।। श्रीहरिः ।।

  


आजकी शुभ तिथि–

आश्‍विन शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०८०, रविवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सूक्ष्म विषय‒आत्मसंयम (समाधि)-रूप यज्ञका वर्णन ।

      सर्वाणीन्द्रियकर्माणि  प्राणकर्माणि चापरे ।

आत्मसंयमयोगाग्‍नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥ २७ ॥

अर्थ‒अन्य योगीलोग सम्पूर्ण इन्द्रियोंकी क्रियाओंको और प्राणोंकी क्रियाओंको ज्ञानसे प्रकाशित आत्मसंयमयोग (समाधियोग)-रूप अग्‍निमें हवन किया करते हैं ।

अपरे = अन्य (योगीलोग)

प्राणकर्माणि = प्राणोंकी क्रियाओंको

सर्वाणि = सम्पूर्ण

ज्ञानदीपिते = ज्ञानसे प्रकाशित

इन्द्रियकर्माणि = इन्द्रियोंकी क्रियाओंको

आत्मसंयमयोगाग्‍नौ = आत्मसंयमयोग (समाधियोग)-रूप अग्‍निमें

च = और

जुह्वति =हवन किया करते हैं ।

व्याख्या‘सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरेइस श्‍लोकमें समाधिको यज्ञका रूप दिया गया है । कुछ योगीलोग दसों इन्द्रियोंकी क्रियाओंका समाधिमें हवन किया करते हैं । तात्पर्य यह है कि समाधि-अवस्थामें मन-बुद्धिसहित सम्पूर्ण इन्द्रियों (ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों)-की क्रियाएँ रुक जाती हैं । इन्द्रियाँ सर्वथा निश्‍चल और शान्त हो जाती हैं ।

समाधिरूप यज्ञमें प्राणोंकी क्रियाओंका भी हवन हो जाता है अर्थात् समाधिकालमें प्राणोंकी क्रियाएँ भी रुक जाती हैं । समाधिमें प्राणोंकी गति रोकनेके दो प्रकार हैं ।

एक तो हठयोगकी समाधि होती है, जिसमें प्राणोंको रोकनेके लिये कुम्भक किया जाता है । कुम्भकका अभ्यास बढ़ते-बढ़ते प्राण रुक जाते हैं, जो घंटोंतक, दिनोंतक रुके रह सकते हैं । इस प्राणायामसे आयु बढ़ती है; जैसे‒वर्षा होनेपर जल बहने लगता है तो जलके साथ-साथ बालू भी आ जाती है, उस बालूमें मेढक दब जाता है । वर्षा बीतनेपर जब बालू सूख जाती है, तब मेढक उस बालूमें ही चुपचाप सूखे हुएकी तरह पड़ा रहता है, उसके प्राण रुक जाते हैं । पुनः जब वर्षा आती है, तब वर्षाका जल ऊपर गिरनेपर मेढकमें पुनः प्राणोंका संचार होता जाता है और वह टर्राने लग जाता है ।

दूसरे प्रकारमें मनको एकाग्र किया जाता है । मन सर्वथा एकाग्र होनेपर प्राणोंकी गति अपने-आप रुक जाती है ।

‘ज्ञानदीपिते’समाधि और निद्रा‒दोनोंमें कारणशरीरसे सम्बन्ध रहता है, इसलिये बाहरसे दोनोंकी समान अवस्था दिखायी देती है । यहाँ ‘ज्ञानदीपिते’ पदसे समाधि और निद्रामें परस्पर भिन्‍नता सिद्ध की गयी है । तात्पर्य यह कि बाहरसे समान दिखायी देनेपर भी समाधिकालमें ‘एक सच्‍चिदानन्द परमात्मा ही सर्वत्र परिपूर्ण है’ ऐसा ज्ञान प्रकाशित (जाग्रत्) रहता है और निद्राकालमें वृत्तियाँ अविद्यामें लीन हो जाती हैं । समाधिकालमें प्राणोंकी गति रुक जाती है और निद्राकालमें प्राणोंकी गति चलती रहती है । इसलिये निद्रा आनेसे समाधि नहीं लगती ।

