।। श्रीहरिः ।।

   


आजकी शुभ तिथि–

आश्‍विन शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०८०, सोमवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सूक्ष्म विषय‒प्राणायामरूप यज्ञका तथा स्तम्भवृत्ति-प्राणायामरूप यज्ञका वर्णन और यज्ञ करनेवालोंकी महिमा ।

      अपाने  जुह्वति प्राणं  प्राणेऽपानं  तथापरे ।

 प्राणापानगती रुद्‌ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥ २९ ॥

      अपरे नियताहाराः  प्राणान्प्राणेषु  जुह्वति ।

      सर्वेऽप्येते    यज्ञविदो   यज्ञक्षपितकल्मषाः ॥ ३० ॥

अर्थ‒दूसरे कितने ही प्राणायामके परायण हुए योगीलोग अपानमें प्राणका (पूरक करके) प्राण और अपानकी गति रोककर (कुम्भक करके), फिर प्राणमें अपानका हवन (रेचक) करते हैं; तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करनेवाले प्राणोंका प्राणोंमें हवन किया करते हैं । ये सभी (साधक) यज्ञोंद्वारा पापोंका नाश करनेवाले और यज्ञोंको जाननेवाले हैं ।

अपरे = दूसरे (कितने ही)

अपरे = अन्य (कितने ही)

प्राणायामपरायणाः = प्राणायामके परायण हुए (योगीलोग)

नियताहाराः = नियमित आहार करनेवाले

अपाने = अपानमें

प्राणान् = प्राणोंका

प्राणम् = प्राणका (पूरक करके)

प्राणेषु = प्राणोंमें

प्राणापानगती = प्राण और अपानकी गति

जुह्वति = हवन किया करते हैं ।

रुद्‍ध्वा = रोककर (कुम्भक करके)

एते = ये

प्राणे = (फिर) प्राणमें

सर्वे, अपि = सभी (साधक)

अपानम् = अपानका

यज्ञक्षपितकल्मषाः = यज्ञों द्वारा पापोंका नाश करनेवाले (और)

जुह्वति =हवन (रेचक) करते हैं;

यज्ञविदः = यज्ञोंको जाननेवाले हैं ।

तथा = तथा

 

व्याख्या‘अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे । प्राणापानगती रुद्‌ध्वा जुह्वति.प्राणायामपरायणाः’

१.इस (उनतीसवें) श्‍लोकमें ‘अपरे’ कर्ता और ‘जुह्वति’ क्रिया एक ही आयी है; अतः यहाँ पूरक, कुम्भक और रेचकपूर्वक किया जानेवाला एक ही प्राणायामरूप यज्ञ लिया गया है ।

प्राणका स्थान हृदय (ऊपर) तथा अपानका स्थान गुदा (नीचे) है

२.हृदि प्राणः स्थितो नित्यमपानो गुदमण्डले ।

(योगचूड़ामण्युपनिषद् २३)

श्‍वासको बाहर निकालते समय वायुकी गति ऊपरकी ओर तथा श्‍वासको भीतर ले जाते समय वायुकी गति नीचेकी ओर होती है । इसलिये श्‍वासको बाहर निकालना ‘प्राण’ का कार्य और श्‍वासको भीतर ले जाना ‘अपान’ का कार्य है । योगीलोग पहले बाहरकी वायुको बायीं नासिका (चन्द्रनाड़ी)-के द्वारा भीतर ले जाते हैं । वह वायु हृदयमें स्थित प्राणवायुको साथ लेकर नाभिसे होती हुई स्वाभाविक ही अपानमें लीन हो जाती है । इसको ‘पूरक’ कहते हैं । फिर वे प्राणवायु और अपानवायु‒दोनोंकी गति रोक देते हैं । न तो श्‍वास बाहर जाता है और न श्‍वास भीतर ही आता है । इसको ‘कुम्भक’ कहते हैं । इसके बाद वे भीतरकी वायुको दायीं नासिका (सूर्यनाड़ी)-के द्वारा बाहर निकालते हैं । वह वायु स्वाभाविक ही प्राणवायुको तथा उसके पीछे-पीछे अपानवायुको साथ लेकर बाहर निकलती है । यही प्राण-वायुमें अपानवायुका हवन करना है । इसको ‘रेचक’ कहते हैं । चार भगवन्‍नामसे पूरक, सोलह भगवन्‍नामसे कुम्भक और आठ भगवन्‍नामसे रेचक किया जाता है ।

