।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–

आश्‍विन कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०८०, शुक्रवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒पूर्वश्‍लोकमें भगवान्‌ने बताया कि यज्ञके लिये कर्म करनेसे सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं । साधकोंकी रुचि, विश्‍वास और योग्यताकी भिन्‍नताके कारण साधन भी भिन्‍न-भिन्‍न प्रकारके होते हैं । इसलिये अब आगेके सात श्‍लोकोंमें (चौबीसवेंसे तीसवें श्‍लोकतक) भगवान् भिन्‍न-भिन्‍न प्रकारके साधनोंका ‘यज्ञ’ रूपसे वर्णन करते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒ब्रह्मयज्ञका वर्णन ।

       ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्‍नौ ब्रह्मणा हुतम् ।

ब्रह्मैव  तेन   गन्तव्यं   ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥२४॥

अर्थ‒जिस यज्ञमें अर्पण अर्थात् जिससे अर्पण किया जाय, वे स्रुक्, स्रुवा आदि पात्र भी ब्रह्म है, हव्य पदार्थ (तिल, जौ, घी आदि) भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप कर्ताके द्वारा ब्रह्मरूप अग्‍निमें आहुति देनारूप क्रिया भी ब्रह्म है, (ऐसे यज्ञको करनेवाले) जिस मनुष्यकी ब्रह्ममें ही कर्म-समाधि हो गयी है, उसके द्वारा प्राप्‍त करनेयोग्य (फल भी) ब्रह्म ही है ।

अर्पणम् = अर्पण अर्थात् जिससे अर्पण किया जाय वे स्रुक्, स्रुवा आदि पात्र (भी)

हुतम् = आहुति देनारूप क्रिया (भी ब्रह्म है),

ब्रह्म = ब्रह्म है,

ब्रह्मकर्मसमाधिना = (ऐसे यज्ञको करनेवाले) जिस मनुष्यकी ब्रह्ममें ही कर्म-समाधि होगयी है,

हविः = हव्य पदार्थ (तिल, जौ, घी आदि) (भी)

तेन = उसके द्वारा

ब्रह्म = ब्रह्म है (और)

गन्तव्यम् = प्राप्‍त करनेयोग्य (फल भी)

ब्रह्मणा = ब्रह्मरूप कर्ताके द्वारा

ब्रह्म = ब्रह्म

ब्रह्माग्‍नौ = ब्रह्मरूप अग्‍निमें

एव = ही है ।

व्याख्या‒[ यज्ञमें आहुति मुख्य होती है । वह आहुति तब पूर्ण होती है, जब वह अग्‍निरूप ही हो जाय अर्थात् हव्य पदार्थकी अग्‍निसे अलग सत्ता ही न रहे । इसी प्रकार जितने भी साधन हैं, सब साध्यरूप हो जायँ, तभी वे यज्ञ होते हैं ।

जितने भी यज्ञ हैं, उनमें परमात्मतत्त्वका अनुभव करना भावना नहीं है, प्रत्युत वास्तविकता है । भावना तो पदार्थोंकी है ।

इस चौबीसवें श्‍लोकसे तीसवें श्‍लोकतक जिन यज्ञोंका वर्णन किया गया है, वे सब ‘कर्मयोग’ के अन्तर्गत हैं । कारण कि भगवान्‌ने इस प्रकरणके उपक्रममें भी ‘तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्‍ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्’ (४ । १६)‒ऐसा कहा है; और उपसंहारमें भी ‘कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे’ (४ । ३२)‒ऐसा कहा है तथा बीचमें भी कहा है‒‘यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते’ (४ । २३) । मुख्य बात यह है कि यज्ञकर्ताके सभी कर्म ‘अकर्म’ हो जायँ । यज्ञ केवल यज्ञ-परम्पराकी रक्षाके लिये किये जायँ तो सब-के-सब कर्म अकर्म हो जाते हैं । अतः इन सब यज्ञोंमें ‘कर्ममें अकर्म’ का ही वर्णन है । ]

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः’जिस पात्रसे अग्‍निमें आहुति दी जाती है, उस स्रुक्, स्रुवा आदिको यहाँ ‘अर्पणम्’ पदसे कहा गया है‒‘अर्प्यते अनेन इति अर्पणम् ।’ उस अर्पणको ब्रह्म ही माने ।

तिल, जौ, घी आदि जिन पदार्थोंका हवन किया जाता है, उन हव्य पदार्थोंको भी ब्रह्म ही माने ।

ब्रह्माग्‍नौ ब्रह्मणा हुतम्’आहुति देनेवाला भी ब्रह्म ही है (गीता १३ । २), जिसमें आहुति दी जा रही है, वह अग्‍नि भी ब्रह्म ही है और आहुति देनारूप क्रिया भी ब्रह्म ही है‒ऐसा माने ।

ब्रह्मकर्मसमाधिना’जैसे हवन करनेवाला पुरुष स्रुवा, हवि, अग्‍नि आदि सबको ब्रह्मका ही स्वरूप मानता है, ऐसे ही जो प्रत्येक कर्ममें कर्ता, करण, कर्म और पदार्थ सबको ब्रह्मरूप ही अनुभव करता है, उस पुरुषकी ब्रह्ममें ही कर्म-समाधि होती है अर्थात् उसकी सम्पूर्ण कर्मोंमें ब्रह्मबुद्धि होती है । उसके लिये सम्पूर्ण कर्म ब्रह्मरूप ही बन जाते हैं । ब्रह्मके सिवाय कर्मोंका अपना कोई अलग स्वरूप रहता ही नहीं ।

