Listen सूक्ष्म विषय‒ज्ञानरूप नौकासे सम्पूर्ण
पापोंको तरनेका कथन । अपि चेदसि
पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः । सर्वं
ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं
सन्तरिष्यसि ॥ ३६ ॥ अर्थ‒अगर तू सब पापियोंसे
भी अधिक पापी है तो भी तू ज्ञानरूपी नौकाके द्वारा निःसन्देह सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे
अच्छी तरह तर जायगा ।
व्याख्या‒‘अपि चेदसि
पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः’‒पाप करनेवालोंकी तीन श्रेणियाँ होती हैं‒(१) ‘पापकृत्’ अर्थात् पाप करनेवाला, (२) ‘पापकृत्तर’ अर्थात् दो पापियोंमें एकसे अधिक पाप
करनेवाला और (३) ‘पापकृत्तम’ अर्थात् सम्पूर्ण पापियोंमें सबसे
अधिक पाप करनेवाला । यहाँ ‘पापकृत्तमः’ पदका प्रयोग करके भगवान् कहते हैं कि
अगर तू सम्पूर्ण पापियोंमें भी अत्यन्त पाप करनेवाला है, तो भी तत्त्वज्ञानसे तू सम्पूर्ण पापोंसे
तर सकता है । भगवान्का यह कथन बहुत आश्वासन देनेवाला
है । तात्पर्य यह है कि जो पापोंका त्याग करके साधनमें लगा हुआ है, उसका तो कहना ही क्या है ! पर जिसने पहले बहुत पाप किये हों, उसको भी जिज्ञासा जाग्रत् होनेके बाद
अपने उद्धारके विषयमें कभी निराश नहीं होना चाहिये । कारण कि पापी-से-पापी मनुष्य भी यदि चाहे तो इसी जन्ममें
अभी अपना कल्याण कर सकता है । पुराने पाप उतने बाधक नहीं होते, जितने वर्तमानके पाप बाधक होते हैं
। अगर मनुष्य वर्तमानमें पाप करना छोड़ दे और निश्चय कर ले
कि अब मैं कभी पाप नहीं करूँगा और केवल तत्त्वज्ञानको प्राप्त करूँगा, तो उसके पापोंका नाश होते
देरी नहीं लगती । यदि कहीं सौ वर्षोंसे घना अँधेरा छाया
हो और वहाँ दीपक जला दिया जाय, तो उस अँधेरेको दूर करके प्रकाश करनेमें दीपकको सौ वर्ष
नहीं लगते, प्रत्युत
दीपक जलाते ही तत्काल अँधेरा मिट जाता है । इसी तरह तत्त्वज्ञान होते ही पहले किये
गये सम्पूर्ण पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं । ‘चेत्’‒(यदि) पद देनेका तात्पर्य यह है कि प्रायः
ऐसे पापी मनुष्य परमात्मामें नहीं लगते; परन्तु वे परमात्मामें लग नहीं सकते‒ऐसी बात नहीं है ।
किसी महापुरुषके संगसे अथवा किसी घटना, परिस्थिति, वातावरण आदिके प्रभावसे यदि उनका ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाय
कि अब परमात्मतत्त्वका ज्ञान प्राप्त करना ही है, तो वे भी सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे भलीभाँति तर जाते हैं । नवें अध्यायके तीसवें-इकतीसवें श्लोकोंमें भी भगवान्ने
ऐसी ही बात अनन्यभावसे अपना भजन करनेवालेके लिये कही है कि महान् दुराचारी मनुष्य भी अगर यह निश्चय कर ले कि अब मैं भगवान्का
भजन ही करूँगा, तो उसका भी बहुत जल्दी कल्याण हो जाता
है । ‘सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं
सन्तरिष्यसि’‒प्रकृतिके कार्य शरीर और संसारके
सम्बन्धसे ही सम्पूर्ण पाप होते हैं । तत्त्वज्ञान होनेपर जब इनसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है तब पाप कैसे रह
