।। श्रीहरिः ।।

  


आजकी शुभ तिथि–

आश्‍विन कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०८०, गुरुवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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विशेष बात

(१) कर्ता, करण और कर्म‒इन तीनोंके मिलनेसे कर्मोंका संचय होता है (गीता‒अठारहवें अध्यायका अठारहवाँ श्‍लोक) । यदि कर्तापन न रहे तो कर्मोंका संग्रह नहीं होता; क्योंकि करण और कर्म‒दोनों कर्ताके ही अधीन हैं । अतः कर्मसंचयका मुख्य हेतु कर्तापन ही है ।

विचारपूर्वक देखा जाय तो कुछ-न-कुछ पानेकी इच्छासे ही करनेकी इच्छा उत्पन्‍न होती है, जिससे कर्तापन उत्पन्‍न होता है । कर्तापनसे बन्धन होता है । जब मनुष्य पानेकी इच्छासे अपने लिये कर्म करता है, तब उसका कर्तापन दृढ़ हो जाता है । जब कर्मयोगी पानेकी इच्छाका त्याग करके केवल यज्ञके लिये अर्थात् दूसरोंके हितके लिये कर्म करता है, तब उसका कर्तापन दूसरोंके लिये होता है; इससे उसे अपनी असंगताका अनुभव हो जाता है । इसलिये उसके द्वारा होनेवाले कर्मोंका संचय नहीं होता । कारण कि जब आधार (कर्तापन) ही नहीं रहा, तब कर्म टिकेंगे ही कहाँ ?

कर्मयोगमें ‘ममता’ (मेरा-पन) का त्याग और ज्ञानयोगमें ‘अहंता’ (मैं-पन) का त्याग मुख्य है । ममताका त्याग होनेसे अहंताका और अहंताका त्याग होनेसे ममताका त्याग स्वतः हो जाता है । इसलिये कर्मयोगमें पहले ‘ममता’ मिटती है, फिर ‘अहंता’ स्वतः मिट जाती है, और ज्ञानयोगमें पहले ‘अहंता’ मिटती है, फिर ‘ममता’ स्वतः मिट जाती है । अहंता और ममताके मिटनेपर कर्तापन और भोक्तापन भी मिट जाते हैं ।

१.अहंताके साथ भी ममता रहती है; जैसे‒मेरा अहंकार । इसलिये कर्मयोगमें ममताका सर्वथा त्याग होनेपर अहंताके साथ भी ममता नहीं रहती । फिर अहंता (कथनमात्रके लिये) केवल संसारकी सेवाके लिये रह जाती है ।

कर्मयोगी अपने लिये कोई कर्म करता ही नहीं और कुछ चाहता ही नहीं; अतः वह कर्मोंके फलका भोक्ता नहीं बनता । जैसे, एक व्यक्तिको यहाँ कई दण्ड भोगने हैं । परन्तु वह मर जाय तो यहाँ उसके सभी दण्ड समाप्‍त हो जाते हैं; क्योंकि जब भोगनेवाला व्यक्ति ही नहीं रहा, तब दण्ड भोगेगा ही कौन ? ऐसे ही जब कर्मयोगीका भोक्तापन मिट जाता है, तब उसके सभी कर्म समाप्‍त हो जाते हैं; क्योंकि जब भोक्ता ही नहीं रहा, तब कर्मोंका फल भोगेगा ही कौन ?

(२) इसी अध्यायके नवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं‒इस प्रकार जो मनुष्य तत्त्वसे जान लेता है, वह मेरेको प्राप्‍त होता है । जन्म तो केवल भगवान्‌के ही दिव्य होते हैं, पर कर्म मनुष्यमात्रके भी (यदि वे करना चाहें तो) दिव्य हो सकते हैं । अतः इसी अध्यायके चौदहवें श्‍लोकमें भगवान् अपने कर्मोंकी दिव्यताका कारण बताते हैं कि कर्मोंके फलमें मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्‍त नहीं करते अर्थात् मेरे कर्म अकर्म हो जाते हैं । इस प्रकार कर्मोंका तत्त्व जानकर जो कर्म करता है, उसके भी कर्म अकर्म हो जाते हैं । फिर पंद्रहवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि मुमुक्षुओंने भी इसी प्रकार जानकर कर्म किये हैं । इसके बाद सोलहवें श्‍लोकमें भगवान् कर्मोंका तत्त्व कहनेकी प्रतिज्ञा करते हैं, और सत्रहवें श्‍लोकमें कहते हैं कि कर्म, विकर्म और अकर्म‒तीनोंका तत्त्व जानना चाहिये । फिर अठारहवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने मुख्यरूपसे कर्मोंका तत्त्व (अकर्म अथवा निर्लिप्‍तता) बतलाया ।

