।। श्रीहरिः ।।

    


आजकी शुभ तिथि–

आश्‍विन शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०८०, शनिवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒तत्त्वज्ञान प्राप्‍त करनेकी प्रचलित प्रणालीका वर्णन करके अब भगवान् आगेके तीन (पैंतीसवें, छत्तीसवें और सैंतीसवें) श्‍लोकोंमें तत्त्वज्ञानका वास्तविक माहात्म्य बताते हैं ।

सूक्ष्म विषयज्ञानप्राप्‍तिके बाद पुनः मोह न होनेका कथन ।

      यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।

 येन भूतान्यशेषेण  द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥ ३५ ॥

अर्थजिस (तत्त्वज्ञान)-का अनुभव करनेके बाद तू फिर इस प्रकार मोहको नहीं प्राप्‍त होगा और हे अर्जुन ! जिस (तत्त्वज्ञान)-से तू सम्पूर्ण प्राणियोंको निःशेषभावसे पहले अपनेमें और उसके बाद मुझ सच्‍चिदानन्दघन परमात्मामें देखेगा ।

यत् = जिस (तत्त्वज्ञान)-का

येन = जिस (तत्त्वज्ञान)-से

ज्ञात्वा = अनुभव करनेके बाद (तू)

भूतानि = (तू) सम्पूर्ण प्राणियोंको

पुनः = फिर

अशेषेण = निःशेषभावसे (पहले)

एवम् = इस प्रकार

आत्मनि = अपनेमें (और)

मोहम् = मोहको

अथो = उसके बाद

न = नहीं

मयि = मुझ सच्‍चिदानन्दघन परमात्मामें

यास्यसि = प्राप्‍त होगा (और)

द्रक्ष्यसि = देखेगा ।

पाण्डव = हे अर्जुन !

 

व्याख्या‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव’‒पूर्वश्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि वे महापुरुष तेरेको तत्त्वज्ञानका उपदेश देंगे; परन्तु उपदेश सुननेमात्रसे वास्तविक बोध अर्थात् स्वरूपका यथार्थ अनुभव नहीं होता‒‘श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्‍चित्’ (गीता २ । २९); और वास्तविक बोधका वर्णन भी कोई कर नहीं सकता । कारण कि वास्तविक बोध करण-निरपेक्ष है अर्थात् मन, वाणी आदिसे परे है । अतः वास्तविक बोध स्वयंके द्वारा ही स्वयंको होता है और यह तब होता है, जब मनुष्य अपने विवेक (जड-चेतनके भेदका ज्ञान)-को महत्त्व देता है । विवेकको महत्त्व देनेसे जब अविवेक सर्वथा मिट जाता है, तब वह विवेक ही वास्तविक बोधमें परिणत हो जाता है और जडतासे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद करा देता है । वास्तविक बोध होनेपर फिर कभी मोह नहीं होता ।

गीताके पहले अध्यायमें अर्जुनका मोह प्रकट होता है कि युद्धमें सभी कुटुम्बी, सगे-सम्बन्धी लोग मर जायँगे तो उन्हें पिण्ड और जल देनेवाला कौन होगा ? पिण्ड और जल न देनेसे वे नरकोंमें गिर जायँगे । जो जीवित रह जायँगे, उन स्‍त्रियोंका और बच्‍चोंका निर्वाह और पालन कैसे होगा ? आदि-आदि । तत्त्वज्ञान होनेके बाद ऐसा मोह नहीं रहता । बोध होनेपर जब संसारसे मैं-मेरेपनका सम्बन्ध नहीं रहता, तब पुनः मोह होनेका प्रश्‍न ही नहीं रहता ।

‘येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मनि’तत्त्वज्ञान होते ही ऐसा अनुभव होता है कि मेरी सत्ता सर्वत्र परिपूर्ण है और उस सत्ताके अन्तर्गत ही अनन्त ब्रह्माण्ड हैं । जैसे स्वप्‍नसे जगा हुआ मनुष्य स्वप्‍नकी सृष्‍टिको अपनेमें ही देखता है, ऐसे ही तत्त्वज्ञान होनेपर मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियों (जगत्)-को अपनेमें ही देखता है । छठे अध्यायके उनतीसवें श्‍लोकमें आये ‘सर्वभूतानि चात्मनि’ पदोंसे भी इसी स्थितिका वर्णन किया गया है ।

