।। श्रीहरिः ।।

   


आजकी शुभ तिथि–

आश्‍विन शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०८०, शुक्रवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒अर्जुन अपना कल्याण चाहते हैं; अतः कल्याणप्राप्‍तिके विभिन्‍न साधनोंका यज्ञरूपसे वर्णन करके अब भगवान् ज्ञानयज्ञके द्वारा तत्त्वज्ञान प्राप्‍त करनेकी प्रचलित प्रणालीका वर्णन करते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒ज्ञानप्राप्‍तिकी शास्‍त्रीय प्रणालीका वर्णन ।

      तद्विद्धि   प्रणिपातेन   परिप्रश्‍नेन  सेवया ।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥ ३४ ॥

अर्थउस तत्त्वज्ञानको (तत्वदर्शी ज्ञानी महापुरुषोंके पास जाकर) समझ । उनको साष्‍टांग दण्डवत् प्रणाम करनेसे, उनकी सेवा करनेसे और सरलतापूर्वक प्रश्‍न करनेसे वे तत्त्वदर्शी (अनुभवी) ज्ञानी (शास्‍त्रज्ञ) महापुरुष तुझे उस तत्त्वज्ञानका उपदेश देंगे ।

तत् = उस (तत्त्वज्ञान) को

ते = वे

विद्धि = (तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुषोंके पास जाकर) समझ

तत्त्वदर्शिनः = तत्त्वदर्शी (अनुभवी)

प्रणिपातेन = (उनको) साष्‍टांग दण्डवत् प्रणाम करनेसे,

ज्ञानिनः = ज्ञानी (शास्‍त्रज्ञ) महापुरुष

सेवया = (उनकी) सेवा करनेसे (और)

ज्ञानम् = (तुझे उस) तत्त्वज्ञानका

परिप्रश्‍नेन = सरलतापूर्वक प्रश्‍न करनेसे

उपदेक्ष्यन्ति = उपदेश देंगे ।

व्याख्या‘तद्विद्धि’अर्जुनने पहले कहा था कि युद्धमें स्वजनोंको मारकर मैं हित नहीं देखता (गीता‒पहले अध्यायका इकतीसवाँ श्‍लोक); इन आततायियोंको मारनेसे तो पाप ही लगेगा (गीता‒पहले अध्यायका छत्तीसवाँ श्‍लोक) । युद्ध करनेकी अपेक्षा मैं भिक्षा माँगकर जीवन-निर्वाह करना श्रेष्‍ठ समझता हूँ (गीता‒दूसरे अध्यायका पाँचवाँ श्‍लोक) । इस तरह अर्जुन युद्धरूप कर्तव्य-कर्मका त्याग करना श्रेष्‍ठ मानते हैं; परन्तु भगवान्‌के मतानुसार ज्ञानप्राप्‍तिके लिये कर्मोंका त्याग करना आवश्यक नहीं है (गीता‒तीसरे अध्यायका बीसवाँ और चौथे अध्यायका पंद्रहवाँ श्‍लोक) । इसीलिये यहाँ भगवान् अर्जुनसे मानो यह कह रहे हैं कि अगर तू कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके ज्ञान प्राप्‍त करनेको ही श्रेष्‍ठ मानता है, तो तू किसी तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुषके पास ही जाकर विधिपूर्वक ज्ञानको प्राप्‍त कर; मैं तुझे ऐसा उपदेश नहीं दूँगा ।

वास्तवमें यहाँ भगवान्‌का अभिप्राय अर्जुनको ज्ञानी महापुरुषके पास भेजनेका नहीं, प्रत्युत उन्हें चेतानेका प्रतीत होता है । जैसे कोई महापुरुष किसीको उसके कल्याणकी बात कह रहा है, पर श्रद्धाकी कमीके कारण सुननेवालेको वह बात नहीं जँचती, तो वह महापुरुष उसे कह देता है कि तू किसी दूसरे महापुरुषके पास जाकर अपने कल्याणका उपाय पूछ; ऐसे ही भगवान् मानो यह कह रहे हैं कि अगर तुझे मेरी बात नहीं जँचती, तो तू किसी ज्ञानी महापुरुषके पास जाकर प्रचलित प्रणालीसे ज्ञान प्राप्‍त कर । ज्ञान प्राप्‍त करनेकी प्रचलित प्रणाली है‒कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके, जिज्ञासापूर्वक श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्‍ठ गुरुके पास जाकर विधिपूर्वक ज्ञान प्राप्‍त करना

१.आदौ स्ववर्णाश्रमवर्णिताः क्रियाः कृत्वा समासादितशुद्धमानसः ।

   समाप्य   तत्पूर्वमुपात्तसाधनः  समाश्रयेत्   सद्गुरुमात्मलब्धये ॥

(अध्यात्मरामायण, उत्तर ५ । ७)

सबसे पहले अपने-अपने वर्ण और आश्रमके लिये शास्‍त्रोंमें वर्णित क्रियाओंका यथावत् पालन करके चित्त शुद्ध हो जानेपर उन क्रियाओंका त्याग कर दे, फिर शम-दम आदि साधनोंसे सम्पन्‍न होकर आत्मज्ञानकी प्राप्‍तिके लिये सद्गुरुकी शरणमें जाय ।’

तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्‍ठम् ।

(मुण्डक १ । २ । १२)

उस ज्ञानको प्राप्‍त करनेके लिये वह जिज्ञासु साधक हाथमें समिधा लिये हुए विनयपूर्वक वेदशास्‍त्रोंके ज्ञाता और तत्त्वज्ञानी गुरुके पास जाय ।’

आगे चलकर भगवान्‌ने अड़तीसवें श्‍लोकमें कहा है कि यही तत्त्वज्ञान तुझे अपना कर्तव्य-कर्म करते-करते (कर्मयोग सिद्ध होते ही) दूसरे किसी साधनके बिना स्वयं अपने-आपमें प्राप्‍त हो जायगा । उसके लिये किसी दूसरेके पास जानेकी जरूरत नहीं है ।

प्रणिपातेन’ज्ञान-प्राप्‍तिके लिये गुरुके पास जाकर उन्हें साष्‍टांग दण्डवत्-प्रणाम करे । तात्पर्य यह कि गुरुके पास नीच पुरुषकी तरह रहे‒‘नीचवत् सेवेत सद्गुरुम्’, जिससे अपने शरीरसे गुरुका कभी निरादर, तिरस्कार न हो जाय । नम्रता, सरलता और जिज्ञासुभावसे उनके पास रहे और उनकी सेवा करे । अपने-आपको उनके समर्पित कर दे; उनके अधीन हो जाय । शरीर और वस्तुएँ‒दोनों उनके अर्पण कर दे । साष्‍टांग दण्डवत्-प्रणामसे अपना शरीर और सेवासे अपनी वस्तुएँ उनके अर्पण कर दे ।

‘सेवया’शरीर और वस्तुओंसे गुरुकी सेवा करे । जिससे वे प्रसन्‍न हों, वैसा काम करे । उनकी प्रसन्‍नता प्राप्‍त करनी हो तो अपने-आपको सर्वथा उनके अधीन कर दे । उनके मनके, संकेतके, आज्ञाके अनुकूल काम करे । यही वास्तविक सेवा है ।

सन्त-महापुरुषकी सबसे बड़ी सेवा है‒उनके सिद्धान्तोंके अनुसार अपना जीवन बनाना । कारण कि उन्हें सिद्धान्त जितने प्रिय होते हैं, उतना अपना शरीर प्रिय नहीं होता । सिद्धान्तकी रक्षाके लिये वे अपने शरीरतकका सहर्ष त्याग कर देते हैं । इसलिये सच्‍चा सेवक उनके सिद्धान्तोंका दृढ़तापूर्वक पालन करता है ।

परिप्रश्‍नेन’केवल परमात्मतत्त्वको जाननेके लिये, जिज्ञासुभावसे सरलता और विनम्रतापूर्वक गुरुसे प्रश्‍न करे । अपनी विद्वत्ता दिखानेके लिये अथवा उनकी परीक्षा करनेके लिये प्रश्‍न न करे ।

मैं कौन हूँ ? संसार क्या है ? बन्धन क्या है ? मोक्ष क्या है ? परमात्मतत्त्वका अनुभव कैसे हो सकता है ? मेरे साधनमें क्या-क्या बाधाएँ हैं ? उन बाधाओंको कैसे दूर किया जाय ? तत्त्व समझमें क्यों नहीं आ रहा है ? आदि-आदि प्रश्‍न केवल अपने बोधके लिये (जैसे-जैसे जिज्ञासा हो, वैसे-वैसे) करे ।

ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः’‘तत्त्वदर्शिनः’ पदका तात्पर्य यह है कि उस महापुरुषको परमात्मतत्त्वका अनुभव हो गया हो; और ‘ज्ञानिनः’ पदका तात्पर्य यह है कि उन्हें वेदों तथा शास्‍त्रोंका अच्छी तरह ज्ञान हो । ऐसे तत्त्वदर्शी और ज्ञानी महापुरुषके पास जाकर ही ज्ञान प्राप्‍त करना चाहिये ।

अन्तःकरणकी शुद्धिके अनुसार ज्ञानके अधिकारी तीन प्रकारके होते हैं‒उत्तम, मध्यम और कनिष्‍ठ । उत्तम अधिकारीको श्रवणमात्रसे तत्त्वज्ञान हो जाता है

२.उत्तम अधिकारी वही है, जिसमें तत्त्वप्राप्‍तिकी लगन हो, जिसको तत्त्वप्राप्‍तिमें भविष्य अच्छा न लगे अर्थात् जो वर्तमानमें ही तत्काल तत्त्वप्राप्‍ति करना चाहता हो ।

