।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०८०, शनिवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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मैं सेवक हूँ; मैं जिज्ञासु हूँ; मैं भक्त हूँ‒ये सेवक, जिज्ञासु और भक्त जिसमैं’ में रहते हैं, उसीमैं’ में राग-द्वेष भी रहते हैं । राग-द्वेष न तो केवल जडमें रहते हैं और न केवल चेतनमें ही रहते हैं, प्रत्युत जड-चेतनके माने हुए सम्बन्धमें रहते हैं । जड-चेतनके माने हुए सम्बन्धमें रहते हुए भी ये राग-द्वेष प्रधानतः जडमें रहते हैं । जड-चेतनके तादात्म्यमें जडका आकर्षण जड-अंशमें ही होता है, पर तादात्म्यके कारण वह चेतनमें दीखता है ।

जडका आकर्षण ही राग है । अतः जब साधक शरीर (जड)-को ही अपना स्वरूप मान लेता है, तब उसे राग-द्वेषको मिटानेमें कठिनाई प्रतीत होती है । परन्तु अपने चेतन-स्वरूपकी ओर दृष्‍टि रहनेसे उसे राग-द्वेषको मिटानेमें कठिनाई प्रतीत नहीं होती । कारण कि राग-द्वेष स्वतःसिद्ध नहीं हैं, प्रत्युत जड (असत्)-के सम्बन्धसे उत्पन्‍न होनेवाले हैं ।

यदि सत्संग, भजन, ध्यान आदिमें राग’ होगा तो संसारसे द्वेष होगा; परन्तु प्रेम’ होनेपर संसारसे द्वेष नहीं होगा, प्रत्युत संसारकी उपेक्षा (विमुखता) होगी

.साधकका सत्संग आदिमें राग है या प्रेम, इसे इस उदाहरणसे जान सकते हैं‒सत्संग, भजन-ध्यान आदिमें कोई व्यक्ति बाधा पहुँचाये, तो उसपर क्रोध आनेसे समझना चाहिये कि सत्संग आदिमेंराग’ है; और (उसपर क्रोध न आकर) रोना आ जाय तो समझना चाहिये कि सत्संग आदिमें प्रेम’ है । कारण कि अपनेमें लगन (दृढ़ता)-की कमी होनेसे ही साधनमें बाधा लगती है । इसलिये बाधा लगनेपर अपनेमें लगनकी कमी देखकर साधकको रोना आ जाता है । ऐसे ही दूसरे धर्म, सम्प्रदाय आदिके व्यक्ति हमें बुरे लगें तो समझना चाहिये कि अपने धर्म, सम्प्रदाय आदिमें हमाराराग’ है ।

वास्तवमें सत्संग, भजन-ध्यान आदिमें राग होना भी उतना बुरा नहीं है; क्योंकि चाहे जैसे हो, भगवान्‌में लगना अच्छा ही है‒तस्मात् केनाप्युपायेन मनः कृष्णे निवेशयेत’ (श्रीमद्भा ७ । १ । ३१) ।

संसारके किसी एक विषयमें राग’ होनेसे दूसरे विषयमें द्वेष होता है, पर भगवान्‌में प्रेम होनेसे संसारसे वैराग्य होता है । वैराग्य होनेपर संसारसे सुख लेनेकी भावना समाप्‍त हो जाती है और संसारकी स्वतः सेवा होती है । इससे शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धिके साथ अहम्’ भी स्वतः संसारकी सेवामें लग जाता है । परिणामस्वरूप शरीरादिके साथ-साथ अहम्’ से भी सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर उसमें रहनेवाले राग-द्वेष सर्वथा नष्‍ट हो जाते हैं ।

मनुष्यकी क्रियाएँ स्वभाव अथवा सिद्धान्तको लेकर होती हैं । केवल आध्यात्मिक उन्‍नतिके लिये कर्म करना सिद्धान्तको लेकर कर्म करना है । स्वभाव दो प्रकारका होता है‒राग-द्वेषरहित (शुद्ध) और राग-द्वेषयुक्त (अशुद्ध) । स्वभावको मिटा तो नहीं सकते, पर उसे शुद्ध अर्थात् राग-द्वेषरहित अवश्य बना सकते हैं । जैसे गंगा गंगोत्रीसे निकलती है; गंगोत्री जितनी ऊँचाईपर है, अगर उतना अथवा उससे अधिक ऊँचा बाँध बनाया जाय, तो गंगाके प्रवाहको रोका जा सकता है । परन्तु ऐसा करना सरल कार्य नहीं है । हाँ, गंगामेंसे नहरें निकालकर उसके प्रवाहको बदला जा सकता है । इसी प्रकार स्वाभाविक कर्मोंके प्रवाहको मिटा तो नहीं सकते, पर उसको बदल सकते हैं अर्थात् उसको राग-द्वेषरहित बना सकते हैं‒यह गीताका मार्मिक सिद्धान्त है । राग-द्वेषको लेकर जो क्रियाएँ होती हैं उनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति उतनी बाधक नहीं है, जितने कि राग-द्वेष बाधक हैं । इसीलिये भगवान्‌ने राग-द्वेषका त्याग करनेवालेको ही सच्‍चा त्यागी कहा है (गीता‒अठारहवें अध्यायका दसवाँ श्‍लोक) । राग-द्वेषकी ओर प्रायः साधकका ध्यान नहीं जाता, इसलिये उसकी प्रवृत्ति और निवृत्ति राग-द्वेषपूर्वक होती है । अतः राग-द्वेषसे रहित होनेके लिये साधकको सिद्धान्त सामने रखकर ही समस्त क्रियाएँ करनी चाहिये । फिर उसका स्वभाव स्वतः सिद्धान्तके अनुरूप और शुद्ध बन जायगा ।

