।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०८०, मंगलवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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मार्मिक बात

स्वयं परमात्माका अंश होनेसे वास्तवमें स्वधर्म है‒अपना कल्याण करना, अपनेको भगवान्‌का मानना और भगवान्‌के सिवाय किसीको भी अपना न मानना, अपनेको जिज्ञासु मानना, अपनेको सेवक मानना । कारण कि ये सभी सही धर्म हैं, खास स्वयंके धर्म हैं, मन-बुद्धिके धर्म नहीं हैं । बाकी वर्ण, आश्रम, शरीर आदिको लेकर जितने भी धर्म हैं, वे अपने कर्तव्य-पालनके लिये स्वधर्म होते हुए भी परधर्म ही हैं । कारण कि वे सभी धर्म माने हुए हैं और स्वयंके नहीं हैं । उन सभी धर्मोंमें दूसरोंके सहारेकी आवश्यकता होती है अर्थात् उनमें परतन्त्रता रहती है; परन्तु जो अपना असली धर्म है, उसमें किसीकी सहायताकी आवश्यकता नहीं होती अर्थात् उसमें स्वतन्त्रता रहती है । इसलिये प्रेमी होता है तो स्वयं होता है, जिज्ञासु होता है तो स्वयं होता है और सेवक होता है तो स्वयं होता है । अतः प्रेमी प्रेम होकर प्रेमास्पदके साथ एक हो जाता है, जिज्ञासु जिज्ञासा होकर ज्ञातव्य-तत्त्वके साथ एक हो जाता है और सेवक सेवा होकर सेव्यके साथ एक हो जाता है । ऐसे ही साधक-मात्र साधनासे एक होकर साध्यस्वरूप हो जाता है ।

परमात्मप्राप्‍ति चाहनेवाले साधकको धन, मान, बड़ाई, आदर, आराम आदि पानेकी इच्छा नहीं होती । इसलिये धन-मानादिके न मिलनेपर उसे कोई चिन्ता नहीं होती और यदि प्रारब्धवश ये मिल जायँ तो उसे कोई प्रसन्‍नता नहीं होती । कारण कि उसका ध्येय केवल परमात्माको प्राप्‍त करना ही होता है, धन-मानादिको प्राप्‍त करना नहीं । इसलिये कर्तव्यरूपसे प्राप्‍त लौकिक कार्य भी उसके द्वारा सुचारु-रूपसे और पवित्रतापूर्वक होते हैं । परमात्मप्राप्‍तिका उद्‌देश्य होनेसे उसके सभी कर्म परमात्माके लिये ही होते हैं । जैसे, धन-प्राप्‍तिका ध्येय होनेपर व्यापारी आरामका त्याग करता है और कष्‍ट सहता है और जैसे डॉक्टरद्वारा फोड़ेपर चीरा लगाते समयइसका परिणाम अच्छा होगा’ इस तरफ दृष्‍टि रहनेसे रोगीका अन्तःकरण प्रसन्‍न रहता है, ऐसे ही परमात्म-प्राप्‍तिका लक्ष्य रहनेसे संसारमें पराजय, हानि, कष्‍ट आदि प्राप्‍त होनेपर भी साधकके अन्तःकरणमें स्वाभाविक प्रसन्‍नता रहती है । अनुकूल-प्रतिकूल आदि मात्र परिस्थितियाँ उसके लिये साधन-सामग्री होती हैं ।

जब साधक अपना कल्याण करनेका ही दृढ़ निश्‍चय करके स्वधर्म (अपने स्वाभाविक कर्म)-के पालनमें तत्परतापूर्वक लग जाता है, तब कोई कष्‍ट, दुःख, कठिनाई आदि आनेपर भी वह स्वधर्मसे विचलित नहीं होता । इतना ही नहीं, वह कष्‍ट, दुःख आदि उसके लिये तपस्याके रूपमें तथा प्रसन्‍नताको देनेवाला होता है ।