मध्यम अधिकारीको श्रवण, मनन और निदिध्यासन करनेसे तत्त्वज्ञान होता है । कनिष्‍ठ अधिकारी तत्त्वको समझनेके लिये भिन्‍न-भिन्‍न प्रकारकी शंकाएँ किया करता है । उन शंकाओंका समाधान करनेके लिये वेदों और शास्‍त्रोंका ठीक-ठीक ज्ञान होना आवश्यक है; क्योंकि वहाँ केवल युक्तियोंसे तत्त्वको समझाया नहीं जा सकता । अतः यदि गुरु तत्त्वदर्शी हो, पर ज्ञानी न हो, तो वह शिष्यकी तरह-तरहकी शंकाओंका समाधान नहीं कर सकेगा । यदि गुरु शास्‍त्रोंका ज्ञाता हो, पर तत्त्वदर्शी न हो तो उसकी बातें वैसी ठोस नहीं होंगी, जिससे श्रोताको ज्ञान हो जाय । वह बातें सुना सकता है, पुस्तकें पढ़ा सकता है, पर शिष्यको बोध नहीं करा सकता । इसलिये गुरुका तत्त्वदर्शी और ज्ञानी‒दोनों ही होना बहुत जरूरी है ।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानम्महापुरुषको दण्डवत्-प्रणाम करनेसे, उनकी सेवा करनेसे और उनसे सरलतापूर्वक प्रश्‍न करनेसे वे तुझे तत्त्वज्ञानका उपदेश देंगे‒इसका यह तात्पर्य नहीं है कि महापुरुषको इन सबकी अपेक्षा रहती है । वास्तवमें उन्हें प्रणाम, सेवा आदिकी किंचिन्मात्र भी भूख नहीं होती । यह सब कहनेका भाव है कि जब साधक इस प्रकार जिज्ञासा करता है और सरलतापूर्वक महापुरुषके पास जाकर रहता है, तब उस महापुरुषके अन्तःकरणमें उसके प्रति विशेष भाव पैदा होते हैं, जिससे साधकको बहुत लाभ होता है । यदि साधक इस प्रकार उनके पास न रहे, तो ज्ञान मिलनेपर भी वह उसे ग्रहण नहीं कर सकेगा ।

ज्ञानम्’ पद यहाँ तत्त्वज्ञान अथवा स्वरूप-बोधका वाचक है । वास्तवमें ज्ञान स्वरूपका नहीं होता, प्रत्युत संसारका होता है । संसारका ज्ञान होते ही संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और स्वतःसिद्ध स्वरूपका अनुभव हो जाता है ।

उपदेक्ष्यन्ति’ पदका यह तात्पर्य है कि महापुरुष ज्ञानका उपदेश तो देते हैं, पर उससे साधकको बोध हो ही जाय, ऐसा निश्‍चित नहीं है । आगे उनतालीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा है कि श्रद्धावान् पुरुष ज्ञानको प्राप्‍त करता है‒‘श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम् ।’ कारण कि श्रद्धा अन्तःकरणकी वस्तु है; परन्तु प्रणाम, सेवा, प्रश्‍न आदि कपटपूर्वक भी किये जा सकते हैं । इसलिये यहाँ महापुरुषके द्वारा केवल ज्ञानका उपदेश देनेकी ही बात कही गयी है और उनतालीसवें श्‍लोकमें श्रद्धावान् साधकके द्वारा ज्ञान प्राप्‍त होनेकी बात कही गयी है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्यातत्त्वज्ञान प्राप्‍त करनेकी प्रचलित प्रणालीका वर्णन करते हुए भगवान् मानो यह कहना चाहते हैं कि केवल गुरू बनानेसे ज्ञानकी प्राप्‍ति नहीं होती और केवल शिष्य बनानेसे गुरूका कर्तव्य पूरा नहीं होता । यदि कोई अनुभवी महापुरुषके पास जाकर उन्हें प्रणाम करे अर्थात् अपने-आपको उनके समर्पित कर दे, उनकी आज्ञाके अनुसार काम करे और उनके सामने अपनी जिज्ञासा प्रकट करे तो वे गुरु-शिष्यका सम्बन्ध जोड़े बिना तत्त्वज्ञानका उपदेश दे देंगे ।

जिससे तत्त्वज्ञानका उपदेश लिया जाय, उस महापुरुषका अनुभवी और शास्‍त्रज्ञ होना आवश्यक है । यदि वह अनुभवी तो हो पर शास्‍त्रज्ञ नहीं हो तो जिज्ञासुकी अनेक शंकाओंका समुचित समाधान नहीं कर पायेगा । यदि वह शास्‍त्रज्ञ तो हो, पर अनुभवी नहीं हो तो उसके वचन वैसे ठोस एवं प्रभावशाली नहीं होंगे, जिनसे जिज्ञासुको बोध हो जाय ।

अनुभवी और शास्‍त्रज्ञइन दोनोंमें भी महापुरुषका अनुभवी होना मुख्य है । अनुभवी महापुरुषके हृदयमें शास्‍त्र स्वतः प्रकट होते हैं । अनुभवी सन्तोंकी वाणीसे ही शास्‍त्र बनते हैं । उनकी वाणी स्वतः शास्‍त्रके अनुकूल होती है ।

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