।। श्रीहरिः ।।

  


आजकी शुभ तिथि–

आश्‍विन शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०८०, गुरुवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒यज्ञोंका वर्णन सुनकर ऐसी जिज्ञासा होती है कि उन यज्ञोंमेंसे कौन-सा यज्ञ श्रेष्‍ठ है ? इसका समाधान भगवान् आगेके श्‍लोकमें करते हैं ।

प्रधान विषय‒३३४२ श्‍लोकतक‒ज्ञानयोग और कर्मयोगकी प्रशंसा तथा प्रेरणा ।

सूक्ष्म विषय‒द्रव्यमय यज्ञकी अपेक्षा ज्ञानयज्ञकी श्रेष्‍ठता ।

       श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः  परन्तप ।

सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥ ३३ ॥

अर्थ‒हे परन्तप अर्जुन ! द्रव्यमय यज्ञसे ज्ञानयज्ञ श्रेष्‍ठ है । सम्पूर्ण कर्म और पदार्थ ज्ञान (तत्वज्ञान)-में समाप्‍त (लीन) हो जाते हैं ।

परन्तप, पार्थ=हे परन्तप अर्जुन !

सर्वम् = सम्पूर्ण

द्रव्यमयात् = द्रव्यमय

कर्म = कर्म (और)

यज्ञात् = यज्ञसे

अखिलम् = पदार्थ

ज्ञानयज्ञः = ज्ञानयज्ञ

ज्ञाने = ज्ञान (तत्त्वज्ञान)-में

श्रेयान् = श्रेष्‍ठ है ।

परिसमाप्यते = समाप्‍त (लीन) हो जाते हैं ।

व्याख्या‘श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप’जिन यज्ञोंमें द्रव्यों (पदार्थों) तथा कर्मोंकी आवश्यकता होती है, वे सब यज्ञ ‘द्रव्यमय’ होते हैं । ‘द्रव्य’ शब्दके साथ ‘मय’ प्रत्यय प्रचुरताके अर्थमें है । जैसे मिट्टीकी प्रधानतावाला पात्र ‘मृन्मय’ कहलाता है, ऐसे ही द्रव्यकी प्रधानतावाला यज्ञ ‘द्रव्यमय’ कहलाता है । ऐसे द्रव्यमय यज्ञसे ज्ञानयज्ञ श्रेष्‍ठ है; क्योंकि ज्ञानयज्ञमें द्रव्य और कर्मकी आवश्यकता नहीं होती ।

सभी यज्ञोंको भगवान्‌ने कर्मजन्य कहा है (चौथे अध्यायका बत्तीसवाँ श्‍लोक) । यहाँ भगवान् कहते हैं कि सम्पूर्ण कर्म ज्ञानयज्ञमें परिसमाप्‍त हो जाते हैं अर्थात् ज्ञानयज्ञ कर्मजन्य नहीं है, प्रत्युत विवेक-विचारजन्य है । अतः यहाँ जिस ज्ञानयज्ञकी बात आयी है, वह पूर्ववर्णित बारह यज्ञोंके अन्तर्गत आये ज्ञानयज्ञ (चौथे अध्यायका अट्ठाईसवाँ श्‍लोक)-का वाचक नहीं है, प्रत्युत आगेके (चौंतीसवें) श्‍लोकमें वर्णित ज्ञान प्राप्‍त करनेकी प्रचलित प्रक्रियाका वाचक है । पूर्ववर्णित बारह यज्ञोंका वाचक यहाँ ‘द्रव्यमय यज्ञ’ है । द्रव्यमय यज्ञ समाप्‍त करके ही ज्ञानयज्ञ किया जाता है ।

अगर सूक्ष्मदृष्‍टिसे देखा जाय तो ज्ञानयज्ञ भी क्रियाजन्य ही है, परन्तु इसमें विवेक-विचारकी प्रधानता रहती है ।

‘सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते’‘सर्वम्’ और ‘अखिलम्’दोनों शब्द पर्यायवाची हैं और उनका अर्थ ‘सम्पूर्ण’ होता है । इसलिये यहाँ ‘सर्वम् कर्म’ का अर्थ सम्पूर्ण कर्म (मात्र कर्म) और ‘अखिलम्’ का अर्थ सम्पूर्ण द्रव्य (मात्र पदार्थ) लेना ही ठीक मालूम देता है ।

जबतक मनुष्य अपने लिये कर्म करता है, तबतक उसका सम्बन्ध क्रियाओं और पदार्थोंसे बना रहता है । जबतक क्रियाओं और पदार्थोंसे सम्बन्ध रहता है, तभीतक अन्तःकरणमें अशुद्धि रहती है, इसलिये अपने लिये कर्म न करनेसे ही अन्तःकरण शुद्ध होता है ।

