । कारण कि जिसका उद्देश्य भोग और संग्रह न होकर केवल
परमात्माको प्राप्त करना ही है, उसके समस्त भाव,
विचार, कर्म आदि उसकी उन्नतिमें सहायक हो जाते हैं । अतः साधकको सर्वप्रथम परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य बना लेना
चाहिये,
फिर उस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये राग-द्वेषसे रहित होकर कर्तव्य-कर्म
करने चाहिये । राग-द्वेषसे रहित होनेका सुगम उपाय है‒मिले
हुए शरीरादि पदार्थोंको अपना और अपने लिये न मानते हुए दूसरोंकी सेवामें लगाना और बदलेमें
दूसरोंसे कुछ भी न चाहना । प्रकृतिके वशमें न होनेके लिये साधकको चाहिये कि वह किसी आदर्शको
सामने रखकर कर्तव्य-कर्म करे । आदर्श दो हो सकते हैं‒(१) भगवान्का मत (सिद्धान्त)
और (२) श्रेष्ठ महापुरुषोंका आचरण । आदर्शको सामने रखकर
कर्म करनेवाले मनुष्यकी प्रकृति शुद्ध हो जाती है और नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वका
अनुभव हो जाता है । इसके विपरीत आदर्शको सामने न रखकर कर्म करनेवाला मनुष्य
राग-द्वेषपूर्वक ही सब कर्म करता है, जिससे राग-द्वेष पुष्ट हो जाते हैं और उसका पतन हो जाता है‒‘नष्टान्
विद्धि’ (गीता ३ । ३२) । जैसे नदीके प्रवाहको हम रोक तो नहीं सकते,
पर नहर बनाकर मोड़ सकते हैं, ऐसे ही कर्मोंके प्रवाहको रोक तो नहीं सकते,
पर उसका प्रवाह मोड़ सकते हैं । निःस्वार्थभावसे
केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करना ही कर्मोंके प्रवाहको मोड़ना है । अपने लिये
किंचिन्मात्र भी कर्म करनेसे कर्मोंका प्रवाह मुड़ेगा नहीं । तात्पर्य यह कि केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे कर्मोंका प्रवाह संसारकी
ओर हो जाता है और साधक कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है । परिशिष्ट भाव‒ज्ञानी महापुरुष भी जब व्यवहार करता है तो स्वभावके अनुसार
ही करता है । कारण कि करणोंके बिना कोई व्यवहार नहीं कर सकता । जैसे आचार्य बालककी
स्थितिमें आकर ही उसको वर्णमाला (क-ख-ग) सिखाता है, ऐसे ही ज्ञानी महापुरुष भी साधारण
मनुष्यकी स्थितिमें आकर ही उसको समझाता है, व्यवहार करता है । ‘चेष्टते’
पदका तात्पर्य है कि वह कर्म करता नहीं,
प्रत्युत उससे प्रकृतिके अनुसार स्वतः क्रिया होती है । जैसे
वृक्षके पत्ते हिलते हैं तो उनसे कोई फलजनक कर्म (पाप या पुण्य) नहीं होता,
ऐसे ही कर्तृत्वाभिमान न होनेके कारण उसके द्वारा कोई शुभ-अशुभ
कर्म नहीं बनता । ज्ञानी महापुरुष भी दूसरोंके हितमें लगे रहते हैं;
क्योंकि साधनावस्थामें ही उनका स्वभाव प्राणिमात्रका हित करनेका
रहा है‒‘सर्वभूतहिते
रताः’ (गीता
५ । २५; १२ ।
४) । इसलिये कुछ भी करना,
जानना और पाना शेष न रहनेपर भी उनमें सबका हित करनेका स्वभाव
रहता है । तात्पर्य है कि दूसरोंका हित करते-करते जब उनका संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद
हो जाता है, तब उनको हित करना नहीं पड़ता, प्रत्युत पहलेके प्रवाहके कारण उनके द्वारा स्वतः दूसरोंका हित
होता है ।
गीता-प्रबोधनी
व्याख्या‒चेतन-तत्त्व सम रहता है और प्रकृति विषम रहती है । इसलिये तत्त्वज्ञ महापुरुषोंके
स्वरूपमें तो कोई भिन्नता नहीं होती, पर उनकी प्रकृति (स्वभाव)-में भिन्नता होती है । उनका स्वभाव राग-द्वेषसे रहित
होनेके कारण महान् शुद्ध होता है । स्वभाव शुद्ध होनेपर भी तत्त्वज्ञ महापुरुषोंके
स्वभावमें (जिस साधन-मार्गसे सिद्धि प्राप्त की है, उस मार्गके सूक्ष्म संस्कार रहनेके कारण) भिन्नता रहती
है और उस स्वभावके अनुसार ही उनके द्वारा भिन्न-भिन्न व्यवहार होता है । രരരരരരരരരര |