।। श्रीहरिः ।।

 


आजकी शुभ तिथि–

आश्‍विन कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०८०, बुधवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒तीसरे अध्यायके नवें श्‍लोकके पूर्वार्धमें भगवान्‌ने ‘व्यतिरेक रीति’ से कहा था कि यज्ञसे अतिरिक्त कर्म मनुष्यको बाँधते हैं । अब तेईसवें श्‍लोकके उत्तरार्धमें उसी बातको ‘अन्वय रीति’ से कहते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒यज्ञार्थ-कर्म करनेसे सम्पूर्ण कर्मोंका विलीन होना ।

         गतसङ्गस्य  मुक्तस्य   ज्ञानावस्थितचेतसः ।

  यज्ञायाचरतः  कर्म  समग्रं   प्रविलीयते ॥२३॥

अर्थ‒जिसकी आसक्ति सर्वथा मिट गयी है, जो मुक्त हो गया है, जिसकी बुद्धि स्वरूपके ज्ञानमें स्थित है, ऐसे केवल यज्ञके लिये कर्म करनेवाले मनुष्यके सम्पूर्ण कर्म नष्‍ट हो जाते हैं ।

गतसङ्गस्य = जिसकी आसक्ति सर्वथा मिट गयी है,

आचरतः = कर्म करनेवाले मनुष्यके

मुक्तस्य = जो मुक्त हो गया है,

समग्रम् = सम्पूर्ण

ज्ञानावस्थित चेतसः = जिसकी बुद्धि स्वरूपके ज्ञानमें स्थित है, (ऐसे केवल)

कर्म = कर्म

यज्ञाय = यज्ञके लिये

प्रविलीयते = नष्‍ट हो जाते हैं ।

व्याख्या‒[ कर्मयोगीके सम्पूर्ण कर्मोंके विलीन होनेकी बात गीताभरमें केवल इसी श्‍लोकमें आयी है, इसलिये यह कर्मयोगका मुख्य श्‍लोक है । इसी प्रकार चौथे अध्यायका छत्तीसवाँ श्‍लोक ज्ञानयोगका और अठारहवें अध्यायका छाछठवाँ श्‍लोक भक्तियोगका मुख्य श्‍लोक है । ]

गतसङ्गस्य’क्रियाओंका, पदार्थोंका, घटनाओंका, परिस्थितियोंका, व्यक्तियोंका जो संग है, इनके साथ जो हृदयसे लगाव है, वही वास्तवमें बाँधनेवाला अर्थात् जन्म-मरण देनेवाला है (गीता‒तेरहवें अध्यायका इक्‍कीसवाँ श्‍लोक) । स्वार्थभावको छोड़कर केवल लोगोंके हितके लिये, लोकसंग्रहार्थ कर्म करते रहनेसे कर्मयोगी क्रियाओं, पदार्थों आदिसे असंग हो जाता है अर्थात् उसकी आसक्ति सर्वथा मिट जाती है ।

वास्तवमें मनुष्य स्वरूपसे असंग ही है‒‘असंगो ह्ययं पुरुषः’ (बृहदारण्यक ४ । ३ । १५) । किंतु असंग होते हुए भी यह शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ, परिस्थिति, व्यक्ति आदिसे सम्बन्ध मानकर सुखकी इच्छासे उनमें आबद्ध हो जाता है । मेरी मनचाही हो अर्थात् जो मैं चाहता हूँ, वही हो और जो मैं नहीं चाहता, वह नहीं हो‒ऐसा भाव जबतक रहता है, तबतक यह संग बढ़ता ही रहता है । वास्तवमें होता वही है, जो होनेवाला है । जो होनेवाला है, उसे चाहें या न चाहें, वह होगा ही; और जो नहीं होनेवाला है, उसे चाहें या न चाहें, वह नहीं होगा । अतः अपनी मनचाही करके मनुष्य व्यर्थमें (बिना कारण) फँसता है और दुःख पाता है ।

कर्मयोगी संसारसे मिली हुई शरीरादि वस्तुओंको अपनी और अपने लिये न मानकर उन्हें संसारकी ही मानकर संसारकी सेवामें अर्पण कर देता है । इससे वस्तुओं और क्रियाओंका प्रवाह संसारकी ओर ही हो जाता है और अपना असंग स्वरूप ज्यों-का-त्यों रह जाता है ।

कर्मयोगीका ‘अहम्’ भी सेवामें लग जाता है । तात्पर्य यह है कि उसके भीतर ‘मैं सेवक हूँ’ यह भाव भी नहीं रहता । यह भाव तो मनुष्यको सेवकपनेके अभिमानसे बाँध देता है । सेवकपनेका अभिमान तभी होता है, जब सेवा-सामग्रीके साथ अपनापन होता है । सेवाकी वस्तु उसीकी थी, उसीको दे दी तो सेवा क्या हुई ? हम तो उससे उऋण हुए । इसलिये सेवक न रहे, केवल सेवा रह जाय । यह भाव रहे कि सेवाके बदलेमें धन, मान, बड़ाई, पद, अधिकार आदि कुछ भी लेना नहीं है; क्योंकि उसपर हमारा हक ही नहीं लगता । उसे स्वीकार करना तो अनधिकार चेष्‍टा है । लोग मेरेको सेवक कहें‒ऐसा भाव भी न रहे और यदि वे कहें तो उसमें राजी भी न हो । इस प्रकार संसारकी वस्तुओंको संसारकी सेवामें सर्वथा लगा देनेसे अन्तःकरणमें एक प्रसन्‍नता होती है । उस प्रसन्‍नताका भी भोग न किया जाय तो स्वतःसिद्ध असंगताका अनुभव हो जाता है ।

