।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०८०, गुरुवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒प्रत्येक मनुष्यका अपनी प्रकृतिको साथ लेकर ही जन्म होता है; अतः उसे अपनी प्रकृतिके अनुसार कर्म करने ही पड़ते है । इसलिये अब भगवान्‌ आगेके श्‍लोकमें प्रकृतिको शुद्ध करनेका उपाय बताते है ।

सूक्ष्म विषय‒प्रकृतिकी परवशतासे छूटनेका उपाय ।

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।

         तयोर्न  वशमागच्छेत्तौ  ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥ ३४ ॥

अर्थ‒इन्द्रिय-इन्द्रियके अर्थमें (प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें) मनुष्यके राग और द्वेष व्यवस्थासे (अनुकूलता और प्रतिकूलताको लेकर) स्थित हैं । मनुष्यको उन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहिये; क्योंकि वे दोनों ही इसके (पारमार्थिक मार्गमें) विघ्‍न डालनेवाले शत्रु हैं ।

इन्द्रियस्य, इन्द्रियस्य = इन्द्रिय-इन्द्रियके

न = नहीं

अर्थे = अर्थमें (प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें)

आगच्छेत् = होना चाहिये;

रागद्वेषौ = (मनुष्यके) राग और द्वेष

हि = क्योंकि

व्यवस्थितौ = व्यवस्थासे (अनुकूलता और प्रतिकूलताको लेकर) स्थित हैं ।

तौ = वे दोनों ही

तयोः = (मनुष्यको) उन दोनोंके

अस्य=इसके(पारमार्थिक मार्गमें)

वशम् = वशमें

परिपन्थिनौ = विघ्‍न डालनेवाले शत्रु हैं ।

व्याख्याइन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ’प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें राग-द्वेषको अलग-अलग स्थित बतानेके लिये यहाँ इन्द्रियस्य’ पद दो बार प्रयुक्त हुआ है । तात्पर्य यह है कि प्रत्येक इन्द्रिय (श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण)-के प्रत्येक विषय (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध)-में अनुकूलता-प्रतिकूलताकी मान्यतासे मनुष्यके राग-द्वेष स्थित रहते हैं । इन्द्रियके विषयमें अनुकूलताका भाव होनेपर मनुष्यका उस विषयमें राग’ हो जाता है और प्रतिकूलताका भाव होनेपर उस विषयमेंद्वेष’ हो जाता है ।

वास्तवमें देखा जाय तो राग-द्वेष इन्द्रियोंके विषयोंमें नहीं रहते । यदि विषयोंमें राग-द्वेष स्थित होते तो एक ही विषय सभीको समानरूपसे प्रिय अथवा अप्रिय लगता । परन्तु ऐसा होता नहीं; जैसे‒वर्षा किसानको तो प्रिय लगती है, पर कुम्हारको अप्रिय । एक मनुष्यको भी कोई विषय सदा प्रिय या अप्रिय नहीं लगता; जैसे‒ठंडी हवा गरमीमें अच्छी लगती है, पर सरदीमें बुरी । इस प्रकार सब विषय अपने अनुकूलता या प्रतिकूलताके भावसे ही प्रिय अथवा अप्रिय लगते हैं अर्थात् मनुष्य विषयोंमें अपना अनुकूल या प्रतिकूल भाव करके उनको अच्छा या बुरा मानकर राग-द्वेष कर लेता है । इसलिये भगवान्‌ने राग-द्वेषको प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें स्थित बताया है ।

वास्तवमें राग-द्वेष माने हुए अहम्’ (मैं-पन) में रहते हैं ।

१.भगवान्‌ने रसवर्जं रसोऽप्यस्य’ (गीता २ । ५९) पदोंमें अस्य’ पदसे यह लक्ष्य कराया है कि राग-द्वेष माने हुए अहम्’ में (साधकमें) रहते हैं ।