आत्मसंयमयोगाग्‍नौ जुह्वति’चित्तवृत्तिनिरोधरूप अर्थात् समाधिरूप यज्ञ करनेवाले योगीलोग इन्द्रियों तथा प्राणोंकी क्रियाओंका समाधियोगरूप अग्‍निमें हवन किया करते हैं अर्थात् मन-बुद्धिसहित सम्पूर्ण इन्द्रियों और प्राणोंकी क्रियाओंको रोककर समाधिमें स्थित हो जाते हैं । समाधिकालमें सम्पूर्ण इन्द्रियाँ और प्राण अपनी चंचलता खो देते हैं । एक सच्‍चिदानन्दघन परमात्माका ज्ञान ही जाग्रत् रहता है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒मन-बुद्धिसहित सम्पूर्ण इन्द्रियों और प्राणोंकी क्रियाओंको रोककर समाधिमें स्थित हो जाना ‘समाधिरूप यज्ञ’ है ।

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सूक्ष्म विषय‒द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ और स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञका वर्णन ।

     द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा       योगयज्ञास्तथापरे ।

स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्‍च यतयः  संशितव्रताः ॥ २८ ॥

अर्थ‒दूसरे कितने ही तीक्ष्ण व्रत करनेवाले प्रयत्‍नशील साधक द्रव्यमय यज्ञ करनेवाले हैं और कितने ही तपोयज्ञ करनेवाले हैं और दूसरे कितने ही योगयज्ञ करनेवाले हैं तथा कितने ही स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करनेवाले हैं ।

अपरे = दूसरे (कितने ही)

तथा = और (दूसरे कितने ही)

संशितव्रताः = तीक्ष्ण व्रत करनेवाले

योगयज्ञाः = योगयज्ञ करनेवाले हैं

यतयः = प्रयत्‍नशील साधक

च = तथा (कितने ही)

द्रव्ययज्ञाः = द्रव्यमय यज्ञ करनेवाले हैं

स्वाध्यायज्ञानयज्ञाः = स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करनेवाले हैं ।

तपोयज्ञाः = (और कितने ही) तपोयज्ञ करनेवाले हैं

 

व्याख्या‘यतयः संशितव्रताः’अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरीका अभाव), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (भोग-बुद्धिसे संग्रहका अभाव)‒ये पाँच ‘यम’ हैं,

१.अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ॥ (योगदर्शन २ । ३०)

जिन्हें ‘महाव्रत’ के नामसे कहा गया है । शास्‍त्रोंमें इन महाव्रतोंकी बहुत प्रशंसा, महिमा है । इन व्रतोंका सार यही है कि मनुष्य संसारसे विमुख हो जाय । इन व्रतोंका पालन करनेवाले साधकोंके लिये यहाँ ‘संशितव्रताः’ पद आया है । इसके सिवाय इस श्‍लोकमें आये चारों यज्ञोंमें जो-जो पालनीय व्रत अर्थात् नियम हैं, उनपर दृढ़ रहकर उनका पालन करनेवाले भी सब ‘संशितव्रताः’ हैं । अपने-अपने यज्ञके अनुष्‍ठानमें प्रयत्‍नशील होनेके कारण उन्हें ‘यतयः’ कहा गया है ।

‘संशितव्रताः’ पदके साथ (द्रव्ययज्ञाः,’ ‘तपोयज्ञाः,’ ‘योगयज्ञाः’ और ‘ज्ञानयज्ञाः’ की तरह) ‘यज्ञाः’ पद नहीं दिया जानेके कारण इसे अलग यज्ञ नहीं माना गया है ।

द्रव्ययज्ञाः’मात्र संसारके हितके उद्‍देश्यसे कुआँ, तालाब, मन्दिर, धर्मशाला आदि बनवाना, अभावग्रस्त लोगोंको अन्‍न, जल, वस्‍त्र, औषध, पुस्तक आदि देना, दान करना इत्यादि सब ‘द्रव्ययज्ञ’ है । द्रव्य (तीनों शरीरोंसहित सम्पूर्ण पदार्थों)-को अपना और अपने लिये न मानकर निःस्वार्थभावसे उन्हींका मानकर उनकी सेवामें लगानेसे द्रव्ययज्ञ सिद्ध हो जाता है ।

शरीरादि जितनी वस्तुएँ हमारे पास हैं, उन्हींसे यज्ञ हो सकता है, अधिककी आवश्यकता नहीं है । मनुष्य बालकसे उतनी ही आशा रखता है, जितना वह कर सकता है, फिर सर्वज्ञ भगवान् तथा संसार हमसे हमारी क्षमतासे अधिककी आशा कैसे रखेंगे ?