सकते हैं‒‘मूलाभावे कुतः शाखा’ ? परमात्माके स्वतःसिद्ध ज्ञानके साथ
एक होना ही ‘ज्ञानप्लव’ अर्थात् ज्ञानरूप नौकाका प्राप्त होना
है । मनुष्य कितना ही पापी क्यों न रहा हो, ज्ञानरूप नौकासे वह सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे अच्छी तरह तर जाता है । यह
ज्ञानरूप नौका कभी टूटती-फूटती नहीं, इसमें कभी छिद्र नहीं होता और यह कभी डूबती भी नहीं ।
यह मनुष्यको पाप-समुद्रसे पार करा देती है । ‘ज्ञानयज्ञ’ (चौथे अध्यायका तैंतीसवाँ श्लोक) से ही यह ज्ञानरूप नौका प्राप्त होती
है । यह ज्ञानयज्ञ आरम्भसे ही ‘विवेक’ को लेकर चलता है और ‘तत्त्वज्ञान’ में इसकी पूर्णता हो जाती है । पूर्णता
होनेपर लेशमात्र भी पाप नहीं रहता । परिशिष्ट भाव‒यहाँ भगवान्ने ‘पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः’ पदोंसे पापीकी आखिरी हद बता दी है ! यद्यपि ‘पापेभ्यः’ पद बहुवचन होनेसे सम्पूर्ण पापियोंका
वाचक है, फिर भी भगवान्ने इसके साथ ‘सर्वेभ्यः’ पद दिया । ‘सर्वेभ्यः’ पद भी सम्पूर्णका वाचक है । ये दो पद
देनेके बाद भी भगवान्ने ‘पापकृत्तमः’ पद और दिया है, जो अतिशयताका बोधक है
। पहले ‘पापकृत्’ होता है, फिर ‘पापकृत्तर’ होता है और फिर ‘पापकृत्तम’ होता है । तात्पर्य निकला कि सम्पूर्ण
संसारमें जितने भी पापी हो सकते हैं, उन सम्पूर्ण पापियोंसे भी जो अत्यधिक पापी है, उसको भी ज्ञान प्राप्त हो सकता है
!
कारण कि पाप कितने ही क्यों न हों, हैं वे असत् ही, जबकि ज्ञान सत् है । सत्के आगे असत्
कैसे टिक सकता है ! पाप अपवित्र है, जबकि ज्ञान परमपवित्र है (इसी अध्यायका अड़तीसवाँ श्लोक) । अपवित्र वस्तु पवित्र वस्तुको कैसे
अटका सकती है ! अतः
पापोंमें ज्ञानको अटकानेकी ताकत नहीं है । ज्ञानप्राप्तिमें
खास बाधा है‒नाशवान् सुखकी आसक्ति (गीता‒तीसरे अध्यायके सैंतीसवेंसे इकतालीसवें
श्लोकतक) ।
भोगासक्तिके कारण ही मनुष्यकी पारमार्थिक विषयमें रुचि नहीं
होती और रुचि न होनेसे ही ज्ञानकी प्राप्ति बड़ी कठिन प्रतीत होती है । गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒संसारमात्रमें जितने
पापी हैं, उन सब पापियोंमें भी
जो सबसे अधिक पापी हैं,
ऐसे महापापीको भी ज्ञान
प्राप्त हो सकता है ! इसलिये किसी भी मनुष्यको अपने कल्याणके विषयमें निराश नहीं होना
चाहिये । मनुष्यमात्र ज्ञानप्राप्तिका अधिकारी है ।
ज्ञानकी प्राप्तिमें पाप बाधक नहीं हैं, प्रत्युत नाशवान्की कामना बाधक है (गीता ३ । ३७—४१) ।
दो विभाग
हैं‒जड़ और चेतन । ये दोनों विभाग अन्धकार और प्रकाशकी
तरह परस्पर सर्वथा असम्बद्ध हैं । सम्पूर्ण क्रियाएँ जड़-विभागमें ही होती हैं । चेतन-विभागमें
कभी किंचिन्मात्र भी कोई किया नहीं होती । सम्पूर्ण पाप जड़-विभागमें ही हैं, चेतन-विभागमें
नहीं । जड़ और चेतनके विभागको अलग-अलग जानना ही ज्ञान है । इस ज्ञानरूपी अग्निसे सम्पूर्ण
पाप सर्वथा नष्ट हो जाते हैं । രരരരരരരരരര |