शरीरकोमैं’ और मेरा’ माननेसे ही संसारमें राग-द्वेष होते हैं । राग-द्वेषके रहनेपर मनुष्यको स्वधर्म-परधर्मका ज्ञान नहीं होता । अगर शरीर मैं’ (स्वरूप) होता तोमैं’ के रहते हुए शरीर भी रहता और शरीरके न रहनेपरमैं’ भी न रहता । अगर शरीर मेरा’ होता तो इसे पानेके बाद और कुछ पानेकी इच्छा न रहती । अगर इच्छा रहती है तो सिद्ध हुआ कि वास्तवमेंमेरी’ (अपनी) वस्तु अभी नहीं मिली और मिली हुई वस्तु (शरीरादि) मेरी’ नहीं है । शरीरको साथ लाये नहीं, साथ ले जा सकते नहीं, उसमें इच्छानुसार परिवर्तन कर सकते नहीं, फिर वहमेरा’ कैसे ? इस प्रकारशरीर मैं नहीं और मेरा नहीं’ इसका ज्ञान (विवेक) सभी साधकोंमें रहता है । परन्तु इस ज्ञानको महत्त्व न देनेसे उनके राग-द्वेष नहीं मिटते । अगर शरीरमें कभी मैं-पन और मेरा-पन दीख भी जाय, तो भी साधकको उसे महत्त्व न देकर अपने विवेकको ही महत्त्व देना चाहिये अर्थात् शरीर मैं नहीं और मेरा नहीं’ इसी बातपर दृढ़ रहना चाहिये । अपने विवेकको महत्त्व देनेसे वास्तविक तत्त्वका बोध हो जाता है । बोध होनेपर राग-द्वेष नहीं रहते । राग-द्वेषके न रहनेपर अन्तःकरणमें स्वधर्म-परधर्मका ज्ञान स्वतः प्रकट होता है और उसके अनुसार स्वतः चेष्‍टा होती है ।

परधर्मो भयावहः’यद्यपि परधर्मका पालन वर्तमानमें सुगम दीखता है, तथापि परिणाममें वह सिद्धान्तसे भयावह है । यदि मनुष्य स्वार्थभाव’ का त्याग करके परहितके लिये स्वधर्मका पालन करे, तो उसके लिये कहीं कोई भय नहीं है ।

शंका‒अठारहवें अध्यायके बयालीसवें, तैंतालीसवें और चौवालीसवें श्‍लोकमें क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रके स्वाभाविक कर्मोंका वर्णन करके भगवान्‌ने सैंतालीसवें श्‍लोकके पूर्वार्धमें भी यही बात (श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्‍ठितात्) कही है । अतः जब यहाँ (प्रस्तुत श्‍लोकमें) दूसरेके स्वाभाविक कर्मको भयावह कहा गया है, तब अठारहवें अध्यायके बयालीसवें श्‍लोकमें कहे ब्राह्मणकेस्वाभाविक कर्म’ भी दूसरों (क्षत्रियादि)-के लिये भयावह होने चाहिये, जब कि शास्‍त्रोंमें सभी मनुष्योंको उनका पालन करनेकी आज्ञा दी गयी है ।

समाधान‒मनका निग्रह, इन्द्रियोंका दमन आदि तोसामान्य’ धर्म है (गीता‒तेरहवें अध्यायके सातवेंसे ग्यारहवेंतक और सोलहवें अध्यायके पहलेसे तीसरे श्‍लोकतक), जिनका पालन सभीको करना चाहिये; क्योंकि ये सभीके स्वधर्म हैं । ये सामान्य धर्म ब्राह्मणके लियेस्वाभाविक कर्म’ इसलिये हैं कि इनका पालन करनेमें उन्हें परिश्रम नहीं होता; परन्तु दूसरे वर्णोंको इनका पालन करनेमें थोड़ा परिश्रम हो सकता है । स्वाभाविक कर्म और सामान्य धर्म‒दोनों ही स्वधर्म’ के अन्तर्गत आते हैं । सामान्य धर्मके सिवाय अपने स्वाभाविक कर्ममें पाप दीखते हुए भी वास्तवमें पाप नहीं होता; जैसे‒केवल अपना कर्तव्य समझकर (स्वार्थ, द्वेष आदिके बिना) शूरवीरतापूर्वक युद्ध करना क्षत्रियका स्वाभाविक कर्म होनेसे इसमें पाप दीखते हुए भी वास्तवमें पाप नहीं होता‒स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्‍नाप्‍नोति किल्बिषम्’ (गीता १८ । ४७) ।

सामान्य धर्मके सिवाय दूसरेका स्वाभाविक कर्म (परधर्म) भयावह है; क्योंकि उसका आचरण शास्‍त्र-निषिद्ध और दूसरेकी जीविकाको छीननेवाला है । दूसरेका धर्म भयावह इसलिये है कि उसका पालन करनेसे पाप लगता है और वह स्थान-विशेष तथा योनि-विशेष नरकरूप भयको देनेवाला होता है । इसलिये भगवान् अर्जुनसे मानो यह कहते हैं कि भिक्षाके अन्‍नसे जीवन-निर्वाह करना दूसरोंकी जीविकाका हरण करनेवाला तथा क्षत्रियके लिये निषिद्ध होनेके कारण तेरे लिये श्रेयस्कर नहीं है, प्रत्युत तेरे लिये युद्धरूपसे स्वतः प्राप्‍त स्वाभाविक कर्मका पालन ही श्रेयस्कर है ।

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