Listen राग-द्वेषपर विजय पानेके उपाय राग-द्वेषके वशीभूत होकर कर्म करनेसे राग-द्वेष पुष्ट
(प्रबल) होते हैं और अशुद्ध प्रकृति (स्वभाव)-का रूप धारण कर लेते हैं । प्रकृतिके
अशुद्ध होनेपर प्रकृतिकी अधीनता रहती है । ऐसी अशुद्ध प्रकृतिकी अधीनतासे होनेवाले
कर्म मनुष्यको बाँधते हैं । अतः राग-द्वेषके वशमें होकर कोई प्रवृत्ति या निवृत्ति
नहीं होनी चाहिये‒यह उपाय यहाँ बताया गया । इससे पहले भगवान् कह चुके हैं कि जो मेरे मतका अनुसरण करता है, वह कर्म-बन्धनसे
छूट जाता है (गीता‒तीसरे अध्यायका इकतीसवीं श्लोक) । इसलिये राग-द्वेषकी वृत्तिके
वशमें न होकर भगवान्के मतके अनुसार कर्म करनेसे राग-द्वेष सुगमतापूर्वक मिट जाते हैं
। तात्पर्य यह कि साधक सम्पूर्ण कर्मोंको और अपनेको भी भलीभाँति
भगवदर्पण कर दे और ऐसा मान ले कि कर्म मेरे लिये नहीं हैं, प्रत्युत
भगवान्के लिये ही हैं; जिनसे कर्म होते हैं, वे
शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि
आदि भी भगवान्के ही हैं और मैं भी भगवान्का ही हूँ । फिर निष्काम, निर्मम
और निःसन्ताप होकर कर्तव्य-कर्म करनेसे राग-द्वेष मिट जाते हैं । इस प्रकार भगवान्के
मत अर्थात् सिद्धान्तको सामने रखकर ही किसी कार्यमें प्रवृत या निवृत्त होना चाहिये
। सम्पूर्ण सृष्टि प्रकृतिका कार्य है और शरीर सृष्टिका एक अंश
है । जबतक शरीरके प्रति ममता रहती है, तभीतक राग-द्वेष होते हैं अर्थात् मनुष्य रुचि या अरुचिपूर्वक
वस्तुओंका ग्रहण और त्याग करता है । यह रुचि-अरुचि ही राग-द्वेषका
सूक्ष्म रूप है । राग-द्वेषपूर्वक प्रवृत्ति या निवृत्ति होनेसे राग-द्वेष पुष्ट
होते हैं;
परन्तु शास्त्रको सामने रखकर किसी कर्ममें प्रवृत्त या निवृत
होनेसे राग-द्वेष मिट जाते हैं । कारण कि शास्त्रके अनुसार चलनेसे अपनी रुचि और अरुचिकी
मुख्यता नहीं रहती । यदि कोई मनुष्य शास्त्रको नहीं जानता,
तो उसके लिये महर्षि वेदव्यासजीके वचन हैं‒ श्रूयतां
धर्मसर्वस्वं श्रूत्वा चैवावधार्यताम् । आत्मनः
प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥ (पद्मपुराण, सृष्टि॰ १९ ।
३५५-५६) ‘हे मनुष्यो ! तुमलोग धर्मका सार सुनो और सुनकर
धारण करो कि जो हम अपने लिये नहीं चाहते, उसको दूसरोंके प्रति न करें ।’ जीवन्मुक्त महापुरुष भी शास्त्र-मर्यादाको ही आदर देते हैं
। इसीलिये श्राद्धमें पिण्डदान करते समय पिताजीका हाथ प्रत्यक्ष दिखायी देनेपर भी भीष्मपितामहने
शास्त्रके आज्ञानुसार कुशोंपर ही पिण्डदान किया (महाभारत,
अनुशासन॰ चौरासीवाँ अध्याय, पन्द्रहवेंसे बीसवें श्लोकतक) । अतः साधकको सम्पूर्ण कर्म शास्त्रके आज्ञानुसार ही करने चाहिये । राग-द्वेष मिटानेके इच्छुक साधकोंके लिये तो कर्म करनेमें शास्त्रप्रमाणकी
आवश्यकता रहती है, पर राग-द्वेषसे सर्वथा रहित महापुरुषका अन्तःकरण इतना शुद्ध,
निर्मल होता है कि उसमें स्वतः वेदोंका तात्पर्य प्रकट हो जाता
है,
चाहे वह पढ़ा-लिखा हो या न हो । उसके अन्तःकरणमें जो बात आती
है,
वह शास्त्रानुकूल ही होती है ।१ १.जो पुरुष
धर्मका कभी परित्याग नहीं करता, उसका अन्तःकरण भी शुद्ध हो जाता है । राजा दुष्यन्तका
वर्णन करते समय महाकवि कालिदासने लिखा है‒ सतां
