।। श्रीहरिः ।।

 


आजकी शुभ तिथि–

आश्‍विन अमावस्या, वि.सं.-२०८०, शनिवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सूक्ष्म विषय‒भगवदर्पणरूप दैवयज्ञका और ब्रह्मके साथ स्वयंकी एकतारूप यज्ञका वर्णन ।

   दैवमेवापरे  यज्ञं   योगिनः  पर्युपासते ।

    ब्रह्माग्‍नावपरे यज्ञं  यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥ २५ ॥

अर्थ‒अन्य योगीलोग दैव (भगवदर्पणरूप) यज्ञका ही अनुष्‍ठान करते हैं और दूसरे योगीलोग ब्रह्मरूप अग्‍निमें (विचाररूप) यज्ञके द्वारा ही (जीवात्मारूप) यज्ञका हवन करते हैं ।

अपरे = अन्य

अपरे = दूसरे (योगीलोग)

योगिनः = योगीलोग

ब्रह्माग्‍नौ = ब्रह्मरूप अग्‍निमें

दैवम् = दैव (भगवदर्पणरूप)

यज्ञेन= (विचाररूप) यज्ञके द्वारा

यज्ञम् = यज्ञका

एव = ही

एव = ही

यज्ञम् = (जीवात्मारूप) यज्ञका

पर्युपासते = अनुष्‍ठान करते हैं (और)

उपजुह्वति = हवन करते हैं ।

व्याख्या‘दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते’पूर्वश्‍लोकमें भगवान्‌ने सर्वत्र ब्रह्मदर्शनरूप यज्ञ करनेवाले साधकका वर्णन किया । यहाँ भगवान् ‘अपरे’ पदसे उससे भिन्‍न प्रकारके यज्ञ करनेवाले साधकोंका वर्णन करते हैं ।

यहाँ ‘योगिनः’ पद यज्ञार्थ कर्म करनेवाले निष्काम साधकोंके लिये आया है ।

सम्पूर्ण क्रियाओं तथा पदार्थोंको अपना और अपने लिये न मानकर उन्हें केवल भगवान्‌का और भगवान्‌के लिये ही मानना ‘दैवयज्ञ’ अर्थात् भगवदर्पणरूप यज्ञ है । भगवान् देवोंके भी देव हैं, इसलिये सब कुछ उनके अर्पण कर देनेको ही यहाँ ‘दैवयज्ञ’ कहा गया है ।

किसी भी क्रिया और पदार्थमें किंचिन्मात्र भी आसक्ति, ममता और कामना न रखकर उन्हें सर्वथा भगवान्‌का मानना ही दैवयज्ञका भलीभाँति अनुष्‍ठान करना है ।

ब्रह्माग्‍नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति’इस श्‍लोकके पूर्वार्धमें बताये गये दैवयज्ञसे भिन्‍न दूसरे यज्ञका वर्णन करनेके लिये यहाँ ‘अपरे’ पद आया है ।

चेतनका जडसे तादात्म्य होनेके कारण ही उसे जीवात्मा कहते हैं । विवेक-विचारपूर्वक जडसे सर्वथा विमुख होकर परमात्मामें लीन हो जानेको यहाँ यज्ञ कहा गया है । लीन होनेका तात्पर्य है‒परमात्मतत्त्वसे भिन्‍न अपनी स्वतन्त्र सत्ता किंचिन्मात्र न रखना ।

परिशिष्‍ट भाव‘ब्रह्माग्‍नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति’ का यह अर्थ भी ले सकते हैं‒दूसरे योगीलोग संसाररूप ब्रह्मकी सेवाके लिये केवल लोकसंग्रहरूप यज्ञके लिये कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञ करते हैं अर्थात् यज्ञार्थ कर्म करते हैं (गीता‒तीसरे अध्यायका नवाँ और चौथे अध्यायका तेईसवाँ श्‍लोक) ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्यासम्पूर्ण क्रियाओं और पदार्थोंको अपना और अपने लिये न मानकर केवल भगवान्‌का और भगवान्‌के लिये ही मानना ‘भगवदर्पणरूप यज्ञ’ है । परमात्माकी सत्तामें अपनी सत्ता मिला देना अर्थात् ‘मैं’-पनको मिटा देना ‘अभिन्‍नतारूप यज्ञ’ है ।

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सूक्ष्म विषय‒इन्द्रियसंयमरूप यज्ञका और विषय-हवनरूप (अनासक्तिपूर्वक विषयसेवनरूप) यज्ञका वर्णन ।