कामनासे ‘कर्म’ होते हैं, कामनाके बढ़नेपर ‘विकर्म’ होते हैं और कामनाका अत्यन्त अभाव होनेसे ‘अकर्म’ होता है । मूलमें इस (सोलहवेंसे बत्तीसवें श्‍लोकतकके) प्रकरणका तात्पर्य ‘अकर्म’ का वर्णन करना ही है । इसीलिये भगवान्‌ने कर्म और विकर्म‒दोनोंके मूल कारण ‘कामना’ के त्यागका तथा ‘अकर्मका’ वर्णन उन्‍नीसवेंसे तेईसवें श्‍लोकतक प्रत्येक श्‍लोकमें किया है और अन्तमें बत्तीसवें श्‍लोकमें इस प्रकरणका उपसंहार किया है ।

२.उदाहरणार्थ‒कामनाके त्यागकी बात इन पदोंमें आयी है‒‘कामसङ्कल्पवर्जिताः’ (४ । १९); ‘त्यक्त्वा कर्मफलासंगम्’ (४ । २०); ‘निराशीः’ (४ । २१); ‘यदृच्छालाभसन्तुष्‍टः’ (४ । २२) और ‘गतसंगस्य’ (४ । २३) ।

अकर्मकी बात इन पदोंमें आयी है‒‘ज्ञानाग्‍निदग्धकर्माणम्’ (४ । १९); ‘नैव किंचित्करोति सः’ (४ । २०); ‘कर्म कुर्वन्‍नाप्‍नोति किल्बिषम्’ (४ । २१); ‘कृत्वापि न निबध्यते’ (४ । २२) और ‘कर्म समग्रं प्रविलीयते’ (४ । २३) ।

परिशिष्‍ट भाव‒एक ‘क्रिया’ होती है, एक ‘कर्म’ होता है और एक ‘कर्मयोग’ होता है । शरीर बालकसे जवान तथा जवानसे बूढ़ा होता है‒यह ‘क्रिया’ है । क्रियासे न पाप होता है, न पुण्य; न बन्धन होता है, न मुक्ति । जैसे, गंगाजीका बहना क्रिया है; अतः कोई डूबकर मर जाय अथवा खेती आदि कोई परोपकार हो जाय तो गंगाजीको पाप-पुण्य नहीं लगता । जब मनुष्य क्रियासे सम्बन्ध जोड़कर कर्ता बन जाता है अर्थात् अपने लिये क्रिया करता है, तब वह क्रिया फलजनक ‘कर्म’ बन जाती है । कर्मसे बन्धन होता है‒‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः’ (गीता ३ । ९) । कर्मबन्धनसे छूटनेके लिये जब मनुष्य अपने लिये कुछ नहीं करता, प्रत्युत निःस्वार्थभावसे केवल दूसरोंके हितके लिये ही कर्म करता है, तब वह ‘कर्मयोग’ हो जाता है । कर्मयोगसे बन्धन मिटता है‒‘यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ।’ बन्धन मिटनेसे योग हो जाता है अर्थात् परमात्माके साथ नित्य-सम्बन्धका अनुभव हो जाता है ।

यह तेईसवाँ श्‍लोक कर्मयोगका मुख्य श्‍लोक है । जैसे भगवान्‌ने ‘ज्ञानाग्‍निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते’ (४ । ३७) पदोंसे ज्ञानाग्‍निके द्वारा ज्ञानयोगीके सम्पूर्ण पाप भस्म होनेकी बात कही है और ‘अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि’ (१८ । ६६) पदोंसे भक्तके सम्पूर्ण पाप नष्‍ट होनेकी बात कही है, ऐसे ही इस श्‍लोकमें ‘यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते’ पदोंसे कर्मयोगीके समग्र कर्म (पाप) नष्‍ट होनेकी बात कही है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करना ‘यज्ञार्थ कर्म’ है । यज्ञार्थ कर्म करनेवाले कर्मयोगीके सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं और उसे अपने स्वतःस्वाभाविक असंग स्वरूपका अनुभव हो जाता है ।

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