शरीरसे माना हुआ सम्बन्ध ही अहम्’ कहलाता है । अतः जबतक शरीरसे माना हुआ सम्बन्ध रहता है, तबतक उसमें राग-द्वेष रहते हैं और वे ही राग-द्वेष बुद्धि, मन, इन्द्रियों तथा इन्द्रियोंके विषयोंमें प्रतीत होते हैं । इसी अध्यायके सैंतीसवेंसे तैंतालीसवें श्‍लोकतक भगवान्‌ने इन्हीं राग-द्वेषको काम’ और क्रोध’ के नामसे कहा है । राग और द्वेषके ही स्थूलरूप काम और क्रोध हैं । चालीसवें श्‍लोकमें बताया है कि यह काम’ इन्द्रियों, मन और बुद्धिमें रहता है । विषयोंकी तरह इनमें (इन्द्रियों, मन और बुद्धिमें) काम’ की प्रतीति होनेके कारण ही भगवान्‌ने इनको काम’ का निवास-स्थान बताया है । जैसे विषयोंमें राग-द्वेषकी प्रतीतिमात्र है, ऐसे ही इन्द्रियों, मन और बुद्धिमें भी राग-द्वेषकी प्रतीतिमात्र है । ये इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि तो केवल कर्म करनेके करण (औजार) हैं । इनमें काम-क्रोध अथवा राग-द्वेष हैं ही कहाँ ? इसके सिवाय दूसरे अध्यायके उनसठवें श्‍लोकमें भगवान् कहते हैं कि इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंको ग्रहण न करनेवाले पुरुषके विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, पर उनमें रहनेवाला उसका राग निवृत्त नहीं होता । यह राग परमात्माका साक्षात्कार होनेपर निवृत्त हो जाता है ।

तयोर्न वशमागच्छेत्’इन पदोंसे भगवान् साधकको आश्‍वासन देते हैं कि राग-द्वेषकी वृत्ति उत्पन्‍न होनेपर उसे साधन और साध्यसे कभी निराश नहीं होना चाहिये, अपितु राग-द्वेषकी वृत्तिके वशीभूत होकर उसे किसी कार्यमें प्रवृत्त अथवा निवृत्त नहीं होना चाहिये । कर्मोंमें प्रवृत्ति या निवृत्ति शास्‍त्रके अनुसार ही होनी चाहिये (गीता‒सोलहवें अध्यायका चौबीसवाँ श्‍लोक) । यदि राग-द्वेषको लेकर ही साधककी कर्मोंमें प्रवृत्ति या निवृत्ति होती है तो इसका तात्पर्य यह होता है कि साधक राग-द्वेषके वशमें हो गया है । रागपूर्वक प्रवृत्ति या निवृत्ति होनेसे राग’ पुष्‍ट होता है और द्वेषपूर्वक प्रवृत्ति या निवृत्ति होनेसे द्वेष’ पुष्‍ट होता है । इस प्रकार राग-द्वेष पुष्‍ट होनेके फलस्वरूप पतन ही होता है ।

जब साधक संसारका कार्य छोड़कर भजनमें लगता है, तब संसारकी अनेक अच्छी और बुरी स्‍फुरणाएँ उत्पन्‍न होने लगती हैं, जिनसे वह घबरा जाता है । यहाँ भगवान् साधकको मानो आश्‍वासन देते हैं कि उसे इन स्‍फुरणाओंसे घबराना नहीं चाहिये । इन स्‍फुरणाओंकी वास्तवमें सत्ता ही नहीं है; क्योंकि ये उत्पन्‍न होती हैं; और यह सिद्धान्त है कि उत्पन्‍न होनेवाली वस्तु नष्‍ट होनेवाली होती है । अतः विचारपूर्वक देखा जाय तो स्‍फुरणाएँ आ नहीं रही हैं, प्रत्युत जा रही हैं । कारण यह है कि संसारका कार्य करते समय अवकाश न मिलनेसे स्‍फुरणाएँ दबी रहती हैं और संसारका कार्य छोड़ते ही अवकाश मिलनेसे पुराने संस्कार स्‍फुरणाओंके रूपमें बाहर निकलने लगते हैं । अतः साधकको इन अच्छी या बुरी स्‍फुरणाओंसे भी राग-द्वेष नहीं करना चाहिये, प्रत्युत सावधानीपूर्वक इनकी उपेक्षा करते हुए स्वयं तटस्थ रहना चाहिये । इसी प्रकार उसे पदार्थ, व्यक्ति, विषय आदिमें भी राग-द्वेष नहीं करना चाहिये ।

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