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्‍निषु  जुह्वति ।

शब्दादीन्विषयानन्य  इन्द्रियाग्‍निषु  जुह्वति ॥ २६ ॥

अर्थ‒अन्य योगीलोग श्रोत्रादि समस्त इन्द्रियोंका संयमरूप अग्‍नियोंमें हवन किया करते हैं और दूसरे योगीलोग शब्दादि विषयोंका इन्द्रियरूप अग्‍नियोंमें हवन किया करते हैं ।

अन्ये = अन्य (योगीलोग)

अन्ये = दूसरे (योगीलोग)

श्रोत्रादीनि = श्रोत्रादि

शब्दादीन् = शब्दादि

इन्द्रियाणि = समस्त इन्द्रियोंका

विषयान् = विषयोंका

संयमाग्‍निषु = संयमरूप अग्‍नियोंमें

इन्द्रियाग्‍निषु = इन्द्रियरूप अग्‍नियोंमें

जुह्वति = हवन किया करते हैं (और)

जुह्वति = हवन किया करते हैं ।

व्याख्या‘श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्‍निषु जुह्वति’यहाँ संयमरूप अग्‍नियोंमें इन्द्रियोंकी आहुति देनेको यज्ञ कहा गया है । तात्पर्य यह है कि एकान्तकालमें श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण‒ये पाँचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों (क्रमशः शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध)-की ओर बिलकुल प्रवृत्त न हों । इन्द्रियाँ संयमरूप ही बन जायँ ।

पूरा संयम तभी समझना चाहिये, जब इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि तथा अहम्‒इन सबमेंसे राग-आसक्तिका सर्वथा अभाव हो जाय (गीता‒दूसरे अध्यायका अट्ठावनवाँ, उन्सठवाँ तथा अड़सठवाँ श्‍लोक) ।

शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्‍निषु जुह्वति’शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध‒ये पाँच विषय हैं । विषयोंका इन्द्रियरूप अग्‍नियोंमें हवन करनेसे वह यज्ञ हो जाता है । तात्पर्य यह है कि व्यवहारकालमें विषयोंका इन्द्रियोंसे संयोग होते रहनेपर भी इन्द्रियोंमें कोई विकार उत्पन्‍न न हो (गीता‒दूसरे अध्यायका चौंसठवाँ-पैंसठवाँ श्‍लोक) । इन्द्रियाँ राग-द्वेषसे रहित हो जायँ । इन्द्रियोंमें राग-द्वेष उत्पन्‍न करनेकी शक्ति विषयोंमें रहे ही नहीं ।

इस श्‍लोकमें कहे गये दोनों प्रकारके यज्ञोंमें राग-आसक्तिका सर्वथा अभाव होनेपर ही सिद्धि (परमात्मप्राप्‍ति) होती है । राग-आसक्तिको मिटानेके लिये ही दो प्रकारकी प्रक्रियाका यज्ञरूपसे वर्णन किया गया है‒

पहली प्रक्रियामें साधक एकान्तकालमें इन्द्रियोंका संयम करता है । विवेक-विचार, जप-ध्यान आदिसे इन्द्रियोंका संयम होने लगता है । पूरा संयम होनेपर जब रागका अभाव हो जाता है, तब एकान्तकाल और व्यवहारकाल‒दोनोंमे उसकी समान स्थिति रहती है ।

दूसरी प्रक्रियामें साधक व्यवहारकालमें राग-द्वेषरहित इन्द्रियोंसे व्यवहार करते हुए मन, बुद्धि और अहम्‌से भी राग-द्वेषका अभाव कर देता है । रागका अभाव होनेपर व्यवहारकाल और एकान्तकाल‒दोनोमें उसकी समान स्थिति रहती है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒एकान्तकालमें अपनी इन्द्रियोंको भोगोंमें न लगने देना ‘संयमरूप यज्ञ’ है । व्यवहारकालमें इन्द्रियोंके अपने विषयोंमें प्रवृत्त होनेपर उनमें राग-द्वेष न करना ‘विषयहवनरूप यज्ञ’ है ।

हवन तभी होगा, जब विषय नहीं रहेंगे । कारण कि हवन तभी होता है, जब हव्य पदार्थ नहीं रहता । जबतक हव्य पदार्थकी सत्ता रहती है, तबतक हवन नहीं होता ।

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