अन्तःकरणमें तीन दोष रहते हैं‒मल (संचित पाप), विक्षेप (चित्तकी चंचलता) और आवरण (अज्ञान) । अपने लिये कोई भी कर्म न करनेसे अर्थात् संसारमात्रकी सेवाके लिये ही कर्म करनेसे जब साधकके अन्तःकरणमें स्थित मल और विक्षेप‒दोनों दोष मिट जाते हैं, तब वह ज्ञानप्राप्‍तिके द्वारा आवरण-दोषको मिटानेके लिये कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके गुरूके पास जाता है । उस समय वह कर्मों और पदार्थोंसे ऊँचा उठ जाता है अर्थात् कर्म और पदार्थ उसके लक्ष्य नहीं रहते, प्रत्युत एक चिन्मय तत्त्व ही उसका लक्ष्य रहता है । यही सम्पूर्ण कर्मों और पदार्थोंका तत्त्वज्ञानमें समाप्‍त होना है ।

ज्ञानप्राप्‍तिकी प्रचलित प्रक्रिया

शास्‍त्रोंमें ज्ञानप्राप्‍तिके आठ अन्तरंग साधन कहे गये हैं‒(१) विवेक, (२) वैराग्य, (३) शमादि षट्सम्पत्ति (शम, दम, श्रद्धा, उपरति, तितिक्षा और समाधान), (४) मुमुक्षुता, (५) श्रवण, (६) मनन, (७) निदिध्यासन और (८) तत्त्वपदार्थसंशोधन । इनमें पहला साधन विवेक है । सत् और असत्‌को अलग-अलग जानना ‘विवेककहलाता है । सत्-असत्‌को अलग-अलग जानकर असत्‌का त्याग करना अथवा संसारसे विमुख होना ‘वैराग्य’ है । इसके बाद शमादि षट्सम्पत्ति आती है । मनको इन्द्रियोंके विषयोंसे हटाना ‘शम’ है । इन्द्रियोंको विषयोंसे हटाना ‘दम’ है । ईश्‍वर, शास्‍त्र आदिपर पूज्यभावपूर्वक प्रत्यक्षसे भी अधिक विश्‍वास करना ‘श्रद्धा’ है । वृत्तियोंका संसारकी ओरसे हट जाना ‘उपरति’ है । सरदी-गरमी आदि द्वन्द्वोंको सहना, उनकी उपेक्षा करना ‘तितिक्षा’ है । अन्तःकरणमें शंकाओंका न रहना ‘समाधान’ है । इसके बाद चौथा साधन है‒मुमुक्षुता । संसारसे छूटनेकी इच्छा ‘मुमुक्षुता’ है ।

मुमुक्षुता जाग्रत् होनेके बाद साधक पदार्थों और कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्‍ठ गुरुके पास जाता है । गुरुके पास निवास करते हुए शास्‍त्रोंको सुनकर तात्पर्यका निर्णय करना तथा उसे धारण करना ‘श्रवण’ है । श्रवणसे प्रमाणगत संशय दूर होता है । परमात्मतत्त्वका युक्ति-प्रयुक्तियोंसे चिन्तन करना ‘मनन’ है । मननसे प्रमेयगत संशय दूर होता है । संसारकी सत्ताको मानना और परमात्मतत्त्वकी सत्ताको न मानना ‘विपरीत भावना’ कहलाती है । विपरीत भावनाको हटाना ‘निदिध्यासन’ है । प्राकृत पदार्थमात्रसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाय और केवल एक चिन्मयतत्त्व शेष रह जाय‒यह ‘तत्त्वपदार्थसंशोधन’ है । इसे ही तत्त्व-साक्षात्कार कहते हैं

१.जो सांसारिक भोग और संग्रहमें लगे हुए हैं, ऐसे मनुष्योंके द्वारा ‘श्रवण’ होता है शास्‍त्रोंका, ‘मनन’ होता है विषयोंका, ‘निदिध्यासन’ होता है रुपयोंका और ‘साक्षात्कार’ होता है दुःखोंका !

विचारपूर्वक देखा जाय तो इन सब साधनोंका तात्पर्य है‒असाधन अर्थात् असत्‌के सम्बन्धका त्याग । त्याज्य वस्तु अपने लिये नहीं होती, पर त्यागका परिणाम (तत्त्वसाक्षात्कार) अपने लिये होता है ।

परिशिष्‍ट भाव‒द्रव्यमय यज्ञमें क्रिया तथा पदार्थकी मुख्यता है; अतः वह करणसापेक्ष है । ज्ञानयज्ञमें विवेक-विचारकी मुख्यता है; अतः वह करणनिरपेक्ष है । इसलिये द्रव्यमय यज्ञसे ज्ञानयज्ञ श्रेष्‍ठ है । ज्ञानयज्ञमें सम्पूर्ण क्रियाओं और पदार्थोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है अर्थात् तत्त्वज्ञान होनेपर कुछ भी करना, जानना और पाना शेष नहीं रहता; क्योंकि एक परमात्मतत्त्वके सिवाय अन्य सत्ता ही नहीं रहती ।

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