Listen सम्बन्ध‒प्रत्येक मनुष्यका अपनी प्रकृतिको साथ लेकर ही जन्म होता है;
अतः उसे अपनी प्रकृतिके अनुसार कर्म करने ही पड़ते है । इसलिये अब भगवान् आगेके श्लोकमें
प्रकृतिको शुद्ध करनेका उपाय बताते है । सूक्ष्म विषय‒प्रकृतिकी परवशतासे छूटनेका उपाय । इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे
रागद्वेषौ व्यवस्थितौ । तयोर्न
वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥ ३४ ॥ अर्थ‒इन्द्रिय-इन्द्रियके अर्थमें (प्रत्येक
इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें) मनुष्यके राग और द्वेष व्यवस्थासे (अनुकूलता और प्रतिकूलताको
लेकर) स्थित हैं । मनुष्यको उन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहिये; क्योंकि वे दोनों ही इसके (पारमार्थिक मार्गमें) विघ्न
डालनेवाले शत्रु हैं ।
व्याख्या‒‘इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ’‒प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें राग-द्वेषको अलग-अलग स्थित
बतानेके लिये यहाँ ‘इन्द्रियस्य’
पद दो बार प्रयुक्त हुआ है । तात्पर्य यह है कि प्रत्येक इन्द्रिय
(श्रोत्र,
त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण)-के प्रत्येक विषय (शब्द,
स्पर्श, रूप, रस और गन्ध)-में अनुकूलता-प्रतिकूलताकी मान्यतासे मनुष्यके राग-द्वेष
स्थित रहते हैं । इन्द्रियके विषयमें अनुकूलताका भाव होनेपर मनुष्यका उस विषयमें ‘राग’ हो जाता है और प्रतिकूलताका भाव होनेपर उस विषयमें
‘द्वेष’
हो जाता है । वास्तवमें देखा जाय तो राग-द्वेष इन्द्रियोंके विषयोंमें
नहीं रहते । यदि विषयोंमें राग-द्वेष स्थित होते तो एक ही विषय सभीको समानरूपसे प्रिय
अथवा अप्रिय लगता । परन्तु ऐसा होता नहीं; जैसे‒वर्षा किसानको तो प्रिय लगती है,
पर कुम्हारको अप्रिय । एक मनुष्यको भी कोई विषय सदा प्रिय या
अप्रिय नहीं लगता; जैसे‒ठंडी हवा गरमीमें अच्छी लगती है,
पर सरदीमें बुरी । इस प्रकार सब विषय अपने अनुकूलता या प्रतिकूलताके
भावसे ही प्रिय अथवा अप्रिय लगते हैं अर्थात् मनुष्य विषयोंमें
अपना अनुकूल या प्रतिकूल भाव करके उनको अच्छा या बुरा मानकर राग-द्वेष कर लेता है ।
इसलिये भगवान्ने राग-द्वेषको प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें स्थित बताया है
। वास्तवमें राग-द्वेष माने हुए ‘अहम्’ (मैं-पन) में रहते हैं ।१ १.भगवान्ने ‘रसवर्जं
रसोऽप्यस्य’ (गीता २ । ५९) पदोंमें ‘अस्य’ पदसे यह लक्ष्य कराया है कि राग-द्वेष माने हुए ‘अहम्’ में (साधकमें) रहते हैं । शरीरसे माना हुआ सम्बन्ध ही ‘अहम्’ कहलाता है । अतः जबतक शरीरसे माना
हुआ सम्बन्ध रहता है, तबतक उसमें राग-द्वेष रहते हैं और वे ही राग-द्वेष बुद्धि, मन, इन्द्रियों
तथा इन्द्रियोंके विषयोंमें प्रतीत होते हैं । इसी अध्यायके सैंतीसवेंसे तैंतालीसवें श्लोकतक भगवान्ने इन्हीं
