।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल एकादशी, वि.सं.-२०८०, रविवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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एक बात खास ध्यान देनेकी है कि सच्‍चे हृदयसे दूसरोंकी सेवा करनेसे, जिसकी वह सेवा करता है, उस (सेव्य)-के हृदयमें भी सेवाभाव जाग्रत् होता है‒यह नियम है । सच्‍चे हृदयसे सेवा करनेवाला पुरुष स्थूलदृष्‍टिसे तो पदार्थोंको सेव्यकी सेवामें लगाता है, पर सूक्ष्मदृष्‍टिसे देखा जाय तो वह सेव्यके हृदयमें सेवाभाव जाग्रत् करता है । यदि सेव्यके हृदयमें सेवाभाव जाग्रत् न हो, तो साधकको समझ लेना चाहिये कि सेवा करनेमें कोई त्रुटि (अपने लिये कुछ पाने या लेनेकी इच्छा) है । अतः साधकको इस विषयमें विशेष सावधानी रखते हुए ही दूसरोंकी सेवा करनी चाहिये और अपनी त्रुटियोंको खोजकर निकाल देना चाहिये । दूसरे मुझे अच्छा कहें‒ऐसा भाव सेवामें बिलकुल नहीं रखना चाहिये । ऐसा भाव आते ही उसे तुरंत मिटा देना चाहिये, क्योंकि यह भाव अभिमान बढ़ानेवाला है ।

प्रत्येक साधकके लिये संसार केवल कर्तव्य-पालनका क्षेत्र है, सुखी-दुःखी होनेका क्षेत्र नहीं । संसार सेवाके लिये है । संसारमें साधकको सेवा-ही-सेवा करनी है । सेवा करनेमें सबसे पहले साधकका यह भाव होना चाहिये कि मेरे द्वारा किसीका किंचिन्मात्र भी अहित न हो । संसारमें कुछ प्राणी दुःखी रहते हैं और कुछ प्राणी सुखी रहते हैं । दुःखी प्राणीको देखकर दुःखी हो जाना और सुखी प्राणीको देखकर सुखी हो जाना भी सेवा है; क्योंकि इससे दुःखी और सुखी‒दोनों व्यक्तियोंको सुखका अनुभव होता है और उन्हें बल मिलता है कि हमारा भी कोई साथी है ! दूसरा दुःखी है तो उसके साथ हम भी हृदयसे दुःखी हो जायँ कि उसका दुःख कैसे मिटे ? उससे प्रेमपूर्वक बात करें और सुनें । उससे कहें कि प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर घबराना नहीं चाहिये; ऐसी परिस्थिति तो भगवान् राम एवं राजा नल, हरिश्‍चन्द्र आदि अनेक बड़े-बड़े पुरुषोंपर भी आयी है; आजकल तो अनेक लोग तुम्हारेसे भी ज्यादा दुःखी हैं; हमारे लायक कोई काम हो तो कहना; आदि । ऐसी बातोंसे वह राजी हो जायगा । ऐसे ही सुखी व्यक्तिसे मिलकर हम भी हृदयसे सुखी हो जायँ कि बहुत अच्छा हुआ, तो वह राजी हो जायगा । इस प्रकार हम दुःखी और सुखी‒दोनों व्यक्तियोंकी सेवा कर सकते हैं । दूसरेके दुःख और सुख‒दोनोंमें सहमत होकर हम दूसरोंको सुख पहुँचा सकते हैं । केवल दूसरोंके हितका भाव निरन्तर रहनेकी आवश्यकता है । जो दूसरोंके दुःखसे दुःखी और दूसरोंके सुखसे सुखी होते हैं, वे सन्त होते हैं । गोस्वामी तुलसीदासजी महाराजने संतोंके लक्षणोंमें कहा है‒पर दुख दुख सुख सुख देखे पर’ (मानस ७ । ३८ । १) ।

यहाँ शंका होती है कि यदि हम दूसरोंके दुःखसे दुःखी होने लगें तो फिर हमारा दुःख कभी मिटेगा ही नहीं; क्योंकि संसारमें दुःखी तो मिलते ही रहेंगे ! इसका समाधान यह है कि जैसे हमारे ऊपर कोई दुःख आनेसे हम उसे दूर करनेकी चेष्‍टा करते हैं, ऐसे ही दूसरेको दुःखी देखकर अपनी शक्तिके अनुसार उसका दुःख दूर करनेकी चेष्‍टा होनी चाहिये । उसका दुःख दूर करनेकी सच्‍ची भावना होनी चाहिये । अतः दूसरेके दुःखसे दुःखी होनेका तात्पर्य उसके दुःखको दूर करनेका भाव तथा चेष्‍टा करनेमें है, जिससे हमें प्रसन्‍नता ही होगी, दुःख नहीं । दूसरेके दुःखसे दुःखी होनेपर हमारे पास शक्ति, योग्यता, पदार्थ आदि जो कुछ भी है, वह सब स्वतः दूसरेका दुःख दूर करनेमें लग जायगा । दुःखी व्यक्तिको सुखी बना देना तो हमारे हाथकी बात नहीं है, पर उसका दुःख दूर करनेके लिये अपनी सुख-सामग्रीको उसकी सेवामें लगा देना हमारे हाथकी बात है । सुख-सामग्रीके त्यागसे तत्काल शान्तिकी प्राप्‍ति होती है ।

