Listen सम्बन्ध‒चौबीसवें श्लोकसे तीसवें श्लोकके
पूर्वार्धतक भगवान्ने कुल बारह प्रकारके यज्ञोंका वर्णन किया और तीसवें श्लोकके उत्तरार्धमें
यज्ञ करनेवाले साधकोंकी प्रशंसा की । अब भगवान् आगेके श्लोकमें यज्ञ करनेसे होनेवाले
लाभ और न करनेसे होनेवाली हानि बताते हैं । सूक्ष्म विषय‒यज्ञ करनेसे होनेवाला लाभ और न करनेसे
होनेवाली हानि । यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म
सनातनम् । नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम
॥ ३१ ॥ अर्थ‒हे कुरुवंशियोंमे श्रेष्ठ अर्जुन
! यज्ञसे बचे हुए अमृतका अनुभव करनेवाले सनातन परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होते हैं
। यज्ञ न करनेवाले मनुष्यके लिये यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा ?
व्याख्या‒‘यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति
ब्रह्म सनातनम्’‒यज्ञ करनेसे अर्थात् निष्कामभावपूर्वक
दूसरोंको सुख पहुँचानेसे समताका अनुभव हो जाना ही ‘यज्ञशिष्ट अमृत’ का अनुभव करना
है । अमृत अर्थात् अमरताका अनुभव करनेवाले सनातन परब्रह्म परमात्माको प्राप्त
हो जाते हैं (गीता‒तीसरे अध्यायका तेरहवाँ श्लोक) । स्वरूपसे मनुष्य अमर है
। मरनेवाली वस्तुओंके संगसे ही मनुष्यको मृत्युका अनुभव होता है । इन वस्तुओंको संसारके
हितमें लगानेसे जब मनुष्य असंग हो जाता है, तब उसे स्वतःसिद्ध अमरताका
अनुभव हो जाता है । कर्तव्यमात्र केवल कर्तव्य समझकर किया
जाय,
तो वह यज्ञ हो जाता है । केवल दूसरोंके हितके लिये किया जानेवाला कर्म ही कर्तव्य होता है
। जो कर्म अपने लिये किया जाता है, वह कर्तव्य नहीं होता, प्रत्युत कर्ममात्र होता
है, जिससे मनुष्य बँधता है । इसलिये यज्ञमें देना-ही-देना होता है, लेना केवल निर्वाहमात्रके लिये होता
है (गीता‒चौथे अध्यायका इक्कीसवाँ श्लोक) । शरीर यज्ञ करनेके
लिये समर्थ रहे‒इस दृष्टिसे शरीर-निर्वाहमात्रके लिये वस्तुओंका उपयोग करना भी यज्ञके
अन्तर्गत है । मनुष्य-शरीर यज्ञके लिये ही है । उसे मान-बड़ाई, सुख-आराम आदिमें लगाना बन्धनकारक है
। केवल यज्ञके लिये कर्म करनेसे मनुष्य बन्धनरहित (मुक्त) हो जाता है और उसे सनातन
ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है । ‘नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः
कुरुसत्तम’‒जैसे
तीसरे अध्यायके आठवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि कर्म न करनेसे तेरा शरीर-निर्वाह
भी सिद्ध नहीं होगा, ऐसे ही यहाँ कहते हैं कि यज्ञ न करनेसे तेरा यह लोक भी
लाभदायक नहीं रहेगा, फिर परलोकका तो कहना ही क्या है ! केवल स्वार्थभावसे (अपने लिये) कर्म करनेसे इस लोकमें संघर्ष उत्पन्न
हो जायगा और सुख-शान्ति भंग हो जायगी तथा परलोकमें कल्याण भी नहीं होगा ।
अपने कर्तव्यका पालन न करनेसे घरमें
भी भेद और संघर्ष पैदा हो जाता है, खटपट मच जाती है । घरमें कोई स्वार्थी, पेटू व्यक्ति हो, तो घरवालोंको उसका रहना सुहाता नहीं
। स्वार्थत्यागपूर्वक अपने कर्तव्यसे सबको सुख पहुँचाना
घरमें अथवा संसारमें रहनेकी विद्या है । अपने कर्तव्यका पालन करनेसे दूसरोंको
भी कर्तव्य-पालनकी प्रेरणा मिलती है । इससे घरमें एकता और शान्ति स्वाभाविक आ जाती
है । परन्तु अपने कर्तव्यका पालन न करनेसे इस लोकमें सुखपूर्वक जीना भी कठिन हो जाता
है और अन्य लोकोंकी तो बात ही क्या है ! इसके विपरीत अपने कर्तव्यका ठीक-ठीक पालन करनेसे
यह लोक भी सुखदायक हो जाता है और परलोक भी । രരരരരരരരരര |