राग-द्वेषयुक्त स्‍फुरणाके उत्पन्‍न होनेपर, उसके अनुसार कर्म करनेसे राग-द्वेष पुष्‍ट होते हैं और उसके अनुसार कर्म न करके सिद्धान्तके अनुसार कर्म करनेसे राग-द्वेष मिट जाते हैं ।

मनकी शुभ और अशुभ स्‍फुरणाओंमें राग-द्वेष नहीं होने चाहिये । साधकको चाहिये कि वह मनमें होनेवाली स्‍फुरणाओंको स्वयंमें न मानकर उनसे किसी भी प्रकार सम्बन्ध न जोड़े; उनका न समर्थन करे, न विरोध करे ।

यदि साधक राग-द्वेषको दूर करनेमें अपनेको असमर्थ पाता है, तो उसे सर्वसमर्थ परम सुहद् प्रभुकी शरणमें चले जाना चाहिये । फिर प्रभुकी कृपासे उसके राग-द्वेष दूर हो जाते हैं (गीता‒सातवें अध्यायका चौदहवाँ श्‍लोक) और परमशान्तिकी प्राप्‍ति हो जाती है (गीता‒अठारहवें अध्यायका बासठवाँ श्‍लोक) । माने हुए अहम्’-सहित शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण और सांसारिक पदार्थ सब-के-सब भगवान्‌के ही हैं‒ऐसा मानना ही भगवान्‌के शरण होना है । फिर भगवान्‌की प्रसन्‍नताके लिये, भगवान्‌की दी हुई सामग्रीसे भगवान्‌के ही जनोंकी केवल सेवा कर देनी है और बदलेमें अपने लिये कुछ नहीं चाहना है । बदलेमें कुछ भी चाहनेसे जडके साथ सम्बन्ध बना रहता है ।

निष्कामभावपूर्वक संसारकी सेवा करना राग-द्वेषको मिटानेका अचूक उपाय है । अपने पास स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरसे लेकर माने हुएअहम्’ तक जो कुछ है, उसे संसारकी ही सेवामें लगा देना है । कारण कि ये सब पदार्थ तत्त्वतः संसारसे अभिन्‍न हैं । इनको संसारसे भिन्‍न (अपना) मानना ही बन्धन है । स्थूल-शरीरसे क्रियाओं और पदार्थोंका सुख, सूक्ष्मशरीरसे चिन्तनका सुख और कारणशरीरसे स्थिरताका सुख नहीं लेना है । वास्तवमें मनुष्य-शरीर अपने सुखके लिये है ही नहीं‒एहि तन कर फल बिषय न भाई । (मानस ७ । ४४ । १)

दूसरी बात, जिन शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिसे सेवा होती है, वे सब संसारके ही अंश हैं । जब संसार ही अपना नहीं, तो फिर उसका अंश अपना कैसे हो सकता है ? इन शरीरादि पदार्थोंको अपना माननेसे सच्‍ची सेवा हो ही नहीं सकती; क्योंकि इससे ममता और स्वार्थ-भाव उत्पन्‍न हो जाता है । इसलिये इन पदार्थोंको उसीके मानने चाहिये, जिसकी सेवा की जाय । जैसे भक्त पदार्थोंको भगवान्‌का ही मानकर भगवान्‌के अर्पण करता है‒त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये’ ऐसे ही कर्मयोगी पदार्थोंको संसारका ही मानकर संसारके अर्पण करता है ।

सेवा-सम्बन्धी मार्मिक बात

सेवा वही कर सकता है, जो अपने लिये कभी कुछ नहीं चाहता । सेवा करनेके लिये धनादि पदार्थोंकी चाह तो कामना है ही, सेवा करनेकी चाह भी कामना ही है; क्योंकि सेवाकी चाह होनेसे ही धनादि पदार्थोंकी कामना होती है । इसलिये अवसर प्राप्‍त हो और योग्यता हो तो सेवा कर देनी चाहिये, पर सेवाकी कामना नहीं करनी चाहिये ।