राग-द्वेषको ‘काम’ और ‘क्रोध’ के नामसे कहा है । राग और द्वेषके
ही स्थूलरूप काम और क्रोध हैं । चालीसवें श्लोकमें बताया है कि यह ‘काम’ इन्द्रियों, मन और बुद्धिमें रहता है । विषयोंकी तरह इनमें (इन्द्रियों,
मन और बुद्धिमें) ‘काम’ की प्रतीति होनेके कारण ही भगवान्ने इनको ‘काम’ का निवास-स्थान बताया है । जैसे विषयोंमें राग-द्वेषकी प्रतीतिमात्र
है,
ऐसे ही इन्द्रियों, मन और बुद्धिमें भी राग-द्वेषकी प्रतीतिमात्र है । ये इन्द्रियाँ,
मन और बुद्धि तो केवल कर्म करनेके करण (औजार) हैं । इनमें काम-क्रोध
अथवा राग-द्वेष हैं ही कहाँ ? इसके सिवाय दूसरे अध्यायके उनसठवें श्लोकमें भगवान् कहते हैं
कि इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंको ग्रहण न करनेवाले पुरुषके विषय तो निवृत्त हो जाते
हैं,
पर उनमें रहनेवाला उसका राग निवृत्त नहीं होता । यह राग परमात्माका
साक्षात्कार होनेपर निवृत्त हो जाता है । ‘तयोर्न
वशमागच्छेत्’‒इन पदोंसे भगवान् साधकको आश्वासन देते हैं कि राग-द्वेषकी
वृत्ति उत्पन्न होनेपर उसे साधन और साध्यसे कभी निराश नहीं होना चाहिये, अपितु
राग-द्वेषकी वृत्तिके वशीभूत होकर उसे किसी कार्यमें प्रवृत्त अथवा निवृत्त नहीं होना
चाहिये । कर्मोंमें प्रवृत्ति या निवृत्ति शास्त्रके अनुसार ही होनी चाहिये (गीता‒सोलहवें
अध्यायका चौबीसवाँ श्लोक) । यदि राग-द्वेषको लेकर ही साधककी कर्मोंमें प्रवृत्ति या निवृत्ति होती है तो इसका
तात्पर्य यह होता है कि साधक राग-द्वेषके वशमें हो गया है । रागपूर्वक प्रवृत्ति या
निवृत्ति होनेसे ‘राग’ पुष्ट होता है और द्वेषपूर्वक प्रवृत्ति या निवृत्ति होनेसे
‘द्वेष’ पुष्ट होता है । इस प्रकार राग-द्वेष पुष्ट होनेके फलस्वरूप
पतन ही होता है ।
जब साधक संसारका कार्य छोड़कर भजनमें लगता है,
तब संसारकी अनेक अच्छी और बुरी स्फुरणाएँ उत्पन्न होने लगती
हैं,
जिनसे वह घबरा जाता है । यहाँ भगवान् साधकको मानो आश्वासन देते
हैं कि उसे इन स्फुरणाओंसे घबराना नहीं चाहिये । इन स्फुरणाओंकी वास्तवमें सत्ता
ही नहीं है; क्योंकि ये उत्पन्न होती हैं; और यह सिद्धान्त है कि उत्पन्न होनेवाली
वस्तु नष्ट होनेवाली होती है । अतः विचारपूर्वक देखा जाय तो स्फुरणाएँ आ नहीं
रही हैं,
प्रत्युत जा रही हैं । कारण यह है कि संसारका कार्य करते समय
अवकाश न मिलनेसे स्फुरणाएँ दबी रहती हैं और संसारका कार्य छोड़ते ही अवकाश मिलनेसे
पुराने संस्कार स्फुरणाओंके रूपमें बाहर निकलने लगते हैं । अतः साधकको इन अच्छी या बुरी स्फुरणाओंसे भी राग-द्वेष नहीं करना चाहिये, प्रत्युत
सावधानीपूर्वक इनकी उपेक्षा करते हुए स्वयं तटस्थ रहना चाहिये । इसी प्रकार उसे पदार्थ, व्यक्ति, विषय आदिमें भी राग-द्वेष नहीं करना चाहिये । രരരരരരരരരര |