ब्रह्मैव तेन गन्तव्यम्’ब्रह्ममें ही कर्म-समाधि होनेसे जिसके सम्पूर्ण कर्म ब्रह्मरूप ही बन गये हैं, उसे फलके रूपमें निःसन्देह ब्रह्मकी ही प्राप्‍ति होती है । कारण कि उसकी दृष्‍टिमें ब्रह्मके सिवाय और किसीकी स्वतन्त्र सत्ता रहती ही नहीं ।

इस (चौबीसवें) श्‍लोकको शिष्‍टजन भोजनके समय बोलते हैं, जिससे भोजनरूप कर्म भी यज्ञ बन जाय । भोजनरूप कर्ममें ब्रह्मबुद्धि इस प्रकार की जाती है‒

(१) जिससे अर्पण किया जाता है, वह हाथ भी ब्रह्मरूप है‒‘सर्वतः पाणिपादं तत्’ (गीता १३ । १३) ।

(२) भोजनके पदार्थ भी ब्रह्मरूप हैं‒‘अहमेवाज्यम्’ (गीता ९ । १६) ।

(३) भोजन करनेवाला भी ब्रह्मरूप है‒‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५ । ७) ।

(४) जठराग्‍नि भी ब्रह्मरूप है‒‘अहं वैश्‍वानरः’ (गीता १५ । १४) ।

(५) भोजन करनारूप क्रिया अर्थात् जठराग्‍निमें अन्‍नकी आहुति देनारूप क्रिया भी ब्रह्म है‒‘अहं हुतम्’ (गीता ९ । १६) ।

(६) इस प्रकार भोजन करनेवाले मनुष्योंके द्वारा प्राप्‍त करनेयोग्य फल भी ब्रह्म ही है‒‘यज्ञशिष्‍टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्’ (गीता ४ । ३१) ।

मार्मिक बात

प्रकृतिके कार्य संसारका स्वरूप है‒क्रिया और पदार्थ । वास्तविक दृष्‍टिसे देखा जाय तो प्रकृति या संसार क्रियारूप ही है

१.प्रकर्षेण करणं (भावे ल्युट्) इति प्रकृतिः । सम्यग्‍रीत्या सरतीति संसारः ॥

कारण कि पदार्थ एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता; उसमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है । अतः वास्तवमें पदार्थ परिवर्तनरूप क्रियाका पुंज ही है । केवल ‘राग’ के कारण पदार्थकी मुख्यता दीखती है । सम्पूर्ण क्रियाएँ अभावमें जा रही हैं । अतः संसार अभावरूप ही है । भावरूपसे केवल एक अक्रिय-तत्त्व ब्रह्म ही है, जिसकी सत्तासे अभावरूप संसार भी सत्तावान् प्रतीत हो रहा है । संसारकी अभावरूपताको इस प्रकारसे समझ सकते हैं‒

संसारकी तीन अवस्थाएँ दीखती हैं‒उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय; जैसे‒वस्तु उत्पन्‍न होती है, फिर रहती है और अन्तमें नष्‍ट हो जाती है अथवा मनुष्य जन्म लेता है: फिर रहता है और अन्तमें मर जाता है । इससे आगे विचार करें तो केवल उत्पत्ति और प्रलयका ही क्रम है, स्थिति वस्तुतः है ही नहीं; जैसे‒यदि मनुष्यकी पूरी आयु पचास वर्षकी है, तो बीस वर्ष बीतनेपर उसकी आयु तीस वर्ष ही रह जाती है । इससे आगे विचार करें तो केवल प्रलय-ही-प्रलय (नाश-ही-नाश) है, उत्पत्ति है ही नहीं; जैसे‒आयुके जितने वर्ष बीत गये, उतने वर्ष मनुष्य मर ही गया । इस प्रकार मनुष्य प्रतिक्षण ही मर रहा है, उसका जीवन प्रतिक्षण ही मृत्युमें जा रहा है । दृश्यमात्र प्रतिक्षण अदृश्यमें जा रहा है । प्रलय अभावका ही नाम है, इसलिये अभाव ही शेष रहा । अभावकी सत्ता भावरूप ब्रह्मपर ही टिकी हुई है । अतः भावरूपसे एक ब्रह्म ही शेष रहा‒‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ (छान्दोग्य ३ । १४ । १); ‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७ । १९) ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒अब भगवान् अपनी प्राप्‍तिके लिये भिन्‍न-भिन्‍न साधनोंका ‘यज्ञ’ रूपसे वर्णन आरम्भ करते हैं । संसारकी सत्ता विद्यमान है ही नहीं (गीता २ । १६) । एक ब्रह्मके सिवाय कुछ नहीं है । संसारमें जो कर्ता, करण, कर्म और पदार्थ दिखायी देते हैं, वे सब ब्रह्मरूप ही हैं‒ऐसा अनुभव करना ‘ब्रह्मयज्ञ’ है ।

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