।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–

आश्‍विन शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०८०, मंगलवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒चौबीसवें श्‍लोकसे तीसवें श्‍लोकके पूर्वार्धतक भगवान्‌ने कुल बारह प्रकारके यज्ञोंका वर्णन किया और तीसवें श्‍लोकके उत्तरार्धमें यज्ञ करनेवाले साधकोंकी प्रशंसा की । अब भगवान् आगेके श्‍लोकमें यज्ञ करनेसे होनेवाले लाभ और न करनेसे होनेवाली हानि बताते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒यज्ञ करनेसे होनेवाला लाभ और न करनेसे होनेवाली हानि ।

     यज्ञशिष्‍टामृतभुजो  यान्ति  ब्रह्म सनातनम् ।

नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥ ३१ ॥

अर्थ‒हे कुरुवंशियोंमे श्रेष्‍ठ अर्जुन ! यज्ञसे बचे हुए अमृतका अनुभव करनेवाले सनातन परब्रह्म परमात्माको प्राप्‍त होते हैं । यज्ञ न करनेवाले मनुष्यके लिये यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा ?

कुरुसत्तम = हे कुरुवंशियोंमें श्रेष्‍ठ अर्जुन !

अयम् = यह

यज्ञशिष्‍टामृतभुजः = यज्ञसे बचे हुए अमृतका अनुभव करनेवाले

लोकः = मनुष्यलोक (भी)

सनातनम् = सनातन

न = (सुखदायक) नहीं

ब्रह्म = परब्रह्म परमात्माको

अस्ति = है

यान्ति = प्राप्‍त होते हैं ।

अन्यः = (फिर) परलोक

अयज्ञस्य = यज्ञ न करनेवाले मनुष्यके लिये

कुतः = कैसे (सुखदायक होगा) ?

व्याख्या‒‘यज्ञशिष्‍टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्यज्ञ करनेसे अर्थात् निष्कामभावपूर्वक दूसरोंको सुख पहुँचानेसे समताका अनुभव हो जाना ही ‘यज्ञशिष्‍ट अमृत’ का अनुभव करना है । अमृत अर्थात् अमरताका अनुभव करनेवाले सनातन परब्रह्म परमात्माको प्राप्‍त हो जाते हैं (गीता‒तीसरे अध्यायका तेरहवाँ श्‍लोक) ।

स्वरूपसे मनुष्य अमर है । मरनेवाली वस्तुओंके संगसे ही मनुष्यको मृत्युका अनुभव होता है । इन वस्तुओंको संसारके हितमें लगानेसे जब मनुष्य असंग हो जाता है, तब उसे स्वतःसिद्ध अमरताका अनुभव हो जाता है ।

कर्तव्यमात्र केवल कर्तव्य समझकर किया जाय, तो वह यज्ञ हो जाता है । केवल दूसरोंके हितके लिये किया जानेवाला कर्म ही कर्तव्य होता है । जो कर्म अपने लिये किया जाता है, वह कर्तव्य नहीं होता, प्रत्युत कर्ममात्र होता है, जिससे मनुष्य बँधता है । इसलिये यज्ञमें देना-ही-देना होता है, लेना केवल निर्वाहमात्रके लिये होता है (गीता‒चौथे अध्यायका इक्‍कीसवाँ श्‍लोक) । शरीर यज्ञ करनेके लिये समर्थ रहे‒इस दृष्‍टिसे शरीर-निर्वाहमात्रके लिये वस्तुओंका उपयोग करना भी यज्ञके अन्तर्गत है । मनुष्य-शरीर यज्ञके लिये ही है । उसे मान-बड़ाई, सुख-आराम आदिमें लगाना बन्धनकारक है । केवल यज्ञके लिये कर्म करनेसे मनुष्य बन्धनरहित (मुक्त) हो जाता है और उसे सनातन ब्रह्मकी प्राप्‍ति हो जाती है ।

नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम’जैसे तीसरे अध्यायके आठवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि कर्म न करनेसे तेरा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा, ऐसे ही यहाँ कहते हैं कि यज्ञ न करनेसे तेरा यह लोक भी लाभदायक नहीं रहेगा, फिर परलोकका तो कहना ही क्या है ! केवल स्वार्थभावसे (अपने लिये) कर्म करनेसे इस लोकमें संघर्ष उत्पन्‍न हो जायगा और सुख-शान्ति भंग हो जायगी तथा परलोकमें कल्याण भी नहीं होगा ।

अपने कर्तव्यका पालन न करनेसे घरमें भी भेद और संघर्ष पैदा हो जाता है, खटपट मच जाती है । घरमें कोई स्वार्थी, पेटू व्यक्ति हो, तो घरवालोंको उसका रहना सुहाता नहीं । स्वार्थत्यागपूर्वक अपने कर्तव्यसे सबको सुख पहुँचाना घरमें अथवा संसारमें रहनेकी विद्या है । अपने कर्तव्यका पालन करनेसे दूसरोंको भी कर्तव्य-पालनकी प्रेरणा मिलती है । इससे घरमें एकता और शान्ति स्वाभाविक आ जाती है । परन्तु अपने कर्तव्यका पालन न करनेसे इस लोकमें सुखपूर्वक जीना भी कठिन हो जाता है और अन्य लोकोंकी तो बात ही क्या है ! इसके विपरीत अपने कर्तव्यका ठीक-ठीक पालन करनेसे यह लोक भी सुखदायक हो जाता है और परलोक भी ।

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