दूसरेको सुख पहुँचाकर सुखी होना, ‘मेरे द्वारा लोगोंको सुख मिलता है’ऐसा भाव रखना, सेवाके बदलेमें किंचित् भी मान-बड़ाई चाहना और मान-बड़ाई मिलनेपर राजी होना वास्तवमें भोग है, सेवा नहीं । कारण कि ऐसा करनेसे सेवा सुख-भोगमें परिणत हो जाती है अर्थात् सेवा अपने सुखके लिये हो जाती है । अगर सेवा करनेमें थोड़ा भी सुख लिया जाय, तो वह सुख धनादि पदार्थोंमें महत्त्व-बुद्धि पैदा कर देता है, जिससे क्रमशः ममता और कामनाकी उत्पत्ति होती है ।

मैं किसीको कुछ देता हूँ’ऐसा जिसका भाव है, उसे यह बात समझमें नहीं आती तथा कोई उसे आसानीसे समझा भी नहीं सकता कि सेवामें लगनेवाले पदार्थ उसीके हैं, जिसकी सेवा की जाती है । उसीकी वस्तु उसे ही दे दी, तो फिर बदलेंमें कुछ चाहनेका हमें अधिकार ही क्या है ? उसीकी धरोहर उसीको देनेमें एहसान कैसा ? अपने हाथोंसे अपना मुख धोनेपर बदलेमें क्या हम कुछ चाहते हैं ?

शंका‒सेवा तो धनादि वस्तुओंके द्वारा ही होती है । वस्तुओंके बिना सेवा कैसे हो सकती है ? अतः सेवा करनेके लिये भी वस्तुओंकी चाह न करनेसे क्या तात्पर्य है ?

समाधान‒स्थूल वस्तुओंसे सेवा करना तो बहुत स्थूल बात है । वास्तवमें सेवा भाव है, कर्म नहीं । कर्मसे बन्धन और सेवासे मुक्ति होती है । सेवाका भाव होनेसे अपने पास जो वस्तुएँ हैं, वे स्वतः सेवामें लगती हैं । भाव होनेसे अपने पास जितनी वस्तुएँ हैं, उन्हींसे पूर्ण सेवा हो जाती है; इसलिये और वस्तुओंको चाहनेकी आवश्यकता ही नहीं है ।

वास्तविक सेवा वस्तुओंमें महत्त्वबुद्धि न रहनेसे ही हो सकती है । स्थूल वस्तुओंसे भी वही सेवा कर सकता है, जिसकी वस्तुओंमें महत्त्वबुद्धि नहीं है । वस्तुओंमें महत्त्वबुद्धि रखते हुए सेवा करनेसे सेवाका अभिमान आ जाता है । जबतक अन्तःकरणमें वस्तुओंका महत्त्व रहता है, तबतक सेवकमें भोगबुद्धि रहती ही है, चाहे कोई जाने या न जाने ।

वास्तवमें सेवा भावसे होती है, वस्तुओंसे नहीं । वस्तुओंसे कर्म होते हैं, सेवा नहीं । अतः वस्तुओंको दे देना ही सेवा नहीं है । वस्तुएँ तो दूकानदार भी देता है पर साथमें लेनेका भाव रहनेसे उससे पुण्य नहीं होता । ऐसे ही प्रजा राजाको कर-रूपसे धन देती है, पर वह दान नहीं होता । किसीको जल पिलानेपरमैंने उसे जल पिलाया, तभी वह सुखी हुआ’ऐसे भावका रहना दूकानदारी ही है । हम मान-बड़ाई नहीं चाहते, परजल पिलानेसे पुण्य होगा’ अथवादान करनेसे पुण्य होगा’ऐसा भाव रहनेपर भी फलके साथ सम्बन्ध होनेके कारण अन्तःकरणमें जल, धन आदि वस्तुओंका महत्त्व अंकित हो जाता है । वस्तुओंका महत्त्व अंकित होनेपर फिर वास्तविक सेवा नहीं होती, प्रत्युत लेनेका भाव रहनेसे असत्‌के साथ सम्बन्ध बना रहता है, चाहे जानें या न जानें । इसलिये वस्तुओंको दूसरोंकी सेवामें लगाकर दान-पुण्य नहीं करना है, प्रत्युत उन वस्तुओंसे अपना सम्बन्ध तोड़ना है ।

हमारे द्वारा वस्तु उसीको मिल सकती है, जिसका उस वस्तुपर अधिकार है अर्थात् वास्तवमें जिसकी वह वस्तु है । उसे वस्तु देनेसे हमारा ऋण उतरता है । यदि दूसरेको किसी वस्तुकी हमसे अधिक आवश्यकता (भूख) है, तो उस वस्तुका वही अधिकारी है । दूसरा अपने अधिकार (हक)-की ही वस्तु लेता है । हमारे अधिकारकी वस्तु दूसरा ले ही नहीं सकता ।

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