।। श्रीहरिः ।।

 


आजकी शुभ तिथि–

आश्‍विन शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०८०, बुधवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒इसी अध्यायके सोलहवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कर्मोंका तत्त्व बतानेकी प्रतिज्ञा की थी । उसका विस्तारसे वर्णन करके अब भगवान् उसका उपसंहार करते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒कर्म-तत्त्वके वर्णनका उपसंहार ।

    एवं   बहुविधा  यज्ञा  वितता  ब्रह्मणो   मुखे ।

कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥ ३२ ॥

अर्थ‒इस प्रकार और भी बहुत तरहके यज्ञ वेदकी वाणीमें विस्तारसे कहे गये हैं । उन सब यज्ञोंको तू कर्मजन्य जान । इस प्रकार जानकर (यज्ञ करनेसे) तू कर्मबन्धनसे मुक्त हो जायगा ।

एवम् = इस प्रकार (और भी)

सर्वान् = सब यज्ञोंको (तू)

बहुविधाः = बहुत तरहके

कर्मजान् = कर्मजन्य

यज्ञाः = यज्ञ

विद्धि = जान ।

ब्रह्मणः = वेदकी

एवम् = इस प्रकार

मुखे = वाणीमें

ज्ञात्वा = जानकर (यज्ञ करनेसे)

वितताः =विस्तारसे कहे गये हैं ।

विमोक्ष्यसे = (तू कर्मबन्धनसे) मुक्त हो जायगा ।

तान् = उन

 

व्याख्या‘एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे’चौबीसवेंसे तीसवें श्‍लोकतक जिन बारह यज्ञोंका वर्णन किया गया है, उनके सिवाय और भी अनेक प्रकारके यज्ञोंका वेदकी वाणीमें विस्तारसे वर्णन किया गया है । कारण कि साधकोंकी प्रकृतिके अनुसार उनकी निष्‍ठाएँ भी अलग-अलग होती हैं और तदनुसार उनके साधन भी अलग-अलग होते हैं ।

वेदोंमें सकाम अनुष्‍ठानोंका भी विस्तारसे वर्णन किया गया है । परन्तु उन सबसे नाशवान् फलकी ही प्राप्‍ति होती है, अविनाशीकी नहीं । इसलिये वेदोंमें वर्णित सकाम अनुष्‍ठान करनेवाले मनुष्य स्वर्गलोकको जाते हैं और पुण्य क्षीण होनेपर पुनः मृत्युलोकमें आ जाते हैं । इस प्रकार वे जन्म-मरणके बन्धनमें पड़े रहते हैं (गीता‒नवें अध्यायका इक्‍कीसवाँ श्‍लोक) । परन्तु यहाँ उन सकाम अनुष्‍ठानोंकी बात नहीं कही गयी है । यहाँ निष्कामकर्मरूप उन यज्ञोंकी बात कही गयी है, जिनके अनुष्‍ठानसे परमात्माकी प्राप्‍ति होती है‒‘यान्ति ब्रह्म सनातनम्’ (गीता ४ । ३१) ।

वेदोंमें केवल स्वर्गप्राप्‍तिके साधनरूप सकाम अनुष्‍ठानोंका ही वर्णन हो, ऐसी बात नहीं है । उनमें परमात्मप्राप्‍तिके साधनरूप श्रवण, मनन, निदिध्यासन, प्राणायाम, समाधि आदि अनुष्‍ठानोंका भी वर्णन हुआ है । उपर्युक्त पदोंमें उन्हींका लक्ष्य है ।

तीसरे अध्यायके चौदहवें-पंद्रहवें श्‍लोकोंमें कहा गया है कि यज्ञ वेदसे उत्पन्‍न हुए हैं और सर्वव्यापी परमात्मा उन यज्ञोंमें नित्य प्रतिष्‍ठित (विराजमान) हैं । यज्ञोंमें परमात्मा नित्य प्रतिष्‍ठित रहनेसे उन यज्ञोंका अनुष्‍ठान केवल परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍तिके लिये ही करना चाहिये ।