सेवा करनेका अर्थ है‒सुख पहुँचाना । साधकका भाव मा कश्‍चिद् दुःखभाग्भवेत्’ (किसीको किंचिन्मात्र भी दुःख न हो) होनेसे वह सभीको सुख पहुँचाता है अर्थात् सभीकी सेवा करता है । साधक भले ही सबको सुखी न कर सके, पर वह ऐसा भाव तो बना ही सकता है । भाव बनानेमें सब स्वतन्त्र हैं, कोई पराधीन नहीं । इसलिये सेवा-करनेमें धनादि पदार्थोंकी आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत सेवा-भावकी ही आवश्यकता है । क्रियाएँ और पदार्थ चाहे जितने हों, सीमित ही होते हैं । सीमित क्रियाओं और पदार्थोंसे सेवा भी सीमित ही होती है; फिर सीमित सेवासे असीम तत्त्व (परमात्मा)-की प्राप्‍ति कैसे हो सकती है ? परन्तु भाव असीम होता है । असीमभावसे सेवा भी असीम होती है और असीम सेवासे असीम तत्त्वकी प्राप्‍ति होती है । इसलिये सेवा-भाववाले व्यक्तिकी क्रियाएँ और पदार्थ कम होनेपर भी उसकी सेवा कम नहीं समझनी चाहिये; क्योंकि उसका भाव असीम होता है ।

यद्यपि साधकके कर्तव्य-पालनका क्षेत्र सीमित ही होता है, तथापि उसमें जिन-जिनसे उसका व्यवहार होता है, उनमें वह सुखीको देखकर सुखी एवं दुःखीको देखकर दुःखी होता है । पदार्थ, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिको जो अपना नहीं मानता, वही दूसरोंके सुखमें सुखी एवं दुःखमें दुःखी हो सकता है । शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि अपने और अपने लिये हैं ही नहीं‒यह वास्तविकता है । देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, योग्यता, सामर्थ्य आदि कुछ भी व्यक्तिगत नहीं है । इन पदार्थोंमें भूलसे माने हुए अपनेपनका त्याग प्रत्येक मनुष्य कर सकता है, चाहे वह दरिद्र-से-दरिद्र हो अथवा धनी-से-धनी, पढ़ा-लिखा हो अथवा अनपढ़ । इस त्यागमें सब-के-सब स्वाधीन तथा समर्थ हैं ।

सच्‍चे सेवककी वृत्ति नाशवान् वस्तुओंपर जाती ही नहीं; क्योंकि उसके अन्तःकरणमें वस्तुओंका महत्त्व नहीं होता । अन्तःकरणमें वस्तुओंका महत्त्व होनेपर ही वस्तुएँ व्यक्तिगत (अपनी) प्रतीत होती हैं । साधकको चाहिये कि वह पहलेसे ही ऐसा मान ले कि वस्तुएँ मेरी नहीं हैं और मेरे लिये भी नहीं हैं । वस्तुओंको अपनी और अपने लिये माननेसे भोग ही होता है, सेवा नहीं । इस प्रकार वस्तुओंको अपनी और अपने लिये न मानकर सेव्यकी ही मानते हुए सेवामें लगा देनेसे राग-द्वेष सुगमतापूर्वक मिट जाते हैं ।

तौ ह्यस्य परिपन्‍थिनौ’पारमार्थिक मार्गमें राग-द्वेष ही साधककी साधन-सम्पत्तिको लूटनेवाले मुख्य शत्रु हैं । परन्तु इस ओर प्रायः साधक ध्यान नहीं देता । यही कारण है कि साधन करनेपर भी साधककी जितनी आध्यात्मिक उन्‍नति होनी चाहिये, उतनी होती नहीं । प्रायः साधकोंकी यह शिकायत रहती है कि मन नहीं लगता; पर वास्तवमें मनका न लगना उतना बाधक नहीं है, जितने बाधक राग-द्वेष हैं । इसलिये साधकको चाहिये कि वह मनकी एकाग्रताको महत्त्व न दे और जहाँ-जहाँ राग-द्वेष दिखायी दें वहाँ-वहाँसे उनको तत्काल हटा दे । राग-द्वेष हटानेपर मन लगना भी सुगम हो जायगा ।