इस प्रकार योगीलोग पहले चन्द्रनाड़ीसे पूरक, फिर कुम्भक और फिर सूर्यनाड़ीसे रेचक करते हैं । इसके बाद सूर्यनाड़ीसे पूरक, फिर कुम्भक और फिर चन्द्रनाड़ीसे रेचक करते हैं । इस तरह बार-बार पूरक-कुम्भक-रेचक करना प्राणायामरूप यज्ञ है । परमात्मप्राप्‍तिके उद्‍देश्यसे निष्कामभावपूर्वक प्राणायामके परायण होनेसे सभी पाप नष्‍ट हो जाते हैं

३.गीताध्ययनशीलस्य  प्राणायामपरस्य  च ।

   नैव सन्ति हि पापानि पूर्वजन्मकृतानि च ॥

अपरे नियताहाराः प्राणान् प्राणेषु जुह्वति’नियमित आहार-विहार करनेवाले साधक ही प्राणोंका प्राणोंमें हवन कर सकते हैं । अधिक या बहुत कम भोजन करनेवाला अथवा बिलकुल भोजन न करनेवाला यह प्राणायाम नहीं कर सकता (गीता‒छठे अध्यायका सोलहवाँ-सत्रहवाँ श्‍लोक) ।

प्राणोंका प्राणोंमें हवन करनेका तात्पर्य है‒प्राणका प्राणमें और अपानका अपानमें हवन करना अर्थात् प्राण और अपानको अपने-अपने स्थानोंपर रोक देना । न श्‍वास बाहर निकालना और न श्‍वास भीतर लेना । इसे ‘स्तम्भवृत्ति प्राणायाम’ भी कहते हैं । इस प्राणायामसे स्वाभाविक ही वृत्तियाँ शान्त होती हैं और पापोंका नाश हो जाता है । केवल परमात्मप्राप्‍तिका उद्‍देश्य रखकर प्राणायाम करनेसे अन्तःकरण निर्मल हो जाता है और परमात्मप्राप्‍ति हो जाती है ।

‘सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः’चौबीसवें श्‍लोकसे तीसवें श्‍लोकके पूर्वार्धतक जिन यज्ञोंका वर्णन हुआ है, उनका अनुष्‍ठान करनेवाले साधकोंके लिये यहाँ ‘सर्वेऽप्येते’ पद आया है । उन यज्ञोंका अनुष्‍ठान करते रहनेसे उनके सम्पूर्ण पाप नष्‍ट हो जाते हैं और अविनाशी परमात्माकी प्राप्‍ति हो जाती है ।

वास्तवमें सम्पूर्ण यज्ञ केवल कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये ही हैं‒ऐसा जाननेवाले ही ‘यज्ञवित्’ अर्थात् यज्ञके तत्त्वको जाननेवाले हैं । कर्मोंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर परमात्माका अनुभव हो जाता है । जो लोग अविनाशी परमात्माका अनुभव करनेके लिये यज्ञ नहीं करते, प्रत्युत इस लोक और परलोक (स्वर्गादि)-के विनाशी भोगोंकी प्राप्‍तिके लिये ही यज्ञ करते हैं, वे यज्ञके तत्त्वको जाननेवाले नहीं हैं । कारण कि विनाशी पदार्थोंकी कामना ही बन्धनका कारण है‒‘गतागतं कामकामा लभन्ते’ (गीता ९ । २१) । अतः मनमें कामना-वासना रखकर परिश्रमपूर्वक बड़े-बड़े यज्ञ करनेपर भी जन्म-मरणका बन्धन बना रहता है‒