हि सन्देहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः ॥ (अभिज्ञानशाकुन्तलम्
१ । २१) ‘जहाँ संदेह हो, वहाँ सत्पुरुषके अन्तःकरणकी प्रवृत्ति ही प्रमाण
होती है ।’ राग-द्वेषका सर्वथा अभाव होनेके कारण उस महापुरुषके द्वारा शास्त्र-निषिद्ध
क्रियाएँ कभी होती ही नहीं । उसका स्वभाव स्वतः शास्त्रके अनुसार बन जाता है । यही
कारण है कि ऐसे महापुरुषके आचरण और वचन दूसरे मनुष्योंके लिये आदर्श होते हैं (गीता‒तीसरे
अध्यायका इक्कीसवाँ श्लोक) । अतः उस महापुरुषके आचरणों और वचनोंका अनुसरण करनेसे
साधकके राग-द्वेष भी मिट जाते हैं । कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि राग-द्वेष अन्तःकरणके धर्म हैं;
अतः इनको मिटाया नहीं जा सकता । पर यह बात युक्तिसंगत नहीं दीखती
। वास्तवमें राग-द्वेष अन्तःकरणके आगन्तुक विकार हैं, धर्म
नहीं । यदि ये अन्तःकरणके धर्म होते
तो जिस समय अन्तःकरण जाग्रत् रहता है, उस समय राग-द्वेष भी रहते अर्थात् इनकी सदा ही प्रतीति होती
। परन्तु इनकी प्रतीति सदा न होकर कभी-कभी ही होती है । साधन करनेपर राग-द्वेष उत्तरोत्तर
कम होते हैं‒यह साधकोंका अनुभव है । कम होनेवाली वस्तु मिटनेवाली
होती है । इससे भी सिद्ध होता है कि राग-द्वेष अन्तःकरणके धर्म नहीं हैं । भगवान्ने
राग-द्वेषको ‘मनोगत’ कहा है‒‘कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्’ (गीता
२ । ५५) अर्थात् ये मनमें
आनेवाले हैं, सदा रहनेवाले नहीं । इसके अतिरिक्त भगवान्ने राग-द्वेषको विकार कहा है (गीता‒तेरहवें
अध्यायका छठा श्लोक) और प्रिय-अप्रियकी प्राप्तिमें चित्तके सदा सम रहनेको साधन कहा
है (गीता‒तेरहवें अध्यायका नवाँ श्लोक) । यदि राग-द्वेष अन्तःकरणके धर्म होते,
तो यह समचित्ततारूप साधन बन ही नहीं सकता । धर्म स्थायी रहता है और विकार अस्थायी अर्थात् आने-जानेवाले होते
हैं । राग-द्वेष अन्तःकरणमें आने-जानेवाले हैं; अतः
इनको मिटाया जा सकता है ।
प्रकृति (जड) और पुरुष (चेतन)‒दोनों भिन्न-भिन्न हैं । इन
दोनोंका विवेक स्वतःसिद्ध है । पुरुष इस विवेकको महत्त्व न देकर प्रकृतिजन्य शरीरसे
एकता कर लेता है और अपनेको एकदेशीय मान लेता है । यह जड-चेतनका तादात्म्य ही
‘अहम्’
(मैं) कहलाता है और इसीमें राग-द्वेष
रहते हैं । तात्पर्य यह है कि अहंता (मैं-पन)-में राग-द्वेष रहते हैं और राग-द्वेषसे
अहंता पुष्ट होती है । यही राग-द्वेष बुद्धिमें प्रतीत होते है, जिससे बुद्धिमें सिद्धान्त
आदिको लेकर अपनी मान्यता प्रिय और दूसरोंकी मान्यता अप्रिय लगती है । फिर ये राग-द्वेष
मनमें प्रतीत होते हैं, जिससे मनके अनुकूल बातें प्रिय और प्रतिकूल बातें अप्रिय लगती
हैं । फिर यही राग-द्वेष इन्द्रियोंमें प्रतीत होते हैं,
जिससे इन्द्रियोंके अनुकूल विषय प्रिय और प्रतिकूल विषय अप्रिय
लगते हैं । यही राग-द्वेष इन्द्रियोंके विषयों (शब्द,
स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-)-में अपनी अनुकूल और प्रतिकूल भावनाको लेकर प्रतीत
होते हैं । अतः जड-चेतनकी ग्रन्थिरूप अहंता (मैं-पन)-के मिटनेपर
राग-द्वेषका सर्वथा अभाव हो जाता है; क्योंकि अहंतापर ही राग-द्वेष टिके हुए हैं । രരരരരരരരരര |