अथो मयि’तत्त्वज्ञान प्राप्‍त करनेकी जो प्रचलित प्रक्रिया है, उसीके अनुसार भगवान् कह रहे हैं कि गुरुसे विधिपूर्वक (श्रवण, मनन और निदिध्यासनपूर्वक) तत्त्वज्ञान प्राप्‍त करनेपर साधक पहले अपने स्वरूपमें सम्पूर्ण प्राणियोंको देखता है‒यह ‘त्वम्’ पदका अनुभव हुआ, फिर वह स्वरूपको तथा सम्पूर्ण प्राणियोंको एक सच्‍चिदानन्दघन परमात्मामें देखता है‒यह ‘तत्’ पदका अनुभव हुआ । इस तरह उसको पहले ‘त्वम्’ (स्वरूप) का और फिर ‘तत्’ (परमात्मतत्त्व) के साथ ‘त्वम्’ की एकताका अनुभव हो जाता है । एक ब्रह्म-ही-ब्रह्म शेष रह जाता है । ऐसी अवस्थामें द्रष्‍टा, दृश्य और दर्शन‒ये तीनों ही नहीं रहते । परन्तु लोगोंकी दृष्‍टिमें उसके अपने कहलानेवाले अन्तःकरणमें जो भाव दीखता है, उसको लेकर ही भगवान् कहते हैं कि वह सबको मेरेमें देखता है ।

स्थूल दृष्‍टिसे समुद्र और लहरोंमें भिन्‍नता दीखती है । लहरें समुद्रमें ही उठती और लीन होती रहती हैं । परन्तु सूक्ष्म दृष्‍टिसे समुद्र और लहरोंकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । सत्ता केवल एक जल-तत्त्वकी ही है । जल-तत्त्वमें न समुद्र है, न लहरें । पृथ्वीसे सम्बन्ध होनेके कारण समुद्र भी सीमित है और लहरें भी; परन्तु जल-तत्त्व सीमित नहीं है । अतः समुद्र और लहरोंको न देखकर एक जल-तत्त्वको देखना ही यथार्थ दृष्‍टि है । इसी तरह संसाररूप समुद्र और शरीररूप लहरोंमें भिन्‍नता दीखती है । शरीर संसारमें ही उत्पन्‍न और नष्‍ट होते रहते हैं । परन्तु वास्तवमें संसार और शरीर-समुदायकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । सत्ता केवल परमात्मतत्त्वकी ही है । परमात्मतत्त्वमें न संसार है, न शरीर । प्रकृतिसे सम्बन्ध होनेके कारण संसार भी सीमित है और शरीर भी । परन्तु परमात्मतत्त्व सीमित नहीं है । अतः संसार और शरीरोंको न देखकर एक परमात्मतत्त्वको देखना ही यथार्थ दृष्‍टि है (गीता‒तेरहवें अध्यायका सत्ताईसवाँ श्‍लोक) ।

परिशिष्‍ट भाव‒तत्त्वज्ञान अथवा अज्ञानका नाश एक ही बार होता है और सदाके लिये होता है । तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञानकी आवृत्ति नहीं होती । वह एक बार अनुभवमें आ गया तो सदाके लिये आ ही गया ! कारण कि जब अज्ञानकी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है, तो फिर पुनः अज्ञान कैसे होगा ? अतः नित्यनिवृत्त अज्ञानकी ही निवृत्ति होती है और नित्यप्राप्‍त तत्त्वकी ही प्राप्‍ति होती है ।

स्वयं सत्तामात्र तथा बोधस्वरूप है । बोधका अनादर करनेसे हमने असत्‌को स्वीकार किया और असत्‌को स्वीकार करनेसे अविवेक हुआ । तात्पर्य है कि बोधसे विमुख होकर हमने असत्‌को सत्ता दी और असत्‌को सत्ता देनेसे विवेकका अनादर हुआ । वास्तवमें बोधका अनादर किया नहीं है, प्रत्युत अनादिकालसे अनादर है । अगर ऐसा मानें कि हमने बोधका अनादर किया तो इससे सिद्ध होगा कि पहले बोधका आदर था । अतः अब आदर करेंगे तो पुनः अनादर हो जायगा । परन्तु बोध एक ही बार होता है और सदाके लिये होता है ।