स्वाभाविक कर्मोंका त्याग करना तो हाथकी बात नहीं है, पर उन कर्मोंको राग-द्वेषपूर्वक करना या न करना बिलकुल हाथकी बात है । साधक जो कर सकता है, वही करनेके लिये भगवान् आज्ञा देते हैं कि राग-द्वेष-युक्त स्‍फुरणा उत्पन्‍न होनेपर भी उसके अनुसार कर्म मत करो; क्योंकि वे दोनों ही पारमार्थिक मार्गके लुटेरे हैं । ऐसा करनेमें साधक स्वतन्त्र है । वास्तवमें राग-द्वेष स्वतः नष्‍ट हो रहे हैं, पर साधक उन राग-द्वेषको अपनेमें मानकर उन्हें सत्ता दे देता है और उसके अनुसार कर्म करने लगता है । इसी कारण वे दूर नहीं होते । यदि साधक राग-द्वेषको अपनेमें न मानकर उसके अनुसार कर्म न करे, तो वे स्वतः नष्‍ट हो जायँगे ।

परिशिष्‍ट भाव‒सुख-दुःखका कारण दूसरेको माननेसे ही राग-द्वेष होते हैं अर्थात् जिसको सुख देनेवाला मानते हैं, उसमें राग हो जाता है और जिसको दुःख देनेवाला मानते हैं, उसमें द्वेष हो जाता है । अतः राग-द्वेष अपनी भूलसे पैदा होते हैं, इसमें दूसरा कोई कारण नहीं है । राग-द्वेष होनेके कारण ही संसार भगवत्स्वरूप नहीं दीखता, प्रत्युत जड़ और नाशवान् दीखता है । अगर राग-द्वेष न हों तो जड़ता है ही नहीं, प्रत्युत सब कुछ चिन्मय परमात्मा ही हैं‒वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७ । १९) ।

अगर मन-बुद्धिमें राग-द्वेषादि कोई दोष पैदा हो जाय तो उसके वशमें नहीं होना चाहिये अर्थात् उसके अनुसार कोई निषिद्ध क्रिया नहीं करनी चाहिये । उसके वशीभूत होकर क्रिया करनेसे वह दोष दृढ़ हो जायगा । परन्तु उसके वशीभूत होकर क्रिया न करनेसे एक उत्साह पैदा होगा । जैसे, किसीने हमारेसे कड़वी बात कह दी, पर हमें क्रोध नहीं आया तो हमारे भीतर एक उत्साह, प्रसन्‍नता होगी कि आज तो हम बच गये । परन्तु इसमें अपना बल न मानकर भगवान्‌की कृपा माननी चाहिये कि उनकी कृपासे ही हम बच गये, नहीं तो इसके वशीभूत हो जाते ! इस तरह साधकको कभी भी कोई दोष दीखे तो वह उसके वशीभूत न हो और उसको अपनेमें भी न माने । अगर राग-द्वेष अपनेमें होते तो जबतक अपनी सत्ता रहती तबतक राग-द्वेष भी रहते । परन्तु यह सबका अनुभव है कि हम तो निरन्तर रहते हैं, पर राग-द्वेष निरन्तर नहीं रहते, प्रत्युत आते-जाते हैं । सत्तारूप स्वयंमें राग-द्वेष आ ही नहीं सकते । कारण कि हमारा (स्वयंका) विभाग अलग है और राग-द्वेषका विभाग अलग है । जिसको राग-द्वेषके आने-जानेका ज्ञान होता है, वह राग-द्वेषसे अलग होता है । अतः राग-द्वेष हमारेसे भी अलग हैं और जिनमें ये प्रतीत होते हैं, उन मन-बुद्धि आदिसे भी अलग हैं‒मनोगतान्’ (गीता २ । ५५) ।

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ’ पदोंका तात्पर्य है कि अनुकूलता-प्रतिकूलता दोनोंमें राग न करे, प्रत्युत उनका सदुपयोग करे अर्थात् अनुकूलतामें दूसरोंकी सेवा करे और प्रतिकूलतामें अनुकूलताकी इच्छाका त्याग करे । तयोर्न वशमागच्छेत्’ पदोंका तात्पर्य है कि अनुकूलता-प्रतिकूलतामें सुखी-दुःखी न हो । सुखी-दुःखी होना फलासक्त होना है और फलासक्त मनुष्य बँध जाता है‒फले सक्तो निबध्यते’ (गीता ५ । १२) ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्याभूलसे अपने सुख-दुःखका कारण दूसरेको माननेसे ही राग-द्वेष उत्पन्‍न होते हैं । यदि अन्तःकरणमें राग-द्वेष उत्पन्‍न हो जायँ तो उनके वशीभूत होकर कोई क्रिया नहीं करनी चाहिये; क्योंकि क्रिया करनेसे राग-द्वेष दृढ़ हो जाते हैं ।

साधक राग-द्वेषके वशीभूत भी न हो और उनको अपनेमें भी न माने । राग-द्वेष आगन्तुक दोष हैं । हमें इनके आने-जानेका ज्ञान होता है; अत: हम इनसे अलग हैं ।

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