मुक्तस्य’जो अपने स्वरूपसे सर्वथा अलग हैं, उन क्रियाओं और शरीरादि पदार्थोंसे अपना सम्बन्ध न होते हुए भी कामना, ममता और आसक्तिपूर्वक उनसे अपना सम्बन्ध मान लेनेसे मनुष्य बँध जाता है अर्थात् पराधीन हो जाता है । कर्मयोगका अनुष्‍ठान करनेसे जब माना हुआ (अवास्तविक) सम्बन्ध मिट जाता है, तब कर्मयोगी सर्वथा असंग हो जाता है । असंग होते ही वह सर्वथा मुक्त हो जाता है अर्थात् स्वाधीन हो जाता है ।

ज्ञानावस्थितचेतसः’जिसकी बुद्धिमें स्वरूपका ज्ञान नित्य-निरन्तर जाग्रत् रहता है, वह ‘ज्ञानावस्थितचेतसः’ है । स्वरूप-ज्ञान होते ही उसकी स्वरूपमें स्थिति हो जाती है, जो वास्तवमें पहलेसे ही थी ।

वास्तवमें ज्ञान संसारका ही होता है । स्वरूपका ज्ञान नहीं होता; क्योंकि स्वरूप स्वतः ज्ञानस्वरूप है । क्रिया और पदार्थ ही संसार है । क्रिया और पदार्थका विभाग अलग है तथा स्वरूपका विभाग अलग है अर्थात् क्रिया और पदार्थका स्वरूपके साथ किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है । क्रिया और पदार्थ जड हैं तथा स्वरूप चेतन है । क्रिया और पदार्थ प्रकाश्य हैं तथा स्वरूप प्रकाशक है । इस प्रकार क्रिया और पदार्थकी स्वरूपसे भिन्‍नताका ठीक-ठीक ज्ञान होते ही क्रिया और पदार्थरूप संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होकर स्वतःसिद्ध असंग स्वरूपमें स्थितिका अनुभव हो जाता है ।

यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते’‘कर्ममें अकर्म’ देखनेका ही एक प्रकार है‒‘यज्ञार्थ कर्म’ अर्थात् यज्ञके लिये कर्म करना । निःस्वार्थभावसे केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करना ‘यज्ञ’ है । जो यज्ञके लिये ही सम्पूर्ण कर्म करता है, वह कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है और जो यज्ञके लिये कर्म नहीं करता अर्थात् अपने लिये कर्म करता है, वह कर्मोंसे बँध जाता है‒‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः’ (गीता ३ । ९) ।

प्रकृतिका कार्य है‒क्रिया और पदार्थ । इन दोनोंमें क्रियाका भी आदि और अन्त होता है तथा पदार्थका भी आदि और अन्त होता है । क्रिया आरम्भ होनेसे पहले भी नहीं थी और समाप्‍त होनेके बाद भी नहीं रहेगी, इसलिये बीचमें भी वह नहीं है‒ऐसा सिद्ध हुआ । इसी प्रकार पदार्थ उत्पन्‍न होनेसे पहले भी नहीं था और नष्‍ट होनेके बाद भी नहीं रहेगा, इसलिये बीचमें भी वह नहीं है‒यह सिद्ध हुआ; क्योंकि यह सिद्धान्त है कि जो वस्तु आदि और अन्तमें नहीं होती, वह मध्य (वर्तमान)-में भी नहीं होती

१.आदावन्ते च यन्‍नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा ।

(माण्डूक्यकारिका ४ । ३१)

परन्तु चेतन स्वरूपका आदि और अन्त नहीं होता, वह सदा अक्रियरूपसे ज्यों-का-त्यों रहता है । वह चेतन-तत्त्व क्रिया और पदार्थ‒दोनोंका प्रकाशक है । इस प्रकार क्रिया और पदार्थके साथ किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध न होते हुए भी जब वह इनके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब वह बँध जाता है । इस बन्धनसे छूटनेका उपाय है‒फलेच्छाका त्याग करके केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करना ।

संसारमें अनेक प्रकारकी क्रियाएँ हो रही हैं और अनेक प्रकारके पदार्थ विद्यमान हैं । परन्तु मनुष्य जिन क्रियाओं और पदार्थोंसे आसक्ति, ममता और कामनापूर्वक अपना सम्बन्ध मानता है, उन्हीं क्रियाओं और पदार्थोंसे वह बँधता है । जब मनुष्य कामना, ममता और आसक्तिका त्याग करके केवल दूसरोंके हितके लिये सम्पूर्ण कर्म करता है और मिले हुए पदार्थोंको दूसरोंका ही मानकर उनकी सेवामें लगाता है, तब कर्मयोगीके सम्पूर्ण (क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध) कर्म विलीन हो जाते हैं अर्थात् उसे कर्मोंके साथ अपनी स्वतःसिद्ध असंगताका अनुभव हो जाता है ।

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