तत्त्वज्ञान होनेपर फिर मोह नहीं होता; क्योंकि वास्तवमें मोह है ही नहीं । मिटता वही है, जो नहीं होता और मिलता वही है, जो होता है ।

जगत् जीवके अन्तर्गत है और जीव परमात्माके अन्तर्गत है, इसलिये साधक पहले जगत्‌को अपनेमें देखता है‒‘द्रक्ष्यस्यात्मनि’, फिर अपनेको परमात्मामें देखता है‒‘अथो मयि ।’ ‘द्रक्ष्यस्यात्मनि’ में आत्मज्ञान (ज्ञान) है और ‘अथो मयि’ में परमात्मज्ञान (विज्ञान) है । आत्मज्ञानमें निजानन्द है और परमात्मज्ञानमें परमानन्द है । लौकिक निष्‍ठा (कर्मयोग तथा ज्ञानयोग)-से आत्मज्ञानका अनुभव होता है और अलौकिक निष्‍ठा (भक्तियोग)-से परमात्मज्ञानका अनुभव होता है ।

सब कुछ भगवान् ही हैं‒इस प्रकार समग्रका ज्ञान ‘परमात्मज्ञान’ है । आत्मज्ञानसे मुक्ति तो हो जाती है, पर सूक्ष्म अहम्‌की गन्ध रह जाती है, जिससे दार्शनिकोंमें और उनके दर्शनोंमें मतभेद रहता है । अगर सूक्ष्म अहम्‌की गन्ध न हो तो फिर मतभेद कहाँसे आया ? परन्तु परमात्मज्ञानसे सूक्ष्म अहम्‌की गन्ध भी नहीं रहती और उससे पैदा होनेवाले सम्पूर्ण दार्शनिक मतभेद समाप्‍त हो जाते हैं । तात्पर्य हुआ कि जबतक ‘आत्मनि’ है, तबतक दार्शनिक मतभेद हैं । जब ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव होनेपर सब मतभेद मिट जाते हैं, तब ‘अथो मयि’ हो जाता है । ‘अथो मयि’ में एक परमात्माके सिवाय दूसरी कोई सत्ता नहीं रहती ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्यातत्त्वज्ञान होनेपर फिर मोह नहीं होता; क्योंकि वास्तवमें मोहकी सत्ता है ही नहींनासतो विद्यते भावः’ (गीता २ । १६) । इसलिये तत्त्वज्ञान एक ही बार होता है और सदाके लिये होता है । जैसे, पृथ्वीपर दिनके बाद रात होती है, रातके बाद दिन होता है; परन्तु सूर्यमें रात आती ही नहीं । वहाँ नित्य-निरन्तर दिनसे भी विलक्षण प्रकाश रहता है । ऐसे ही तत्त्वज्ञानरूप सूर्यमें मोहरूप अन्धकारका प्रवेश कभी हुआ ही नहीं, है ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं । मोहकी सत्ता जीवकी दृष्‍टिमें है ।

परमात्माके अन्तर्गत जीव है‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५ । ७) और जीवके अन्तर्गत जगत् है‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७ । ५) । इसलिये साधक पहले जगत्‌को अपनेमें देखता है‘द्रक्ष्यस्यात्मनि’ फिर अपनेको परमात्मामें देखता है‘अथो मयि’ जगत्‌को अपनेमें देखनेसे अहम्‌की सूक्ष्म सत्ता रहती है । यह सूक्ष्म अहम् जन्म-मरण देनेवाला तो नहीं होता, पर दार्शनिक मतभेद करानेवाला होता है । अपनेको परमात्मामें देखनेसे अहम्‌का सर्वथा नाश हो जाता है और एक चिन्मय सत्तामात्रके सिवाय कुछ नहीं रहता ।

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