मिटी न मनकी वासना, नौ तत भये न नास ।

तुलसी  केते  पच मुये, दे  दे  तन  को  त्रास ॥

विशेष बात

यज्ञ करते समय अग्‍निमें आहुति दी जाती है । आहुति दी जानेवाली वस्तुओंके रूप पहले अलग-अलग होते हैं; परन्तु अग्‍निमें आहुति देनेके बाद उनके रूप अलग-अलग नहीं रहते, अपितु सभी वस्तुएँ अग्‍निरूप हो जाती हैं । इसी प्रकार परमात्मप्राप्‍तिके लिये जिन साधनोंका यज्ञरूपसे वर्णन किया गया है, उनमें आहुति देनेका तात्पर्य यही है कि आहुति दी जानेवाली वस्तुओंकी अलग सत्ता रहे ही नहीं, सब स्वाहा हो जायँ । जबतक उनकी अलग सत्ता बनी हुई है, तबतक वास्तवमें उनकी आहुति दी ही नहीं गयी अर्थात् यज्ञका अनुष्‍ठान हुआ ही नहीं ।

इसी अध्यायके सोलहवें श्‍लोकसे भगवान् कर्मोंके तत्त्व (कर्ममें अकर्म)-का वर्णन कर रहे हैं । कर्मोंका तत्त्व है‒कर्म करते हुए भी उनसे नहीं बँधना । कर्मोंसे न बँधनेका ही एक साधन है‒यज्ञ । जैसे अग्‍निमें डालनेपर सब वस्तुएँ स्वाहा हो जाती हैं, ऐसे ही केवल लोकहितके लिये किये जानेवाले सब कर्म स्वाहा हो जाते हैं‒‘यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते’ (गीता ४ । २३) ।

निष्कामभावपूर्वक केवल लोकहितार्थ किये गये साधारण-से-साधारण कर्म भी परमात्माकी प्राप्‍ति करानेवाले हो जाते हैं । परन्तु सकामभावपूर्वक किये गये बड़े-से-बड़े कर्मोंसे भी परमात्माकी प्राप्‍ति नहीं होती । कारण कि उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंकी कामना ही बाँधनेवाली है । पदार्थ और क्रियारूप संसारसे अपना सम्बन्ध माननेके कारण मनुष्यमात्रमें पदार्थ पाने और कर्म करनेका राग रहता है कि मुझे कुछ-न-कुछ मिलता रहे और मैं कुछ-न-कुछ करता रहूँ । इसीको ‘पानेकी कामना’ तथा ‘करनेका वेग’ कहते हैं ।

मनुष्यमें जो पानेकी कामना रहती है, वह वास्तवमें अपने अंशी परमात्माको ही पानेकी भूख है; परन्तु परमात्मासे विमुख और संसारके सम्मुख होनेके कारण मनुष्य इस भूखको सांसारिक पदार्थोंसे ही मिटाना चाहता है । सांसारिक पदार्थ विनाशी हैं और जीव अविनाशी है । अविनाशीकी भूख विनाशी पदार्थोंसे मिट ही कैसे सकती है ? परन्तु जबतक संसारकी सम्मुखता रहती है, तबतक पानेकी कामना बनी रहती है । जबतक मनुष्यमें पानेकी कामना रहती है, तबतक उसमें करनेका वेग बना रहता है । इस प्रकार जबतक पानेकी कामना और करनेका वेग बना हुआ है अर्थात् पदार्थ और क्रियासे सम्बन्ध बना हुआ है, तबतक जन्म-मरण नहीं छूटता । इससे छूटनेका उपाय है‒कुछ भी पानेकी कामना न रखकर केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करना । इसीको लोकसंग्रह, यज्ञार्थ कर्म, लोकहितार्थ कर्म आदि नामोंसे कहा गया है ।

केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे संसारसे सम्बन्ध छूट जाता है और असंगता आ जाती है । अगर केवल भगवान्‌के लिये कर्म किये जायँ तो संसारसे सम्बन्ध छूटकर असंगता तो आ ही जाती है, इसके साथ एक और विलक्षण बात यह होती है कि भगवान्‌का ‘प्रेम’ प्राप्‍त हो जाता है !