‘कर्मजान्विद्धि तान्सर्वान्’चौबीसवेंसे तीसवें श्‍लोकतक जिन बारह यज्ञोंका वर्णन हुआ है तथा उसी प्रकार वेदोंमें जिन यज्ञोंका वर्णन हुआ है, उन सब यज्ञोंके लिये यहाँ ‘तान् सर्वान्’ पद आये हैं ।

कर्मजान् विद्धि’ पदोंका तात्पर्य है कि वे सब-के-सब यज्ञ कर्मजन्य हैं अर्थात् कर्मोंसे होनेवाले हैं । शरीरसे जो क्रियाएँ होती हैं, वाणीसे जो कथन होता है और मनसे जो संकल्प होते हैं, वे सभी कर्म कहलाते हैं‒‘शरीरवाङ्‍मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः’ (गीता १८ । १५) ।

अर्जुन अपना कल्याण तो चाहते हैं, पर युद्धरूप कर्तव्य-कर्मको पाप मानकर उसका त्याग करना चाहते हैं । इसलिये ‘कर्मजान् विद्धि’ पदोंसे भगवान् अर्जुनके प्रति ऐसा भाव प्रकट कर रहे हैं कि युद्धरूप कर्तव्यकर्मका त्याग करके अपने कल्याणके लिये तू जो साधन करेगा, वह भी तो कर्म ही होगा । वास्तवमें कल्याण कर्मसे नहीं होता, प्रत्युत कर्मोंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेसे होता है । इसलिये यदि तू युद्धरूप कर्तव्य-कर्मको भी निर्लिप्‍त रहकर करेगा, तो उससे भी तेरा कल्याण हो जायगा; क्योंकि मनुष्यको कर्म नहीं बाँधते, प्रत्युत (कर्मकी और उसके फलकी) आसक्ति ही बाँधती है (गीता‒छठे अध्यायका चौथा श्‍लोक) । युद्ध तो तेरा सहज कर्म (स्वधर्म) है, इसलिये उसे करना तेरे लिये सुगम भी है ।

‘एवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे’भगवान्‌ने इसी अध्यायके चौदहवें श्‍लोकमें बताया कि कर्मफलमें मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म नहीं बाँधते‒इस प्रकार जो मुझे जान लेता है, वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता । तात्पर्य यह है कि जिसने कर्म करते हुए भी उनसे निर्लिप्‍त रहनेकी विद्या (‒कर्मफलमें स्पृहा न रखना)-को सीखकर उसका अनुभव कर लिया है, वह कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है । फिर पंद्रहवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने इसी बातको ‘एवं ज्ञात्वा’ पदोंसे कहा । वहाँ भी यही भाव है कि मुमुक्षु पुरुष भी इसी प्रकार जानकर कर्म करते आये हैं । सोलहवें श्‍लोकमें कर्मोंसे निर्लिप्‍त रहनेके इसी तत्त्वको विस्तारसे कहनेके लिये भगवान्‌ने प्रतिज्ञा की और ‘यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्’ पदोंसे उसे जाननेका फल मुक्त होना बताया । अब इस श्‍लोकमें ‘एवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे’ पदोंसे ही उस विषयका उपसंहार करते हैं । तात्पर्य यह है कि फलकी इच्छाका त्याग करके केवल लोकहितार्थ कर्म करनेसे मनुष्य कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।

संसारमें असंख्य क्रियाएँ होती रहती हैं; परन्तु जिन क्रियाओंसे मनुष्य अपना सम्बन्ध जोड़ता है, उन्हींसे वह बँधता है । संसारमें कहीं भी कोई क्रिया (घटना) हो, जब मनुष्य उससे अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है‒उसमें राजी या नाराज होता है, तब वह उस क्रियासे बँध जाता है । जब शरीर या संसारमें होनेवाली किसी भी क्रियासे मनुष्यका सम्बन्ध नहीं रहता, तब वह कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒जिसने कर्म करते हुए भी उससे निर्लिप्‍त (कर्तृत्व-फलेच्छारहित) रहनेकी विद्याको जान लिया है, वह कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है ।

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