तपोयज्ञाः’अपने कर्तव्य (स्वधर्म)-के पालनमें जो-जो प्रतिकूलताएँ, कठिनाइयाँ आयें, उन्हें प्रसन्‍नतापूर्वक सह लेना ‘तपोयज्ञ’ है । लोकहितार्थ एकादशी आदिका व्रत रखना, मौन धारण करना आदि भी ‘तपोयज्ञ’ अर्थात् तपस्यारूप यज्ञ हैं । परन्तु प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थिति, वस्तु, व्यक्ति, घटना आनेपर भी साधक प्रसन्‍नतापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करता रहे‒अपने कर्तव्यसे थोड़ा भी विचलित न हो तो यह सबसे बड़ी तपस्या है, जो शीघ्र सिद्धि देनेवाली होती है ।

गाँवभरकी गन्दगी, कूड़ा-करकट बाहर एक जगह इकट्ठा हो जाय, तो वह बुरा लगता है; परन्तु वही कूड़ा-करकट खेतमें पड़ जाय, तो खेतीके लिये खादरूपसे बढ़िया सामग्री बन जाता है । इसी प्रकार प्रतिकूलता बुरी लगती है और उसे हम कूड़े-करकटकी तरह फेंक देते हैं अर्थात् उसे महत्त्व नहीं देते; परन्तु वही प्रतिकूलता अपना कर्तव्य-पालन करनेके लिये बढ़िया सामग्री है । इसलिये प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थितिको सहर्ष सहनेके समान दूसरा कोई तप नहीं है । भोगोंमें आसक्ति रहनेसे अनुकूलता अच्छी और प्रतिकूलता बुरी लगती है । इसी कारण प्रतिकूलताका महत्त्व समझमें नहीं आता ।

योगयज्ञास्तथापरे’यहाँ योग नाम अन्तःकरणकी समताका है । समताका अर्थ है‒कार्यकी पूर्ति और अपूर्तिमें, फलकी प्राप्‍ति और अप्राप्‍तिमें, अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितिमें, निन्दा और स्तुतिमें, आदर और निरादरमें सम रहना अर्थात् अन्तःकरणमें हलचल, राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःखका न होना । इस तरह सम रहना ही ‘योगयज्ञ’ है ।

स्वाध्यायज्ञानयज्ञाः’केवल लोकहितके लिये गीता, रामायण, भागवत आदिका तथा वेद, उपनिषद् आदिका यथाधिकार मनन-विचारपूर्वक पठन-पाठन करना, अपनी वृत्तियोंका तथा जीवनका अध्ययन करना आदि सब स्वाध्यायरूप ‘ज्ञानयज्ञ’ है ।

गीताके अन्तमें भगवान्‌ने कहा है कि जो इस गीता-शास्‍त्रका अध्ययन करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञसे पूजित होऊँगा‒ऐसा मेरा मत है (अठारहवें अध्यायका सत्तरवाँ श्‍लोक) । तात्पर्य यह है कि गीताका स्वाध्याय ‘ज्ञानयज्ञ’ है । गीताके भावोंमें गहरे उतरकर विचार करना, उसके भावोंको समझनेकी चेष्‍टा करना आदि सब स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्यामिली हुई वस्तुओंको निष्कामभावसे दूसरोंकी सेवामें लगाना ‘द्रव्ययज्ञ’ है । स्वधर्मपालनमें आनेवाली कठिनाइयोंको प्रसन्‍नतासे सह लेना ‘तपोयज्ञ’ है । कर्मोंकी सिद्धि-असिद्धिमें तथा अनुकूल या प्रतिकूल फलकी प्राप्‍तिमें सम रहना ‘योगयज्ञ’ है । सत्-शास्‍त्रोंका अध्ययन-मनन, नामजप आदि करना ‘स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ’ है ।

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