परिशिष्‍ट भाव‒निःस्वार्थभावसे केवल दूसरोंके हितके लिये कर्तव्यकर्म करनेका नाम ‘यज्ञ’ है । यज्ञसे सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् बाँधनेवाले नहीं होते । चौबीसवेंसे तीसवें श्‍लोकतक कुल बारह प्रकारके यज्ञ बताये गये हैं, जो इस प्रकार हैं‒

(१) ब्रह्मयज्ञ‒प्रत्येक कर्ममें कर्ता, करण क्रिया, पदार्थ आदि सबको ब्रह्मरूपसे अनुभव करना ।

(२) भगवदर्पणरूप यज्ञ‒सम्पूर्ण क्रियाओं और पदार्थोंको केवल भगवान्‌का और भगवान्‌के लिये ही मानना ।

(३) अभिन्‍नतारूप यज्ञ‒असत्‌से सर्वथा विमुख होकर परमात्मामें लीन हो जाना अर्थात् परमात्मासे भिन्‍न अपनी स्वतन्त्र सत्ता न रखना ।

[ कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञ‒केवल दूसरोंके हितके लिये सम्पूर्ण कर्तव्यकर्म करना । ]

(४) संयमरूप यज्ञ‒एकान्तकालमें अपनी इन्द्रियोंको विषयोंमें प्रवृत्त न होने देना ।

(५) विषय-हवनरूप यज्ञ‒व्यवहारकालमें इन्द्रियोंका विषयोंसे संयोग होनेपर भी उनमें राग-द्वेष पैदा न होने देना (गीता‒दूसरे अध्यायका चौंसठवाँ-पैंसठवाँ श्‍लोक) ।

(६) समाधिरूप यज्ञ‒मन-बुद्धिसहित सम्पूर्ण इन्द्रियों और प्राणोंकी क्रियाओंको रोककर ज्ञानसे प्रकाशित समाधिमें स्थित हो जाना ।

(७) द्रव्ययज्ञ‒सम्पूर्ण पदार्थोंको निःस्वार्थभावसे दूसरोंकी सेवामें लगा देना ।

(८) तपोयज्ञ‒अपने कर्तव्यके पालनमें आनेवाली कठिनाइयोंको प्रसन्‍नतापूर्वक सह लेना ।

(९) योगयज्ञ‒कार्यकी सिद्धि-असिद्धिमें तथा फलकी प्राप्‍ति-अप्राप्‍तिमें सम रहना ।

(१०) स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ‒दूसरोंके हितके लिये सत्-शास्‍त्रोंका पठन-पाठन, नाम-जप आदि करना ।

(११) प्राणायामरूप यज्ञ‒पूरक, कुम्भक और रेचकपूर्वक प्राणायाम करना ।

(१२) स्तम्भवृत्ति (चतुर्थ) प्राणायामरूप यज्ञ‒नियमित आहार करते हुए प्राण और अपानको अपने-अपने स्थानोंपर रोक देना ।

इन सबका तात्पर्य है कि हमारी मात्र क्रियाएँ यज्ञरूप ही होनी चाहिये, तभी जीवन सफल होगा । तात्पर्य है कि हमें अपने लिये कुछ नहीं करना है । क्रिया और पदार्थके साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है । हमारा सम्बन्ध परमात्माके साथ है, जो क्रिया और पदार्थसे रहित हैं ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒पूरक, कुम्भक और रेचकपूर्वक प्राणायाम करना ‘प्राणायामरूप यज्ञ’ है । प्राण-अपानको अपने-अपने स्थानपर रोक देना ‘स्तम्भवृत्ति (चतुर्थ) प्राणायामरूप यज्ञ’ है ।

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